पहाड़ों की दास्तां बयां करते ‘जंगली फूल’ को अयोध्या प्रसाद खत्री सम्मान

पहाड़ों की दास्तां बयां करते ‘जंगली फूल’ को अयोध्या प्रसाद खत्री सम्मान

ब्रह्मानंद ठाकुर

इस बार अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति सम्मान अरुणाचल प्रदेश की नवोदित कथा लेखिका जोराम यालाम को  उनके उपन्यास ‘जंगली फूल’ के लिए  दिया जाएगा। इस सम्मान के लिए इनके नाम की  घोषणा  अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति समिति  की चयन समिति द्वारा की गई ।  प्रोफेसर वीर भारत तलवार, प्रोफेसर रवीन्द्र कुमार वर्मा रवि और डाक्टर वीरेन नन्दा  इस चयन समिति के सदस्य हैं। जोराम यालाम को यह सम्मान आगामी नवम्बर महीने में मुजफ्फरपुर में आयोजित एक समारोह में प्रदान किया जाएगा। 

अरुणाचल प्रदेश की लोवर सुबानसिरी जिले के  जोराम गांव में जन्मी जोराम यालाम की प्राथमिक शिक्षा जोराम गांव में हुई। तत्पश्चात राजस्थान के वनस्थली से शिक्षा प्राप्त कर अरुणाचल प्रदेश के राजीव गांधु विश्व विद्यालय  से हिन्दी में एम.ए तथा डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने के बाद उसी विश्व विद्यालय में  वे हिन्दी के सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। अरुणाचल की 26 प्रमुख जनजातीय समुदायों में से एक न्यीशी जनजाति की इस लेखिका  की मातृभाषा न्यीशी है और वहां की राजभाषा अंग्रेजी, किंतु बचपन से हिन्दी के प्रति अनुराग होने के कारण इन्होंने हिन्दी में महारथ हासिल की है और अध्यापन करते हुए हिन्दी में कहानियां लिखने लगीं। उनकी अबतक दो कहानी संग्रह  ‘साक्षी है पीपल ‘ और ‘ जानी मोमेन’ ( लोक कथाएं ) प्रकाशित हैं। इसी वर्ष उनका उपन्यास  ‘ जंगली फूल ‘ प्रकाशित हुआ है।

मुग्ध करने वाली विलक्षण भाषा शैली में लिखा गया उनका  यह उपन्यास यथार्थ की पुनर्व्याख्या करती एक ऐतिहासिक कृति है। इस उपन्यास में लेखिका ने वहां की लोक कथाओं में अजर-अमर अपने पूर्वज आबोतानी की घृणित छवि को तोड, , उनकी अमरता के कारणों का सूक्ष्म विश्लेषण कर उन्हें प्रतिष्ठित करने का साहसी प्रयास किया है। यह उनकी प्रगतिशील सोच और विराट चिंतन दृष्टि का प्रतिफल है।

उपन्यासकार जोराम याराम

जोराम यालान की कहानियां और उपन्यास कबीलाई वर्चस्व के लिए  आपसी युद्ध और चहकते जीवन का अचानक  शांत हो जाना, घोर अंधविश्वास , मानव-बलि, दास-डायन प्रथा एवं औरतों के प्रति अत्याचार का ऐसा वृहद दर्शन कराती है , जिनसे  हम सभी अभी तट अपरिचित हैं। इन्होंने अपने लेखन से अरुणाचल की न्यीशी जनजाति की परम्परा, वहां की संस्कृति, कष्टप्रद और जोखिम भरी जीवन यात्रा, स्त्रियों की अमानवीय दुर्दशा-मनोदशा,उनकी त्रासदी , निश्च्छल प्रेम  और अनुराग का बिना किसी दुराव-छिपाव या लाग-लपेट के ऐसा यथार्थपरक चित्रण किया है, जो हिन्दी पट्टी के  लिए एकदम नया, दुर्लभ और ऐतिहासिक है। अरुणाचल की वादियों का मनोरम दृश्य उपस्थित करने वाली इस लेखिका के लिए जंगली होने का अर्थ प्रकृति से जुडना है। उनके साथ चलना, फूलों के संग मुस्कुराना, नदियों का गान और उसके हृदय की पुकार सुनना,पथरीले शिखरों पर चलना-उगना,खिलना,मुर्झाना और भय का सामना करने का साहस ही सही अर्थों में उनके लिए जंगलीपन है।

अबतक यह सम्मान कृष्ण बलदेव वैद, पत्रिका ‘ तद्भव ‘ ( सम्पादक  अखिलेश), शेखर जोशी,  डॉक्टर तुलसी राम, डॉक्टर रोज केरकेट्टा, अनिल यादव, सुधीर विद्यार्थी, डॉक्टर विनय कुमार, पत्रिका ‘समयांतर ‘( सम्पादक पंकज विष्ट),  वाल्टर भेंगरा ‘ तरुण’ और निदा नवाज को दिया जा चुका है।

ब्रह्मानंद ठाकुर।बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।