एक और हादसा… हादसे की लिस्ट में दर्ज कर भूल जाइए!

एक और हादसा… हादसे की लिस्ट में दर्ज कर भूल जाइए!

कानपुर ट्रेन हादसे की शिकार बच्ची । परिजनों की तलाश ।
कानपुर ट्रेन हादसे की शिकार बच्ची । परिजनों की तलाश ।

सौम्या सिंह

रेल दुर्घटना, ये शब्द कान में जाते ही सबसे पहले क्या याद आता है आपको ? अच्छा छोड़िए…, 
तारीख़ – 6 जून 1981, खगड़िया रेल दुर्घटना जिसे आज तक की हुई सबसे बड़ी रेल दुर्घटना में से एक माना जाता है जिसमें करीब़ 800 लोगों को मौत हुई थी । खैर, उस समय तो मेरा जन्म भी नहीं हुआ था, पर आज भी जब उस कहानी को सुनती हूं तो रूह कांप जाती है । कैसा लगा होगा जब नज़र के सामने सात बोगियां नदी में समा गयी थी ? सुनकर ही जैसे मन सिहर उठता है। समय समय पर ऐसी घटनाएं लगातार होती रही हैं। फिर वह 20 अगस्त 1995 का यूपी में रेल हादसा हो, 26 नवंबर 1998 का पंजाब में ट्रेनों की टक्कर, 2 अगस्त 1999 में असम ट्रेन दुर्घटना, 9 सितंबर 2002 में बिहार में हुई पुल दुर्घटना या 28 मई 2010 में हुई पश्चिम बंगाल ट्रेन दुर्घटना। इन सभी दुर्घटनाओं में करीब 1200 लोगों को मौत के घाट उतार दिया और ना जाने कितने लोगों को हमेशा के लिए विकलांग बना दिया।

फिलहाल 20 अक्टूबर 2016 की सुबह, करीब़ 3:30 बजे इंदौर से पटना आ रही ट्रेन के डब्बे पटरी से उतरने की वजह से कुल 145 लोगों की मौत और करीब़ 200 लोग गंभीर रूप से जख्मी हो गए। रेलवे विभाग में होने वाले हादसों पर अगर आप गौर करें और अध्ययन करें तो आपको पता चलेगा कि लगभग 80 फीसदी दुर्घटनाएं मानवीय चूक के कारण होती हैं। और इसका आधे से ज्यादा बड़ा हिस्सा मानवरहित क्रॉसिंग पर ही घटित होता है। सरकारी आंकड़ों पर नजर डालें तो 2011-2015 में जो 619 रेल दुर्घटनाएं हुर्इं उनमें से 87.78 फीसद मानवीय भूल के कारण हुर्इं। उनमें से भी 98 रेलवे विभाग के कर्मचारियों और 131 दूसरे लोगों की गलती से हुर्इं। लेकिन इसमें राहत की यही बात रही कि वैश्विक स्तर पर मान्य रेलवे सुरक्षा मानकों की कसौटी पर 2016 में हुए सर्वे में दुर्घटनाओं में कमी हुई और तालिका में यह कमी 0.13 से कम होकर 0.11 हो गई। लेकिन असल में यह राहत बड़ी मामूली है और इससे कोई प्रशस्ति हासिल करने की उम्मीद करना भी बड़ी भूल है।

दुर्घटनाओं के इस सिलसिले की शुरुआत 25 जनवरी 1869 को हुई, जब पूना-बंबई मार्ग के भोरघाट में दो ट्रेनों की टक्कर हुई थी। हादसे होते रहे, तारीखें बदलती रहीं और ये हादसे भी स्मृतियों में गुम होते गए। फिर साल 1981 की खगड़िया पुल दुर्घटना ने हमें झकझोर कर रख दिया। इस हादसे में तकरीबऩ 800 लोगों की मृत्यु हुई थी। तब के रेल मंत्री ने इस्तीफ़ा दिया था तो अब सुरेश प्रभु के इस्तीफ़े की मांग बी उठने लगी। 

कानपुर ट्रेन हादसे की तस्वीर । मलबे में अपनों को खोजते लोग ।
कानपुर ट्रेन हादसे की तस्वीर । मलबे में अपनों को खोजते लोग ।

गौड़ा के बाद सुरेश प्रभु ने जब रेलमंत्री का जिम्मा संभाला तो तो लगा ये रेलवे में कुछ अलग अवश्य कर पाएंगे। रेल मंत्रालय का पदभार संभालने के तुरंत बाद प्रभु ने रेलवे के कुछ बेहद ईमानदार अधिकारियों को बुलाकर उनके साथ गंभीर विचार-विमर्श किया था कि रेलवे को कैसे आर्थिक तंगी से उबारकर पुनः द्रुत गति से विकास की पटरी पर लाया जाए। ऐसा लग रहा था जैसे वर्षों से हो रही दुर्घटनाओं से अब हमें राहत मिलेगी । परंतु हकीकत़ धीरे धीरे सामने आई और जब पूरी तरह चिठ्ठा खुला तो मन में सिर्फ गुस्सा था .. सरकार के प्रति .. प्रभु के प्रति, पर हम कर भी क्या सकते हैं। सवाल पूछ सकते हैं बस.. 

कहा जाता है कि रेलमंत्री सुरेश प्रभु भी चाटुकारों की एक फौज से घिर गए। कुछ चुनिंदा अफसरों ने ट्रांसफर पोस्टिंग में अपने करीबी लोगों को फायदा पहुंचाया और यहीं से सुरेश प्रभु के सपनों की ट्रेन डिरेल होना शुरू हो गई। वेलफेयर को पद-दलित करके हर तरफ सिर्फ भ्रष्टाचार का नंगा-नाच ही हुआ है। चूंकि रेलमंत्री प्रभु एक ईमानदार व्यक्ति हैं, और यह भी

रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने जाना घायलों का हाल। मौके का मुआयना किया ।
रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने जाना घायलों का हाल।

सर्वज्ञात है कि ईमानदार व्यक्ति की सबसे बड़ी कमजोरी ‘चापलूसी’ होती है।  प्रभु भी रेलवे के घाघ नौकरशाहों की चापलूसी का शिकार होते चले गए हैं…।

एक समय यह अफवाह भी उड़ी थी कि कुछ जोनल जीएम और रेलवे बोर्ड से कुछ पुराने लोगों को हटाया जाने वाला है, बायोमेट्रिक अटेंडेंस सिस्टम लगा दिया गया था। इससे रेलवे बोर्ड और जोनों में काफी दहशत फैली थी, लेकिन मार्च-अप्रैल आते-आते यह भी स्पष्ट हो गया कि प्रभु किसी मामूली क्लर्क को भी इधर से उधर नहीं कर पाए। प्रभु फेसबुक, ट्विटर और मोबाइल ऐप आदि की पब्लिसिटी का शिकार होकर रह गए।

train2खैर, यह तो प्रभु की बात थी..अब दुर्घटना पर आती हूं । कानपुर देहात में इंदौर-पटना एक्सप्रेस ट्रेन की भयानक दुर्घटना ने पूरे देश को शोकाकुल कर दिया। नजर के सामने ना होने पर भी दुख का अंदाज लगा पाना लगभग मुमकिन था। यह देश के सबसे बड़े रेल हादसों में एक है। जब भारतीय रेल गति और प्रगति के नारे के साथ बुलेट ट्रेन की तैयारी कर रही हो और रेल बजट को आम बजट में समाहित कर लंबी छलांग की परिकल्पना की जा रही हो, ऐसे दौर में हुआ यह हादसा साबित करता है कि देश में आवागमन की यह प्रमुख लाइफ-लाइन किस तरह कमजोरियों की शिकार है। आपको याद होगा हाल में रेल मंत्रालय ने दावा किया था कि वह शून्य दुर्घटना मिशन की ओर अग्रसर है। रेल मंत्री सुरेश प्रभु भी कई बार यह दावा कर चुके हैं कि भारतीय रेल का संरक्षा रिकार्ड बेहतर बनकर यूरोपीय देशों के बराबर हो गया है। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है।

इस रेल हादसे की खबर रेलों की बेहतरी के लिए तीन दिन के सूरजकुंड मंथन शिविर के आखिरी दिन सामने आई। पिछले दो दिनों में इंदौर-पटना एक्सप्रेस समेत तीन गाड़ियां पटरी से उतर चुकी हैं, जिनमें से एक मालगाड़ी थी। यह सही है कि 1960-61 से लेकर अब तक रेल दुर्घटनाओं में 80 फीसदी से अधिक की गिरावट आई है, पर रेलगाडियों का पटरी से उतरना गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। रेल पटरियों के ढीले पड़ जाने से समय-पालन प्रभावित होता है और दुर्घटनाओं की आशंका भी बढ जाती है। वैसे तो पटरियों की सघन जांच और दूसरे कई उपायों के साथ मशीनीकृत रखरखाव का दावा किया जाता है, लेकिन अगर भारतीय रेल के एक व्यस्ततम गलियारे, जिस पर भारी भरकम रकम खर्च होती है, वहां भी ट्रेन पटरी से उतर रही है तो यह बेहद चिंतनीय है। इसी खंड पर राजधानी एक्सप्रेस समेत कई रेल दुर्घटनाएं घट चुकी हैं।

train4जब आधारभूत ढांचे के विस्तार के लिए रेलवे 2016-17 में 1.21 लाख करोड़ व 2017-18 में दो लाख करोड़ रुपए से अधिक का पूंजी निवेश करने जा रही हो तो संरक्षा की तरफ खास ध्यान न देना चिंता का विषय है। पांच सालों में 8.56 लाख करोड़ की राशि रेलवे के क्षमता विकास में लगाना सराहनीय बात होगी, बशर्ते सुरक्षा और संरक्षा की गति भी तेज दिखे। भारतीय रेल आज विश्व का सबसे बड़ा परिवहन तंत्र है। हाल के साल में टक्कररोधी उपकरणों की स्थापना, ट्रेन प्रोटेक्शन वॉर्निंग सिस्टम, ट्रेन मैनेजमेंट सिस्टम, सिग्नलिंग प्रणाली का आधुनिकीकरण, संचार प्रणाली में सुधार जैसे कई काम किए गए हैं , लेकिन यह सब छोटे-छोटे खंडों तक सीमित हैं। रेल मंत्रालय ने बीते साल शून्य दुर्घटना मिशन के तहत एक लाख करोड़ रुपए की संरक्षा निधि के लिए वित्त मंत्रालय से मांग की है। इसमें से कुछ तात्कालिक कामों के तहत 40,000 करोड़ रुपए का व्यय मानव-रहित क्रासिंग पर, पांच हजार करोड़ रुपए पुराने पुलों की मरम्मत व 40,000 करोड़ रुपए रेल पथ नवीकरण के लिए परिकल्पित किया गया है।

एक और चिंताजनक पक्ष रेल संचालन का दबाव बढ़ने के बाद भी रेल कर्मियों की संख्या घटना है। 1991 में 18.7 लाख रेल कर्मचारी थे, जो अब घटकर 13 लाख रह गए हैं। इस बीच रेलगाड़ियां करीब दोगुनी हो गई हैं। संरक्षा श्रेणी के करीब डेढ़ लाख पद खाली पड़े हैं। इसके चलते काफी संख्या में लोको पायलटों को 10 से 14 घंटे तक ड्यूटी करनी पड़ रही है। रेल पटरियों की देखरेख करने वाले गैंगमेनों की भी काफी कमी है। रेलवे के सात उच्च घनत्व वाले मार्गों दिल्ली-हावड़ा, दिल्ली-मुंबई, मुंबई-हावड़ा, हावड़ा-चेन्न्ई, मुंबई-चेन्न्ई, दिल्ली-गुवाहाटी और दिल्ली-चेन्नई के 212 रेल खंडों में से 141 खंडों पर भारी दबाव है। इन खंडों पर क्षमता से काफी अधिक रेलगाड़ियां दौड़ रही हैं। इन खंडों पर ही सबसे अधिक यात्री और माल परिवहन होता है। रेल मंत्री सुरेश प्रभु तमाम कोशिशों के बाद भी वह कायाकल्प नहीं कर सके, जिसका सपना उन्होंने दिखाया था।

हादसे के बाद अपनों के लिए रोता मासूम ।
हादसे के बाद अपनों के लिए रोता मासूम।

अब 2019 तक रेलवे के समक्ष सालाना माल वहन क्षमता डेढ़ अरब टन करने की चुनौती है। साथ ही करीब एक लाख करोड़ लागत वाले प्रधानमंत्री के ड्रीम प्रोजेक्ट बुलेट ट्रेन को भी साकार करना है। आज रेल पटरियों के बेहतर रखरखाव के साथ तीन हजार रेल पुलों को भी तत्काल बदलने की जरूरत है। देश के 1.21 लाख रेल पुलों में 75 फीसदी ऐसे हैं, जो छह दशक से ज्यादा की उम्र पार कर चुके हैं। हंसराज खन्‍ना जांच समिति ने एक सदी पुराने सारे असुरक्षित पुलों की पड़ताल एक टास्क फोर्स बनाकर करने और पांच साल में उनको दोबारा बनाने की सिफारिश की थी। लेकिन इस पर तंगी के नाम पर काम आगे नहीं बढ़ा। लालू प्रसाद यादव के रेलमंत्री रहते आरंभ हुए दोनों डेडिकेडेट फ्रेट कॉरिडोर 2019 में पूरे होंगे तो दिल्ली-हावड़ा और दिल्ली-मुंबई के बोझ से दबे रूट को सबसे अधिक राहत होगी। इन दोनों खंडों पर रेलवे ने सभी गाड़ियों की गति बढ़ाकर 160 किमी तक करने की योजना बनाई है। सभी माल और यात्री गाड़ियों की औसत रफ्तार बढ़ाने का दावा भी किया जा रहा है। ये सारी तैयारियां अच्छी बात हैं, लेकिन सुरक्षा और संरक्षा का सवाल अपनी जगह कायम है। 

कुरेदने से दर्द होता है । दर्द होता है उस ढ़ाई वर्ष की बच्ची के लिए जिसे शायद पता भी ना हो कि एक झटके में उसका परिवार खत्म हो गया। दर्द होता है उस बेटी के लिए जिसका बूढ़ा बाप अपनी बेटी के सपने संजोये था और एक मिनट में सारे सपने उसके साथ चल बसे..बीस दिन बाद ना वो बाप होगा ना बेटी..ना शहनाई होगी ना सेहरा। सही कहते हैं, हादसे से जिंदगी थोड़ी रूकती है..कानपुर में 100 से ज्यादा लाश, आगरा में चुनावी रैली… काम चलते रहना चाहिए। हादसा हादसों की लिस्ट में दर्ज कर भूल जाना चाहिए। कुरेदने से दर्द होता है..बहुत दर्द होता है ।


सौम्या सिंह, पत्रकारिता  की छात्रा हैं । दिल्ली निवासी, फिलहाल लंदन में हैं। समसामयिक घटनाओं पर नज़र रहती है।