भारतीय समाज का आईना है कुली लाइन्स और माटी माटी अरकाटी

भारतीय समाज का आईना है कुली लाइन्स और माटी माटी अरकाटी

पुष्यमित्र

इन दोनों किताबों को एक साथ पढ़ना चाहिये और मुमकिन हो तो पहले कुली लाइन्स को पढ़ना चाहिये फिर माटी माटी अरकाटी को। मगर मेरे साथ दिक्कत यह हुई कि मैनें पहले माटी माटी अरकाटी ही पढ़ ली। छपने से भी पहले। अश्विनी पंकज जी ने किताब लिख कर मुझे भेजा था, टिप्पणी के लिए। वैसे तो वीएस नैपॉल की हाउस ऑफ़ मिस्टर विश्वास और अभिमंयु अनंत की किताबों से पहले भी अगर कुली लाइन्स पढ़ने को मिल जाती तो उन किताबों के नए अर्थ खुलते। क्योंकि कुली लाइन्स उन तमाम उपन्यासों के लिए कुन्जी की तरह है जो गिरमिटिया देशों की पृष्ठभूमि पर लिखे गये। अंग्रेजों के राज में भारतीय मजदूरों को गन्ना, कॉफी, रबर या दूसरी नकदी फसलों की खेती के लिए मारीशस, गुयाना, फिजी, वेस्ट इंडीज आदि दूर दराज के अनजान इलाकों में भेजा गया। यह किताब लगभग 150 साल से इन इलाकों में बसे भारतीयों की कथा कहती।

लेखक प्रवीण झा इस मायग्रेशन को एक समाज शास्त्रीय प्रयोग के नजरिये से पढ़ने की कोशिश करते हैं। बिटविन द लाईन वे यह कहते नजर आते हैं कि ब्राह्मणवाद की निगरानी के बगैर विकसित हुई इन भारतीय संस्कृतियों में कैसे जाति विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गयी, महिलाओं ने आजादी की सांस ली, और भारतीय लोक संस्कृति अपने अन्दाज में आज भी धड़कती नजर आती है। अगर वे ऐसा नहीं भी कहते होंगे तो मैंने इस किताब से यही हासिल किया। हालांकि माटी माटी अरकाटी उपन्यास में अश्विनी पंकज इस बदलाव को भी कमतर मानते हैं और कहते हैं कि इस प्रवास में भी छोटानागपुर के आदिवासी शोषित ही रहे। न सिर्फ अंग्रेजों बल्कि अपने मुल्क के लोगों के द्वारा भी। वे मानते हैं कि आर्य जाति अपनी चतुराई और समझौतावादी नजरिये की वजह से हर हाल में सत्ता का सामीप्य हासिल कर लेती है। वे इस पूरे मसले को हिल कुली की निगाह से देखते हैं।

हालांकि दिलचस्प बात यह है कि कई संदर्भ दोनों किताबों में एक जैसे मिलते हैं। पहली किताब में तथ्य के रूप में दूसरी में कथा के रूप में। कुली लाइन्स को पढ़ते हुए कई बार ऐसा लगा कि यह तो माटी माटी अरकाटी में पढ़ चुका हूं।

नोट-

1. कुली लाइन्स के आकार के बारे में भी मुझे प्रवीण झा जी से वही कहना है, जो उन्होंने मेरी किताब जब नील का दाग मिटा के बारे में कहा था कि किताब थोड़ी पतली रह गयी है। एक पूरे देश की संस्कृति को तीन तीन चार चार पन्ने में समेट तो दिया गया है, मगर भूख जगी रह जाती है।

2. संयोग से इन दोनों किताबों के आभार वाले पन्ने में मेरा नाम है, जो इन दोनों लेखकों की सदाशयता है। क्योंकि इन किताबों के निर्माण में मेरी कोई भूमिका नहीं थी।

पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। प्रभात खबर की संपादकीय टीम से इस्तीफा देकर इन दिनों बिहार में स्वतंत्र पत्रकारिता  करने में मशगुल