अब न रहा वो फगुआ, अब न रहे वो हुरियारे

अब न रहा वो फगुआ, अब न रहे वो हुरियारे

प्रशांत पांडेय

ज़िंदगी की आपा धापी में प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं। मनुष्य समय के चक्र में फँसकर उसी के इशारे पर चलने को मजबूर हो जाता है। पिछले दो साल से होली पर कुछ ऐसा ही हो जा रहा है।  यही होली होती थी, जब हमारी तैयारियाँ करीब महीने पंद्रह दिन पहले शुरू हो जाती थी । केले के पेड़ से रस निकालना और उसमें कालिख और भेगराज (भृंगराज) मिलाकर काला रंग बनाना। कुछ फूलों को मसलकर उनसे भी रंग बनाने का कार्यक्रम चलता था। तो वहीं बाज़ार से कुछ लाल हरे रंग ख़रीदे जाते थे। होली के लिए दिवाली के बाद से बचाकर रखे पाँच, दस और पच्चीस पैसे के सिक्के उस वक़्त गुल्लक तोड़कर निकाल लिए जाते थे । उन्हीं का इस्तेमाल रंग ख़रीदने में होता था। बाक़ी का काम दूसरों से जानकर अलग अलग क़िस्म के बनाए रंग करते थे।

होली से कुछ दिन पहले खेत से आलू कोड़ा ( निकाला) जाता था और उस दिन भाइयों में सबसे बड़ा आलू छाँटकर अपने लिए रखने की होड़ मच जाती थी। हम सभी हर आलू कोड़नेवाले मज़दूर पर नज़र रखते थे कि किसके पास सबसे बड़ा आलू निकला है और उसे कौन पहले ले लेता है। हाँ वो वक़्त हाईब्रिड का नहीं था देसी आलू होता था जिसमें से कुछ ज़्यादा बड़े होते थे नहीं तो ज़्यादा मध्यम और छोटे आकार के होते थे। फिर क़वायद शुरू होती थी आलू पर अलग अलग शब्द उल्टा लिखने की, जिससे मुहर की तरह कहीं चस्पा हो तो सही पढ़ा जा सके । इन शब्दावलियों में 420, चोर, डाकू, राजा , सिपाही फ़िल्मों के नाम से लेकर जाने क्या अच्छे बुरे बीसियों शब्द होते थे। पहले ही तय कर लिया जाता था कि किस आदमी पर कौन सा शब्द चस्पा करना है। हमारी होली करीब हफ़्तेभर पहले शुरू हो जाती थी।

शब्द के मुताबिक़ लाल, हरे, नीले, पीले, काले आदि रंगों का चयन कर आलू पर भरा जाता था। और हमारी टोली शिकार की तलाश में निकल जाती थी। (यानी किस किस पर इसे चस्पाँ करना है)। शिकार मिलने पर उसके कपड़े पर आलू के मुहर को धप्पा बोल चस्पाँ कर दिया जाता था, कपड़े पर उभरे शब्द का उच्चारण कर हमारी टोली ज़ोर ज़ोर से हँसती चिल्लाती हुई भाग निकलती। पकड़े जाने पर ख़ुद पर हमला होने का ख़तरा रहता था। रोज़ रोज़ के इस कार्यक्रम से घर में डाँट पड़ना लाज़मी था लेकिन अगले दिन फिर वही।

हफ्तेभर की इस धमाचौकड़ी के बाद आती थी होली, जिसे हम तब फगुआ के नाम से ही जानते थे। उस दिन पूरी छुट रहती थी। पापा ख़ुद ही सारे भाई बहनों को बुलाकर रंग, गुलाल और पिचकारी देते थे। ख़ुद ही बड़े बड़े बाल्टियों में रंग घुलवाते और हम सभी को भर-भर कर देते थे। साथ ही ये बताते थे कि अमुक को मत छोड़ना तो अमुक पर हरा रंग डालना तो अमुक पर लाल। फगुआ गाने का सिलसिला ब्रह्म स्थान से शुरू होता था उसके बाद गानेवाली टोली सबसे पहले हमारे दुआर (दरवाज़े) पर पहुँचती थी, जहां पूरी टोली को पापा और बड़े भईया कुछ लोगों की मदद से रंग और गुलाल से सराबोर कर देते थे । हमलोग भी अपनी पिचकारी का जमकर सदूपयोग करते थे। उसके बाद पापा भी टोली के साथ गाँव में निकलते थे , तब हमलोग भी उनके पीछे हो लेते थे, पापा होली गाने वाली टोली से थोड़ी दूर दो तीन लोगों के साथ खड़े होते थे । वहाँ जब पापा पर रंग डाला जाता था और हमें बच्चा मानकर छोड़ दिया जाता था, तब हमलोग पापा से थोड़ा सटकर खड़े हो जाते थे कि हमारे ऊपर भी रंग पड़े।

हमारा गाँव काफ़ी बड़ा है और करीब करीब हर दुआर (दरवाज़े) पर फगुआ गाया जाता था लिहाज़ा काफी रात तक गाने का सिलसिला चलता था। पापा हम भाईयों को सूर्यास्त के साथ घर की ओर दफ़ा कर देते थे। सुबह सूर्योदय के साथ शुरू हुई हमारी होली सूर्यास्त के बाद ही ख़त्म होती थी ।


प्रशांत पांडेय। राज्यसभा टीवी, आजतक, इंडिया टीवी और पी-7 में वरिष्ठ संपादकीय पद  पर लंबी पारी खेली। आईआईएमसी से पत्रकारिता का अध्ययन। गोपालगंज के मूल निवासी। संप्रति-दिल्ली में डेरा।