बाल मन को पानी की तरह तरल रहने दें

बाल मन को पानी की तरह तरल रहने दें

दयाशंकर मिश्र

दूसरों से भागना-बचना फिर भी सरल है, लेकिन जब हम अपनी दृष्टि से भागना शुरू कर देते हैं, तो भीतर का रस कमजोर पड़ने लगता है. डरना किसी भी चीज से खतरनाक है. डर प्रेम और आत्मीयता को सोखकर तरलता को कठोरता में बदल देता है.#जीवनसंवाद अपनी-अपनी ज़िद!

जीवन संवाद 962

अपनी बात पर अड़े रहने को हम सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं. जो अपनी बात पर कायम रहता है, वह दूसरों के समक्ष इस बात का भरपूर महिमामंडन करता है. इस तरह हम जाने-अनजाने ज़िद की बुनियाद अगली पीढ़ी की ओर बढ़ाते जाते हैं. मंगलवार को हमने बर्फ के जमने को पानी के अहंकार से जोड़कर देखा था. जमने का अर्थ ही है, भीतर कुछ ऐसा घटते जाना, जिससे प्रेम कम होता जाए. तरलता कम हुई नहीं, और संकट शुरू. दूसरों से भागना-बचना फिर भी सरल है, लेकिन जब हम अपनी दृष्टि से भागना शुरू कर देते हैं, तो भीतर का रस कमजोर पड़ने लगता है. डरना किसी भी चीज से खतरनाक है. डर प्रेम और आत्मीयता को सोखकर तरलता को कठोरता में बदल देता है. इसलिए बचपन से बच्चों के भीतर साहस लेने की क्षमता और हर स्थिति से मुकाबला करने की दृष्टि विकसित होनी जरूरी है. यहां यह भी जरूरी है कि उनकी ज़िद को ठीक तरीके से संभाला जाए.

कई बार बच्चों को हम समझाने के लिए उल्टे तरीके पकड़ लेते हैं, जो बच्चों के साथ ही माता-पिता के लिए भी भारी संकट उत्पन्न कर देते हैं. हमारे गांव में एक बड़े ही जिद्दी काका हुए. उनसे कोई भी बात मनवाना बड़ा मुश्किल था. बच्चों ने उनको ज़िद करते देखा था. वह उनके दिखाए रास्ते पर आगे बढ़ गए. वह अपने बेटे को समझा रहे हैं, बेटा दवा पी ले. बेटा पीने से इंकार कर रहा है. कह-कहकर आंसू जम गए. बेटा राजी न हुआ. काका ने कहा, ‘बेटा मुझे पता है कि दवा कड़वी है. जब मैं तेरे जैसा छोटा बच्चा था, तो मुझे भी दवा पीनी पड़ती थी, लेकिन मैं तेरे जैसा नहीं था. मैं एक बार संकल्प कर लेता था और कड़वी से कड़वी दवा पी जाता था’. बेटे ने धीरे से कहा, ‘मैं भी संकल्प का पक्का हूं. तुमने दवा पीने का संकल्प लिया था, मैं दवा नहीं पीने का ले चुका हूं’.

बच्चों में इसी तरह से अहंकार की कला घर करती है. मन नहीं समझता, किस गली जाना है. मन तो फैसला कर लेता है, जाना है कि नहीं जाना है. ज़िद और अहंकार केवल स्वभाव का हिस्सा हैं. मन की कठोरता की कहानी हैं. कभी वह पक्ष में हैं, कभी विपक्ष में, लेकिन कठोरता कभी भी जीवन के इतने पक्ष में नहीं होती कि वह निर्माण का कारण बन जाए. इसी तरह का एक और प्रसंग आपसे साझा करता हूं .हम माता-पिता यह मान लेते हैं कि बच्चे अक्सर ही उल्टा करेंगे. उनसे जो कहो, उसका उल्टा ही करते हैं. हम कहते हैं, घर में खेलो. बच्चे बाहर चले जाते हैं. हम कहते हैं, बाहर चले जाओ, तो वह घर में खेलते हैं. एक बार हुआ यूं कि एक व्यापारी का बेटा भी कुछ इसी तरह का था. तो वह उससे हर बात उल्टी कहने लगा. इससे भीतर भीतर वह खुश रहता कि बच्चा उसके मन का काम कर रहा है. एक दिन दोनों यात्रा पर हैं, नदी पार करनी है. साथ में गधा है, गधे पर नमक की बोरियां लदी हैं. नदी के पुल से गुजरते समय पिता ने देखा बोरियां बाईं तरफ ज्यादा झुकी हैं. अगर संभाली न जाएं, तो गिर जाएंगी. उसने घर का नियम बाहर भी लागू कर दिया. उसने बेटे से कहा, बोरियां दाईं तरफ ज्यादा झुकी हैं, थोड़ा बाई तरफ झुका दे. जो उसे करवाना था उसने उल्टा कहा. लेकिन यह क्या, बेटे ने वैसा ही कर दिया, जैसा पिता ने कहा. पिता ने घबराकर कहा, ‘यह तो तुम्हारे बिल्कुल विपरीत है’. बेटे ने कहा, ‘मैं बड़ा हो गया हूं. सारी चालबाजियां समझता हूं. अब मैं वही करूंगा, जो ठीक समझूंगा’.हम सबके जीवन में भी धीरे-धीरे यही घटित हो रहा है.ई-मेल [email protected]

दयाशंकर। वरिष्ठ पत्रकार। एनडीटीवी ऑनलाइन और जी ऑनलाइन में वरिष्ठ पदों पर संपादकीय भूमिका का निर्वहन। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। अवसाद के विरुद्ध डियर जिंदगी के नाम से एक अभियान छेड़ रखा है।