कश्मीर… उसे बचाए कोई कैसे टूट जाने से!

कश्मीर… उसे बचाए कोई कैसे टूट जाने से!

धीरेंद्र पुंडीर

kashmir-1उसे बचाएं कैसे कोई टूट जाने से/वो दिल जो बाज न आए फरेब खाने से।

कश्मीर में होना और कश्मीर के बाहर होना दो बड़ी मुख्तलिफ सी चीजें हैं। आप इस पर ये भी कह सकते है कि ये तो सभी के लिए सही हो सकता है मसलन यूपी में होना और यूपी के बाहर होना, लेकिन ऐसा नहीं है। आप ये अंतर तभी समझ सकते हैं जब आप कश्मीर में हो। कश्मीर का मतलब आपको उनके बाशिंदों की जुबां से नहीं बस सिर्फ घाटी से लगाना है। हालांकि जब आप वहां के लोगो से बात करते हैं तो आपको वो अपनी बात से ये भी साबित करने की कोशिश करेंगे कि वो कश्मीर की बात में जम्मू और लद्दाख को भी शामिल करते हैं और कई तो इतने विश्वास के साथ कहेंगे कि वो इसमें पीओके को भी शामिल करते हैं।

कश्मीर में ठहरा वक़्त-1

kashmir-2मैं ऐसे रिपोर्टर्स से भी बहुत मिला हूं जो आसानी से इस कहानी को वेद वाक्य या फिर संविधान की बातचीत मान कर रिपोर्ट कर देते हैं। एक रिपोर्टर की बातचीत का सार था कि उस आदमी को देखो, किस तरह बात कर रहा है। कितनी कंविंसिग है इसकी बातचीत। मैं सिर्फ उस रिपोर्टर को देख रहा था जिसके लिए सामने वाले की गले की नसें उमड़ आई हैं। आंखें लाल हो गई है और बहुत तेजी से या गुस्से से बात कर रहा है। इसी से बात विश्वसनीय हो गई है। कश्मीर में आप को लोगों से बात करने से एक बात समझ में आती है कि इनके पास इतिहास का एक वर्जन है। दूर -दराज के इलाके में भी आप बात करते हैं तो सामने वाला आदमी आपको एक बात से चुप कराने की कोशिश करेगा कि 1947 में पाकिस्तान के हमले के दौरान आपकी फौज इस हिस्से को बचाने के लिए आई थी ( वो हिस्सा नहीं बोलता ) और फिर वापस नहीं गई है। ये ही मसला है बस और कोई दूसरा मसला नहीं है।

अगर आप शहर में बैठकर किसी आला दिमाग से बात करेंगे तो वो आपको गिनाना शुरू कर देंगा कि किस तरह से यूएनओं में ये मसला है। किस तरह से कश्मीर अलग है। किस तरह से कश्मीर देश के बाकी राज्यों से जुदा है। फिर आपको इतिहास की कुछ तारीखों को सुनाने लगेंगे। खैर, उन सब बातों में अफवाह को सच में बदल कर और इतिहास को अपनी मर्जाी से लिख कर उसको चला देने की करिश्माई ताकत को आप इस इलाके में महसूस कर सकते हैं।

kashmir_3इसी बीच उसके भाषा और आवाज के उतार-चढ़ाव से आप सन्न रह सकते हैं। फिर आप एकदम से खामोश हो सकते हैं, जब वो आपको इस बात के लिए गिनाना शुरू करेगा कि कब-कब देश ने कश्मीर के साथ सौतेला बर्ताव किया है। हर सही काम के पीछे कश्मीर की अपनी अच्छाईंया और हर गलत काम के पीछे हिंदुस्तान की साजिश, ये लाईन आप कहीं पर बैठ कर भी टाईप कर सकते हैं। हमेशा हर वक्तव्य में फिट बैठेगी। फिर आपको ऐसे लोगो से वास्ता पड़ेगा जो हिंदुस्तान की ओर से मोर्चा संभाल रहे हैं और वो पैरामिलिट्री में भी हैं, वो जम्मू कश्मीर पुलिस में अपनी जान दांव पर लगाने वाले जवान भी हैं। लेकिन इनके साथ भी आप बातचीत करने लगते हैं तो वो धीरे से खुलते हैं और फिर किसी की परवाह किए बिना शुरू हो जाते हैं कि मसला ए कश्मीर तो है। कश्मीर अलग है कश्मीर पर अभी तक फैसला नहीं हुआ है और हिंदुस्तान सरकार कश्मीर के खिलाफ एक दुर्भावना रखती है। ( सबके लिए नहीं जिन कुछ लोगोें से मेरी बात हुई है उनके आधार पर कह रहा हूं)

हर आदमी को कश्मीर पर बात करने का हक है। हर आदमी कश्मीर को समझ सकता है और कश्मीर के बारे में बोल सकता है। लेकिन रिपोर्टर को थोड़ा कम ही इस पर बोलना चाहिए क्योंकि कश्मीर पर रेफरेंस बनने से पहले पढ़ लेना चाहिए। मुझे ऐसा हमेशा से लगता रहा है कि कश्मीर एक अफवाहों के इतिहास में बदलने की कहानी है। हजारों साल के रिश्ते को कुछ सौ साल में बदलने और उस कुछ सौ साल में भी एक खास किस्म और वक्त में बदलने की कहानी है। कश्मीर की कहानी एक ऐसी केन्द्र सरकार की कहानी है जो खतरे से आंखें मूंद कर वक्त के आसरे बैठी रही और जब पानी सिर से ऊपर चला गया तब वो कुछ लाईफ बोट खोज रही है।

कश्मीर की कहानी ऐसे इतिहास की कहानी है जिसको लगातार बदलने की कोशिशें जारी है। कश्मीर की कहानी ऐसे समीकरणों की कहानी है जो ताकत और पैसा हासिल करने के लिए दिल्ली की ओर, और बाजी बदलने पर घाटी की अफवाहों की ओर देखती है। कश्मीर की कहानी एक ऐसे हिस्से की कहानी है, जहां के कुछ जहीन लोग इस इलाके की भौगोलिक सरंचना और उसकी आबादी को दुनिया से किराया वसूलने के लिए इस्तेमाल करते हैं। कश्मीर की कहानी धार्मिक आधार पर बने हुए देश के अपने बदला लेने के लिए इस इलाके को दांव पर लगाने की कहानी है। कश्मीर की कहानियों में इतने किरदार हैं, इतने समीकरण हैं कि उसमें कब हीरो मेहमान कलाकार में तब्दील हो गया, स्क्रिप्ट राईटर को भी नहीं पता चला।

और इन सब से ऊपर कश्मीर की कहानी दिल्ली के उन पत्रकारों की कहानी भी है, जो दिल्ली में बैठ कर इंसानियत की कहानी समझा रहे हैं। वो जो यहां बैठकर पत्थर खाने और चलाने वाले दोनों पर अपना फैसला चाय या कॉफी के कप में चीनी ज्यादा या कम होने जैसी धारणा के साथ दे सकते हैं। ये ऐसे पत्रकारों की कहानी भी है जिनको मानवीय और बुद्धिमान बनने के लिए सरकारी फाईलों में लिखे हुए कागजों की कहानी को ब्रह्म वाक्य बना कर पेश करने में मजा आता है। कुछ ऐसे पत्रकारों की भी कहानी है जो कश्मीर को एक प्रोडक्ट के तौर पर बेचकर फेमस हो गए हैं। और फिर वहां की सतह पर दिखती हुई कहानियों को अंतकरण की पुकार साबित करने में जुट गए हैं।

मैं बतौर पत्रकार कश्मीर में कई बार कवरेज के लिए गया। लोगों को समझने की कोशिश की। उनके झूठ और सच पर बहस की। हाथ जोड़कर बहस की। कई बार खुल कर बहस की। अलगाववादियों से बातचीत की। सुरक्षाबलों से बातचीत की। कश्मीर की पुलिस के लोगों से बातचीत की। और फिर इतिहासकारों और कुछ पत्रकारों से भी बातचीत की। गांव के लोगों से बातचीत करना अपना पुराना शगल रहा है क्योंकि मुझे हमेशा शहर में जीते रहने के बावजूद अंदर कोई गांव की कहानी सुनाने का मन हमेशा करता रहा है।

मैं इसी आधार पर कश्मीर को लेकर जो मुझे लगा उसको शेयर कर रहा हूं। ये एक सीरीज है जिसके लिए मैं हो सकता है नियमित तौर पर न लिख पाऊं लेकिन कश्मीर के इतिहास को कश्मीर के लोगों के नजरिये से, कश्मीर की राजनीति वहां के लोगों के नजरिये से, कश्मीर के हालात वहां के लोगों के नजरिए और फिर उसमें अपनी समझ से आए हुए छींंटे देखने की कोशिश करता हूं। और मैं एक बात को पक्के तौर पर मानता हूं कि असहमति का मतलब विरोधी होना नहीं होता है। हम किसी से भी असहमत होकर अपने विचार रख सकते हैं।

साथ ही मैं अपने पंसदीदा शायर इकबाल अशर साहब की एक गजल के हिस्से का जिक्र कर रहा हूं। वो इसलिए कि कश्मीर में ज्यादातर लोगों को तर्क से नहीं भावुकता से समझदार बनाने की कोशिश में कामयाब हो रहे हैं अलगाववादी। और इसके लिए कश्मीर के कुछ नौजवान बिना किसी बहस के बस पत्थर उठा रहे हैं।

उसे बचाए कोई कैसे टूट जाने से

उसे बचाए कोई कैसे टूट जाने से
वो दिल जो बाज़ न आये फरेब खाने से

वो शखस एक ही लम्हे में टूट-फुट गया
जिसे तराश रहा था में एक ज़माने से

रुकी रुकी से नज़र आ रही है नब्ज़-इ-हयात
ये कौन उठ के गया है मरे सरहाने से

न जाने कितने चरागों को मिल गयी शोहरत
एक आफ़ताब के बे-वक़्त डूब जाने से

उदास छोड़ गया वो हर एक मौसम को
गुलाब खिलते थे जिसके यूँ मुस्कुराने से

–इकबाल अशर

dhirendra pundhir


धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंडीर की अपनी विशिष्ट पहचान है। 


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