पूंजीवाद और सामंतवाद की चक्की में पिसता किसान आंदोलन

पूंजीवाद और सामंतवाद की चक्की में पिसता किसान आंदोलन

शिरीष खरे

आजकल देश में किसानों का बड़ा आंदोलन खड़ा करने की कोशिश चल रही है । जिसमें देशभर से किसान एक मंच पर आए हैं ताकि कारपोरेट सरकारों को किसानों के हितों के प्रति उनके दायित्वों की याद दिलायी जा सके, लेकिन देश का अन्नदाता अब भी बंटा हुआ है । क्योंकि हर क्षेत्र के हिसाब से किसानों की अलग समस्याएं है जिस वजह से उनकी अलग-अलग मांगे हैं और यही वजह है कि किसान कभी एकजुट होकर आंदोलन नहीं कर पाते, हालांकि कुछ सियासी दल इसका फायदा उठाकर किसानों के हितैषी बनने की दिखावा जरूर करते हैं, लेकिन उसमें सियासी फायदा तो होता है लेकिन हमारा किसान ठगा सा महसूस करने लगता है । ऐसे में हमें ये समझना होगा कि कोई भी आंदोलन तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक वो स्वत : स्फूर्त ना हो । ऐसे में चलिए समझते हैं आखिर देश में कैसे और क्यों उभरे किसानों के आंदोलन ।

ग्रामशाला पार्ट 6

आंदोलन का नाम आते ही परिवर्तन की सुगबुगाहट शुरू हो जाती है। यह कुछ उद्देश्यों को हासिल करने के लिए समुदायों के साथ संबंधों में टकराहट का कारण भी बन सकता है। कृषि आंदोलन इसके अच्छे उदाहरण हैं। भारत में कृषि आंदोलन की बात की जाए तो इस पर विस्तार से चर्चा कर पाना बेहद मुश्किल होता है। इसके पीछे कई वजह हैं, जैसे कि यह देश बहुत विशाल और विविध है और साथ ही कृषि आंदोलनों का इतिहास बहुत लंबा है। फिर इसकी ठीक से दस्तावेजीकरण भी नहीं हो सका है। कृषि आंदोलन की बात होती है तो इतना तो समझ आता ही है कि यह मूलत: कृषि व्यवस्था से संबंधित हैं। इसलिए मौटे तौर पर यह साफ हो जाता है कि यह शहरी और औद्योगिक स्थानों पर घटित नहीं होते। फिर भी इन्हें शहर की जनसंख्या का समर्थन हासिल हो सकता है और इसके पीछे कई तरह के सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन हो सकते हैं। इन आंदोलनों को हम मुख्यत: सामंतवादी और पूंजीवादी कृषि प्रणालियों को ध्यान में रखकर समझ सकते हैं।

सामंतवादी परिवार सामान्यत: बहुत अधिक जमीन का मालिक होता है और जिस पर उसका नियंत्रण होता है। यह सीधे तौर पर खेती के काम में शामिल रहते हैं। वे अपने काश्तकार को खेती के लिए पट्टे देते हैं और काश्तकार से फसल उत्पाद या नकद के रूप में किराया लेते हैं। वहीं, पूंजीवादी परिवार अपेक्षाकृत अधिक भूसंपत्तियों का मालिक होता है और जिसे वह बड़ी संख्या में खेतीहर मजदूरों की सहायता से नियंत्रित भी करता है लेकिन सीधे तौर पर यह कृषि गतिविधियों से जुड़ा नहीं होता है। सामंतवादी कृषि प्रणाली में किराए, सूदखोरी और बिना वेतन के श्रम के कारण विरोध होता है, जबकि पूंजीवादी कृषि प्रणाली में ग्रामीण-कृषक और शहरी-औद्यौगिक वर्ग के बीच आर्थिक कारण से विरोध होता है।

कृषि आंदोलनों को स्वतंत्रता के पहले और स्वतंत्रता के बाद के काल में बांटा जा सकता है। 1857 तक के विद्रोह जनजातियों और काश्तकारों द्वारा किए गए। इसके बाद बार-बार सूखा, अंग्रेजों की नीतियां और दीवानी नियम आंदोलन के कारण बने। गांधीवादी दृष्टिकोण से चंपारण और खेड़ा आंदोलन चर्चित हैं, जबकि मार्क्सवादी दृष्टिकोण से काश्तकारी एकजुटता-तिभागा और तेलंगाना को याद किया जाता है। स्वतंत्रता के बाद ग्रामदान सर्वोदय और नक्सलवादी आंदोलनों को मुख्य तौर पर रेखांकित किया गया है। इन दिनों किसानों का संघर्ष उन क्षेत्रों में है जहां पूंजीवादी बाजार का प्रभाव अधिक दिखाई देता है।

स्वतंत्रता के बाद भूदान आंदोलन का उदय हुआ था जो महात्मा गांधी की परिकल्पना का ही विस्तार था। इसका उद्देश्य संपत्ति के निजी स्वामित्व को न्यास की संपत्ति में बदलना था। किंतु, समय के साथ इस आंदोलन की सरल समतावादी कार्य-प्रणाली में खराबी आ गई और यह निष्क्रिय हो गया। इसके बाद वर्ष 1967 से पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नाम के गांव से यह आंदोलन शुरू हुआ। इसने काश्तकारों को सलाह दी कि जमींदारों का फसल का हिस्सा तब तक नहीं दो जब तक कि वह काश्तकारों को खेतीबाड़ी के दस्तावेजी साक्ष्य नहीं देता है। यह काश्तकारों का बड़ा आंदोलन साबित हुआ जो सामंतवादी शोषण के विरोध में लंबे समय तक चला और बाद में हिंसक होता चला गया। इनमें काश्तकारों की समितियां बनाई गईं और उन्हें सशस्त्र-बल में बदल दिया गया। उन्होंने जमीनों पर अधिकार किया, भू-अभिलेखों को जलाया और दमन करने वाले जमींदारों को मृत्युदंड तक दिया।

साठ के दशक के बाद तमिलनाडू से नकदी फसल, महाराष्ट्र से गन्ना, कर्नाटक से कपास और पंजाब व हरियाण से गेहूं उपजाने वाले क्षेत्रों से मजबूत किसान संगठन उभरे। उदाहरण के लिए, वर्ष 1980 तक कर्नाटक के कई इलाकों में रैयत संघों ने गैर-दलीय आधार पर अपनेआप को बहुत अधिक मजबूत बना लिया। इसके अलावा महेन्द्र सिंह टिकैत जैसे किसान नेता ने पश्चिम उत्तर-प्रदेश से छोटे-मध्यम किसानों की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त किया। इसी तरह, वर्ष 2000 में उड़ीसा के कश्तकारों ने धान के कम मूल्य के मुद्दे पर आंदोलन करके देशभर में अपना ध्यान खींचा। इसके बाद कृषि संकट और किसान आत्महत्याओं के प्रकरणों में बढ़ोतरी के साथ ही देश के कई इलाकों से संगठित आंदोलन उभर रहे हैं। ये न्यूनतम समर्थन मूल्य और कर्ज माफी से लेकर आर्थिक उदारीकरण से संबंधित नीतियों के विरोध में देशभर में एकजुट होकर एक बड़े आंदोलन की पृष्ठिभूमि तैयार कर रहे हैं।


shirish khare

शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।