ढिंढोरा पीटने की आदत बदल डालें

ढिंढोरा पीटने की आदत बदल डालें

दयाशंकर मिश्र

हम पूरी ऊर्जा लगा देते हैं यह बताने में कि किसके लिए अब तक क्या-क्या किया! कर्तव्य का निर्वाह जब ढिंढोरा पीटने के रूप में बदल जाए, तो हम यह कह सकते हैं कि असल में वह हमारा सहज स्वभाव नहीं था. चीजों का होना अलग बात है, हमारे चित्त में उसका होना अलग. एक छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं. संभव है, इससे बात अधिक स्पष्ट हो पाए. एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन नदी पार कर रहे थे. नदी तो वही थी, जो रोज पार की जाती थी, लेकिन उस दिन कुछ ऐसा हुआ कि पांव फिसला, वह गहरे डूबने लगे. उनके साथ एक गांव का नौजवान था. उसने तुरंत फुर्ती दिखाते हुए नसरुद्दीन को किनारे की ओर खींच लिया. उसका बहुत शुक्रिया अदा किया गया. लेकिन कुछ दिन बाद स्थिति बड़ी विचित्र हो गई. जब भी वह कभी नसरुद्दीन को मिलता, तुरंत ही बताने लगता कि देखो उस दिन मैं न होता, तो क्या होता. तो होने यह लगा कि नसरुद्दीन उसके सामने पड़े नहीं कि उसने जिक्र शुरू कर दिया. धीरे-धीरे उसे बर्दाश्त करना नसरुद्दीन के लिए मुश्किल मालूम होने लगा.
एक दिन नसरुद्दीन ने उपाय खोजा. उस नौजवान को पकड़कर नदी किनारे ले गए. ठीक उसी जगह जाकर मुल्ला खड़े हो गए. कहा, ‘अब मुझे बचाने मत आना. अगर यहां से बच गया, तो ठीक और न बच पाया, तो भी ठीक, लेकिन तुम्हारे रोज-रोज के एहसान मुझ पर भारी पड़ रहे हैं. तुमने अपना फर्ज अदा किया, लेकिन अपनी फर्ज अदायगी का कब तक मुझसे हिसाब लेते रहोगे. मैं तंग आ गया हूं इससे, अब मैं खुद बच गया, तो ठीक, नहीं तो हिसाब बराबर.’

जीवन संवाद -951
अगर कभी कोई मौका ऐसा आ गया, कर्तव्य निभा लिया गया. किसी के लिए डूबते को तिनके का सहारा दे दिया गया, तो इसके मायने यह नहीं हुए कि उसका जीवन आप पर उधार हो गया. मन में यह ख्याल बैठने का अर्थ है कि वह कम से कम कर्तव्य तो नहीं था. हमारे समाज की संरचना कुछ इतनी जटिल होती जा रही है कि हर कोई कर्तव्य के ढोल पीटने में लगा है. हम देखते हैं कि एक उम्र के बाद पिता-पुत्र में नहीं बनती. मां-बेटी का भी कुछ ऐसा ही मामला है. पुत्र हमेशा यही कहते हैं कि देखो तुम्हारे लिए क्या किया और तुम बदले में क्या करते हो. असल में वह वही दोहराते हैं जो उनके पिता ने दोहराया था. पुत्र भी अपने पिता का वचन ही दोहराते हैं! असल में यह कुछ और नहीं, केवल ढिंढोरा पीटना है, अपने किए का. हम घर-बाहर, हर जगह केवल इस कोशिश में लगे रहते हैं कि किसी को हम बता पाएंगे हमने उसके लिए क्या किया! क्या दुनिया जो कि पहले ही व्यस्तता से परेशान है. उसको अपने किए के हिसाब से फुर्सत नहीं, वहां अगर एक नया आदमी और नए काम में जुट जाए, तो आसपास शोर और बढ़ता ही जाता है.

ताकुआन, नाम के फकीर हुए हैं. उनके पास लोग पहुंचकर पूछते, तुम्हारी साधना क्या है? तो ताकुआन कहते, ‘मेरी कोई साधनाा नहीं. जब नींद आए तब सो जाना और जब भूख लगे तब भोजन कर लेना. तो जब मुझे नींद आती है, मैं सो जाता हूं और जब नींद टूटती है, तब उठ जाता हूं. जब भूख लगती है, तब भोजन ले लेता हूं, जब नहीं लगती, तब नहीं लेता हूं. जब बोलने जैसा होता, तो बोल देता हूं और जब मौन रहने जैसा होता है, तब मौन रह जाता हूं’.ताकुआन से आग्रहपूर्वक उनका एक शिष्य कहता है, यह कैसी साधना! इसे तो हम सब जानते हैं. ताकुआन कहते हैं, ‘तुम अगर इसके साथ हो, तो यही सबसे बड़ी बात है. जबसे मैंने इसे स्वीकार किया है, मैं प्रसन्नता के बीच हूं. जबसे इस तरह मैंने स्वीकार किया नींद को, भूख को, उठने को, सोने को, जागने को, तब से मैं सच्चे आनंद में हूं तब से दुख मेरे ऊपर नहीं आया, क्योंकि मैंने सभी को स्वीकार कर लिया है. अगर दुख आया भी है, तो अब मैं उसे दुख के रूप में नहीं पाता हूं, क्योंकि स्वीकार कर लिया है. सोचता हूं कि घट रहा है ऐसा. जो हो रहा है उसे स्वीकार करते जाता हूं. दुख तभी दुख मालूम होता है जब हम स्वीकार करते हैं’.
हम उसे ही बड़ा मानते हैं, जिसका ढिंढोरा पीटा गया है. इसलिए जो सहज है, जीवन उससे दूर खिसकता जाता है. सहजता की दूरी, हमसे ही हमारी दूरी है.अपने स्वभाव के निकट आकर ही इस दूरी को पाटा जा सकता है.
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