कृषि विश्वविद्यालय की ‘खेती’ और किसानों की दुर्दशा

कृषि विश्वविद्यालय की ‘खेती’ और किसानों की दुर्दशा

शिरीष खरे

कृषि क्षेत्र में कई शब्द प्रचलित हैं। इनमें से कई के अर्थ और उनके बारे में संक्षिप्त जानकारी हमें होती है। लेकिन, कई शब्द ऐसे भी होते हैं जिनके बारे में हमने केवल सुना है। बीते दिनों अध्ययन के दौरान ऐसा ही एक शब्द बार-बार आया। यह था-  कृषि विस्तार सेवा। जब मैंने इसके बारे में जानने की कोशिश की तो कई महत्त्वपूर्ण जानकारियां हाससिल हुईं। इन्हें आपके साथ साझा करता हूं। कृषि विस्तार सेवा का अर्थ कृषि क्षेत्र में शिक्षा और परिवर्तन की तैयारी से है। विस्तार के बारे में चर्चा करें तो इसमें खेतीबाड़ी में शामिल परिवार के सदस्यों या कृषि उत्पादन में कार्यरत लोगों के लिए स्कूल से बाहर एक अनौपचारिक शिक्षण की बात पर जोर दिया गया है। इसका उद्देश्य है कि अनौपचारिक शिक्षण की गतिविधियों से वे फसल उत्पादन, प्रबंधन, संरक्षण और विपणन में बेहतर तरीकों का उपयोग समझ सकें। इसका मुख्य लक्ष्य समानता के साथ वृद्धि है जिससे छोटे किसानों को बड़े किसानों की तरह ही शैक्षणिक और तकनीकी सेवाएं हासिल हों।

ग्रामशाला पार्ट-7

हमारे देश में कृषि विस्तार सेवाओं की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्यों के कृषि विभागों की है। वर्ष 1960 तक राज्यों के कृषि विभाग विस्तार के साथ-साथ कृषि संबंधी शिक्षा व शोध के लिए भी जिम्मेदार थे। लेकिन, बाद में इन्हें कृषि शोध और शिक्षा संबंधी गतिविधियों को कृषि विश्वविद्यालयों को हस्तांतरित कर दिया गया। कृषि के शिक्षण क्षेत्र में सुधार की संभावनाएं तलाशी जा रही थीं। इसी कड़ी में साठ का  दशक महत्त्वपूर्ण साबित हुआ। इस दौरान अमेरिका की लैंड ग्रांट यूनीसर्सिटी की तर्ज पर भारत के अलग-अलग राज्यों में कृषि विश्वविद्यालय स्थापित हुए। इससे राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा, शोध और विस्तार की मजबूत व्यवस्था तैयार हुई। यहां यह बताना आवश्यक है कि उच्च शिक्षा की शैक्षणिक संस्था होने के बावजूद भारत में कृषि विश्वविद्यालय की भूमिका पांरपरिक विश्वविद्यालय से बहुत अलग है। इस लिहाज से श्रम शक्ति के विकास, नवीनतम शोधों के दस्तावेजीकरण, कृषि समस्याओं के वैज्ञानिक दृष्किोण और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कराने में कृषि विश्वविद्यालयों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह सारा काम कृषि विज्ञान केंद्र, प्रशिक्षक प्रशिक्षण केंद्र, संस्थान ग्राम संयोजन परियोजना और कृषि तकनीक सूचना केंद्रों के माध्यम से हुआ है।

दूसरी तरफ, कार्य की अधिकता बढ़ने के कारण कृषि विभाग के तहत कई निदेशालय बनाए गए, जैसे- बागबानी, कृषि-इंजीनियरिंग, तिलहन व दलहन निदेशालय। सभी राज्यों में कृषि निदेशक का कृषि विभाग का प्रमुख बनाया गया। इसे कृषि उत्पादन से संबंधित सभी सरकारी नीतियों के लिए उत्तरदायी माना गया। इसके अलावा कृषि उत्पादन आयुक्त को कृषि उत्पादन से संबंधित सभी संस्थाओं की गतिविधियों के समन्वय का काम सौंपा गया। अस्सी के दशक के प्रारंभ तक सभी राज्यों ने प्रशिक्षण की व्यवस्था तैयार की।कृषि विस्तार की प्रभावशीलता को बेहतर करने के लिए प्रशिक्षण व निरीक्षण व्यवस्था को अपनाया गया। इसे टी और वी व्यवस्था भी कहते हैं। विश्व बैंक की सहायता से वर्ष 1975 के बाद राजस्थान, मध्य-प्रदेश और पश्चिम बंगाल सहित यह व्यवस्था भारत के सभी राज्यों में फैल गई। यह श्रमिकों के प्रशिक्षण निरीक्षण के व्यवस्थित कार्यक्रम पर आधारित थी। इसमें पिछड़े वर्ग के छोटे और मध्यम किसान प्रतिनिधि बने। इसमें किसान और कृषि विस्तार अधिकारी से सीधे मिलने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

लेकिन इस व्यवस्था को लागू कराने में कई तरह की समस्याओं को पहचाना गया। जैसे कि जरुरतमंद किसानों के बीच संदेशों का अभाव, संबंधित विषयों के विशेषज्ञों की कमी और खेती में काम करने वाली महिलाओं की उपेक्षा इत्यादि। हालांकि, इन समस्याओं से निपटने के लिए कुछ राज्यों ने महत्त्वपूर्ण कदम उठाएं। जैसे कि केरल और राजस्थान ने व्यक्ति आधारित विस्तार दृष्टिकोण की बजाय सामूहिक दृष्टिकोण अपनाया, जिससे किसानों के बीच भागीदारी बढ़ी। इसके अलावा आजकल किसानों के नेतृव्य में विस्तार जैसे तरीके अपनाए जा रहे हैं। यह तरीका ‘किसान से किसान’ के विस्तार पर आधारित है। भारत में विस्तार सेवाओं को बढ़ाने के लिए किसान महिलाओं से संबंधित कार्यक्रमों को बढ़ावा देने की जरुरत पर बल दिया जा रहा है। साथ ही स्व-सहायता समूहों के माध्यम से सामूहिकता की भावना को और अधिक प्रोत्साहित किए जाने की मांग बढ़ी है। इसके अलावा आधुनिक सूचना प्रोद्योगिकी में बढ़ोतरी की संभावनाएं देखी जा रही हैं।


shirish khare

शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।