गोवा जो मैंने देखा

गोवा जो मैंने देखा

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देवांशु झा

होटल के अलंकरण से बाहर निकलते ही द्रुमवितान विस्तृत है। दोनों ओर पेड़ों की हरी छतरी है। और सामने एक झोपड़ी, जिसके आगे तख्ती टंगी है, बार । मैंने ऐसे बार अपने जीवन में नहीं देखे हैं । कम से कम से दिल्ली जैसे शहर में तो ऐसे बार नहीं होते। लेकिन गोवा की बात निराली है । दक्षिण से लौटते हुए एक दिन की गोवा यात्रा पर मैंने जो कुछ संभव था, देखने की कोशिश की । लिहाजा चुपचाप वहां दाखिल हो गया । झोपड़ी में एक युवती बैठी थी, पारंपरिक गोवन परिधान में, सामने तीन-चार लकड़ी के बेंच लगे थे । तीन लोग बैठकर वहां पी रहे थे । महिला के सामने टेबल पर शऱाब की कई बोतलें थीं । दो सौ रुपये से लेकर दो हजार रुपये तक की । फ्रिज में कई किस्म की बीयर ठांसी पड़ी थी । मैंने उनसे एक सिगरेट मांगी । सुलगाने और आधी फूंकने के बाद साइकिल उठाई और साथ वाली सड़क पर निकल पड़ा । नारियल और दूसरे तमाम पेड़ों के बीच संपोले की तरह सड़क रेंग रही थी और मैं लंबे-लंबे अंतराल के बीच बने मकानों को ताड़ता हुआ गुजर रहा था । कुछ पुर्तगाली शैली के मकान थे, कुछ झोपड़ियां थीं, एक दो छोटे-छोटे चर्च, एक छोटा मंदिर । सड़क सुंदर थी, उसका शील किसी ने भंग नहीं किया था । पान की कोई पीक नहीं, गुटखे का कोई निशान नहीं । सड़क किनारे कोई कचरा नहीं । कुछ-कुछ दूरी पर तालाब नदी या समंदर का पानी अपना टेढ़ा-मेढ़ा वृत्त बनाए लेटा था ।

Arossim Beachकरीब तीन-चार किलोमीटर चलने के बाद मैं उस धरती में धंसता चला गया । एक अव्यक्त, अनिर्वचनीय सुंदरता थी, हमारे गांवों की सुदरता से मिलती हुई और बहुत हद तक भिन्न भी, जो वनस्पतियों और वातावरण से निर्मित हुई थी । कुछ देर साइकिल रोक कर खड़ा रहा, अपलक देखता रहा। कितना सहज और ग्राह्य था वो ग्राम । फिर अचानक बच्चन की दो पंक्तियां याद आ गईं… स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी ! दिल बैठ गया । मुझे एहसास हो गया कि ये मेरा नहीं है । बस क्षणिक साहचर्य है । ये द्रुम वितान! ये सन्नाटे का छंद ! ये ताल तलैये ! सब छूट जाएंगे । बस महज चौबीस घंटे और । कलेजे में किसी खंजर की तरह उतरती टीस के साथ जब मैंने साइकिल मोड़ी और वापस अपने रिसॉर्ट के मुहाने पर पहुंचा तो निगाह सामने लगे तीर पर टंग गई । लिखा था, एरोसिम बीच । जिसे मैं जाते वक्त देख नहीं सका था ।

goaमैंने साइकिल समंदर को ले जाती सड़क पर आगे बढ़ा दी । पचास पाइडल मारने के बाद ही पेड़ों की समानांतर रेखा के बीच से सामने दिख रहा नीला आकाश धरती पर उतर आया था । बमुश्किल दो मिनट के बाद मैंने खुद को समंदर के किनारे पाया । इतना करीब, इतना सुंदर ! सन्नाटे में समाधिस्थ ! स्वर्णिम रेत से पटा हुआ ! सुनील जल को समेटे सागर लहरा रहा था, अनंत आकाश के साथ जैसे होड़ लेता हुआ । हे सागर संगम अरुण नील….अतलान्त महा गंभीर जलधि ! प्रसाद याद आए । कुछ देर तक अनिमेष देखता रहा उस अनंत नील सलिला को । समुद्र के ऊपर निरभ्र आकाश था, नीचे शांति की बालुकाराशि थी, एक दो मछुआरों की नाव थी और लगातार मचलता पानी था । आह ! कितना निर्मल और वैभवशाली था वो सागर तट । गोवा की जो छवि मेरे दिमाग में मित्रों ने बनाई थी, उससे पूरी तरह अलग थी वस्तुस्थिति। वैसे मैंने वहां भीड़ भरे समुद्र तटों का रुख भी नहीं किया । जहां लोग देहयष्टि को घूरने और मदिरा में उतरने जाते हैं । लेकिन मडगांव स्टेशन से बीस मिनट की दूरी पर बने इस रिसॉर्ट की भौगोलिक स्थिति दैवीय है । पूरा रास्ता आंखों में उतर सा जाता है, जहां विचरते हुए अब तक मैं खुद को भूल जाता हूं ।


devanshu jhaदेवांशु झा। झारखंड के देवघर के निवासी। इन दिनों दिल्ली में प्रवास। पिछल दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। कलम के धनी देवांशु झा ने इलेक्ट्रानिक मीडिया में भाषा का अपना ही मुहावरा गढ़ने और उसे प्रयोग में लाने की सतत कोशिश की है। आप उनसे 9818442690 पर संपर्क कर सकते हैं।