मनुष्य सज़ा से नहीं प्रेम से बदलते हैं…. और हमारी दुनिया भी!

मनुष्य सज़ा से नहीं प्रेम से बदलते हैं…. और हमारी दुनिया भी!

हमारे प्रेम से रिश्ते इतने जर्जर हो गए हैं कि थोड़ा-सा धक्का लगते ही टूट जाते हैं. बदलने के लिए प्रेम चाहिए, हिंसा नहीं. हिंसा से कुछ नहीं बदलता, केवल असली चेहरे की जगह नकली चेहरा ले लेता है. #जीवनसंवाद बदलना!

तस्वीर सौजन्य- अजय कुमार कोसी बिहार

जीवन संवाद-955

शारीरिक रूप से दंड दुनिया में बहुत पुरानी बात नहीं है. हमारे स्कूलों में कुछ साल पहले तक इसे सामाजिक रूप से पर्याप्त मान्यता हासिल थी. अब जाकर धीरे-धीरे स्कूलों में होने वाली संस्थागत हिंसा से बच्चों को छुटकारा मिलना संभव हो रहा है. अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो इस हिंसा की पैरवी करते हुए दिखाई देते हैं. पिछले दिनों उदार लोकतांत्रिक मूल्य वाले दांतों के डॉक्टर के पास जाना हुआ. बच्चों की उपस्थिति में ही वह अपने दिनों की स्कूली हिंसा का गुणगान करने लगे. अगर उनके दिनों की हिंसा बच्चों को सुधारने में कामयाब होती, तो इस समय समाज पर इतने गहरे संकट न होते.

जनसमस्याओं से हम जूझ रहे हैं, उनमें से एक भी नहीं होनी चाहिए थी, क्योंकि यह तो ऐसे ही लोगों का समय है, जो उस संस्थागत शिक्षा से निकले हैं. असल में हमारा सबकुछ हमें इतना प्रिय है कि कुछ भी हम छोड़ना नहीं चाहते. इसमें वह भी शामिल है जो हमें प्रिय भले न लगा हो, लेकिन क्योंकि हम उससे होकर गुजरे हैं, इसलिए हम उसका महिमामंडन करते हैं.इंग्लैंड में कोड़े की सजाएं मिलती थीं. चोरी के लिए. इसे 1950 के दशक में बंद किया गया. इसमें चौराहे पर खड़ा करके कोड़े मारे जाते थे, अपराधी को. अपराधी के वस्त्र उतार लिए जाते थे. सजा नग्न पीठ पर मिलती थी. कहते हैं, एक बार जब सजा दी जा रही थी, तो उसी भीड़ में दो आदमी ऐसे थे जो लोगों की जेब काट रहे थे. सबका ध्यान कोड़े की सजा खाने वाले पर था. किसी को ख्याल ही नहीं था कि कोई ऐसे मौके पर जेब काट लेगा, इसलिए अनेक जेबें गईं. इसके बाद वहां की संसद में इस पर विचार हुआ. न्यायविदों ने माना कि यह हैरानी की बात है.कोड़े, इसलिए लगाए जा रहे हैं कि जेब न काटी जाए, लोग चोरी न करें. अच्छा हुआ, ब्रिटेन की संसद को इस बात का समय रहते अंदाजा हो गया कि कोड़े के डर से चोरी नहीं रुकेगी.

दुनिया के कुछ देश अब तक इस बात को नहीं समझ पाए. आदमी को हिंसा और सजा देकर बदलना इतना आसान होता, तो अपराध बहुत पहले खत्म हो जाते. हम रोज ही नए कानून बनाते जा रहे हैं. हर दिन एक से बढ़कर एक कानून, लेकिन प्रेम की कोई पाठशाला नहीं बनाते. प्रेम नहीं सिखाते. हमारा पूरा समाज केवल ‘क्राइम और पनिशमेंट’ की बुनियाद पर आगे बढ़ा जा रहा है. इतनी हिंसा, अपराध और घृणा हमारे भीतर कहां से आ रहे हैं, इस ओर जाए बिना हम किसी को नहीं बदल सकते. कानून से मनुष्य को डराया जा सकता है, लेकिन बदलना संभव नहीं.डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को डराने के नए जतन कर सकता है, इसलिए हिंसा बढ़ती ही जाएगी. हमारे घर, समाज और परिवार सब जगह. कानून की जगह हमें प्रेम और अहिंसा के विस्तार के बारे में ध्यान देना होगा. यह लंबा रास्ता है, लेकिन इसके अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं. पर्यावरण को हरा-भरा रखने के लिए हमें पौधे लगाने ही होंगे. केवल पेड़ों को कटने से बचाने के कानून से कुछ नहीं होगा. हमारे प्रेम से रिश्ते इतने जर्जर हो गए हैं कि थोड़ा-सा धक्का लगते ही टूट जाते हैं. बदलने के लिए प्रेम चाहिए, हिंसा नहीं. हिंसा से कुछ नहीं बदलता, केवल असली चेहरे की जगह नकली चेहरा ले लेता है. ई-मेल [email protected]