बहस-मुबाहिसों में हाशिए पर क्यों गांधी और गांधीवाद?

बहस-मुबाहिसों में हाशिए पर क्यों गांधी और गांधीवाद?

पशुपति शर्मा

गांधी को लेकर अपने एहसास की बात मैं आइंस्टीन के एक कथन से शुरू करता हूं जिसका जिक्र लुई फिशर ने ‘गांधी की कहानी’ पुस्तक में किया है। गांधी के निधन पर आइंस्टीन कहते हैं- ” गांधी ने सिद्ध कर दिया कि केवल प्रचलित राजनैतिक चालबाज़ियों और धोखाधड़ियों के मक्कारी भरे खेल द्वारा ही नहीं, बल्कि जीवन के नैतिकतापूर्ण श्रेष्ठतर आचरण के प्रबल उदाहरण द्वारा भी मनुष्यों का एक बलशाली अनुगामी दल एकत्र किया जा सकता है। ” लेकिन गांधी के निधन के 70 साल बाद गांधीवाद उस रूप में हमारे बीच नहीं दिखता। ऐसा लगता है राजनैतिक चालबाजियों और धोखाधड़ियों के मक्कारी भरे खेल द्वारा ही गांधी को दायरों में कैद कर लिया गया है और आज गांधी के अनुयायियों ने भी वो नैतिकता और आचरण नहीं दिखाया है, जिसके बूते मनुष्यों का एक बलशाली अनुगामी दल नज़र आए।

गांधी के 150 वर्ष – माध्यम या सन्देश

विकास संवाद का बारहवां आयोजन सेवाग्राम, वर्धा 

तस्वीर- आशीष सागर दीक्षित के फेसबुक वॉल से साभार

गांधीवाद वैचारिक स्तर पर तो हमारे और आपके बीच बीज रूप में मौजूद हो सकता है लेकिन ज़मीनी धरातल पर वो पौधा नज़र नहीं आता, जिसकी शीतलता और बयार को रेखांकित किया जा सके। गांधीवाद की असल ताकत उसके सतत संघर्षों में है और उसके लिए एक बड़ा जनसमूह तैयार नहीं किया जा सका है, चाहे कारण कुछ भी रहे हों। इसलिए इसके पीछे का वो बल भी नहीं दिखता, जो सत्ताधारियों की चेतना पर चोट कर सके। समाज में सार्थक हस्तक्षेप कर सके।

तस्वीर- आशीष सागर दीक्षित के फेसबुक वॉल से साभार। सेवाग्राम में प्रार्थना सभा।

देश के राष्ट्रपति जब राष्ट्र के नाम संबोधन करते हैं तो अहिंसा का पाठ गांधी के हवाले से दोहराते हैं। देश के प्रधानमंत्री जब लालकिले से भाषण देते हैं तो गांधी को स्वच्छाग्रहियों की ओर से कर्मांजलि देने की बात करते हैं। लेकिन कई बार लगता है गांधी कहीं सत्ताधारियों के लिए महज एक सुविधाजनक रूपक बनकर तो नहीं रह गए, जिसका इस्तेमाल गाहे-ब-गाहे कर लिया जाता है। विकास संवाद की ओर से जब साथियों ने ‘गांधी और हमारे एहसास’ वाले सत्र में मेरा नाम जोड़ा तो मैं अपने और आस-पास के परिवेश में गांधी से जुड़े एहसासों को टटोलने लगा। मैंने इस दौरान ये एहसास किया कि जब तक आप महज गांधी के सिद्धांतों पर बात करें, ज्यादा परेशानी नहीं होती। जब आप इन गांधीवादी आदर्शों की कसौटी पर मौजूदा हालात को कसने लगते हैं, बेचैनी बढ़ने लगती है और प्रतिरोध की आशंकाएं भी बढ़ने लगती है। सोशल मीडिया के ट्रोलर्स का एक अनकहा डर बढ़ने लगता है। साथ ही वैसे लोगों से भी आपका सामना होता है, जो गांधी के बारे एक दुविधापूर्ण मनस्थिति से गुजरते रहे हैं।

तस्वीर- रुपेश कुमार के फेसबुक वॉल से साभार

आप महज सवाल की जेस्चरिंग करते हैं और कुछ लोग आक्रामक मुद्रा अख्तियार कर लेते हैं। मुझे कभी-कभी ऐसा एहसास होता है कि इसी तरह का माइंडसेट तैयार किया गया है, कि गांधीवाद या गांधीवादी जब तक सुविधाजनक तरीके से शो-पीस की तरह सरकारी संस्थानों या अपने दड़बों में बने रहें या सत्ताधारियों और शक्तिशाली पक्ष मिजाज के मुताबिक आचरण करते रहें तब तक तो सब ठीक रहेगा अगर उन्होंने सवाल की मुद्रा अख्तियार की, आक्रामक तेवर दिखाए तो फिर उनकी भी खैर नहीं। और तब वो सबसे पहले उस शख्सियत के चरित्र हनन से भी गुरेज नहीं करेंगे, जिसके ईर्द-गिर्द एक विचारधारात्मक आंदोलन या आवाज़ संगठित की जा सके।

तस्वीर- आशीष सागर दीक्षित के फेसबुक वॉल से साभार

एक तरह की आक्रामकता पिछले दिनों अपने ईर्द-गिर्द नजर आती है। गांधी के निधन के बाद जापान में मित्र राष्ट्रों के सर्वोच्च सेनापति जनरल डगलस मैकआर्थर ने कहा- ” सभ्यता के विकास में यदि उसे जीवित रहना है तो सब लोगों को गांधी का यह विश्वास अपनाना ही होगा कि विवादास्पद मुद्दों को हल करने में बल के सामूहिक प्रयोग की प्रक्रिया बुनियादी तौर पर न केवल ग़लत है बल्कि उसी के भीतर आत्मविनाश के बीज विद्यमान हैं। ”  पिछले कुछ सालों में विवादास्पद मुद्दों पर हिंसक समूहों की आक्रामकता के कई चेहरे हमने देखे हैं। मुद्दा गौरक्षा का हो, बीफ़ का हो, दो धर्मों के बीच युवाओं के प्रेम का हो, घुसपैठियों का हो, एक ख़ास समूह ने ‘फ़ैसला ऑन द स्पॉट’ का रूख दिखाया है। ऐसे लोगों को ताकत आखिर कहां से मिलती है और उनका प्रतिरोध समाज के भीतर से क्यों नहीं होता। मुझे लगता है इन तमाम मुद्दों पर गांधीवादी संगठनों की ओर से एक बड़ी आवाज़ सुनाई देनी चाहिए थी, महज कागजों पर नहीं, ज़मीन पर भी। हो सकता है, ऐसा कुछ जगहों पर हुआ भी हो पर मेरी जानकारी इस बारे में सीमित है।

तस्वीर- आशीष सागर दीक्षित के फेसबुक वॉल से साभार

गांधीवाद आज एक पक्ष के तौर पर बहस-मुबाहिसों में शामिल नहीं किया जा रहा। सवाल ये है कि वो सत्याग्रही हैं कहां, जो गांधी की डगर पर चलने का प्रण ले चुके हैं। गांधीवादी संस्थाएं आज हाशिए पर क्यों हैं, गांधीवादी लोग आज नज़रअंदाज क्यों किए जा रहे हैं। गांधीवाद की असल ताकत क्यों नहीं दिखती। देश के तमाम ज्वलंत मुद्दों पर गांधीवादियों का एक पक्ष खुलकर सामने क्यों नहीं आता, आम लोगों तक क्यों नहीं पहुंचता और आम लोगों को अपने साथ खड़ा कर पाने की स्थिति में क्यों नहीं होता। आज जब मीडिया संस्थानों में बहस के दौरान तमाम पक्षकार दिखते हैं- गांधीवादियों की मौजूदगी का प्रयास क्यों नहीं किया जाता। बहस-मुबाहिसों के बीच हिंदू धर्मगुरु, मुस्लिम धर्मगुरु, नेता कांग्रेस, नेता बीजेपी जैसे विंडो आपको नज़र आते हैं। इन दिनों आपको इन खिड़कियों में कांग्रेस समर्थक, बीजेपी समर्थक के नाम पर भी कुछ चेहरे नज़र आ जाएंगे। लेकिन मुझे कभी परिचय के तौर पर इन बहस-मुबाहिसों में गांधीवादी चिंतक या गांधीवादी या गांधी समर्थक के नाम से एक खिड़की नज़र नहीं आती। क्यों- कहने को गांधीवादी देश और मुख्यधारा में गांधीवादियों को कोई जगह नहीं? इसके लिए अकेले मीडिया पर दोषारोपण कर गांधीवादी समूह और समाज नहीं बच सकता। उसने भी इन माध्यमों को लेकर उदासीनता दिखाई है। और उत्तम साध्य के लिए उत्तम साधन की जहां तक बात है तो ऐसे उत्तम साधन भी तैयार नहीं किए गए हैं, जिससे एक बड़े समूह के साथ संवाद कायम रखा जा सके।

तस्वीर- आशीष सागर दीक्षित के फेसबुक वॉल से साभार

क्या आपको नहीं लगता कि एक ऐसा माहौल बन रहा है जिसमें सजावटी तौर पर गांधीवाद की तो बात हो लेकिन गांधीवादी नजरिया रखने वाले लोगों की बात न हो। गांधीवादी लोगों को मजबूत न होने दिया जाए। उनके हस्तक्षेप की गुंजाइश न बनने दी जाए। सत्य-अहिंसा का कोई भी पाठ तब तक मुकम्मल नहीं हो सकता, जब तक गांधी की तरह इंसाफ़, बराबरी और सामाजिक वर्चस्व के ताने-बाने को तोड़ने के लिए सतत संघर्ष की ताकत उसके पीछे काम नहीं करती। मजबूरी का नाम गांधी जैसे जुमले यूं ही नहीं उछाले जाते, बकायदा इसके पीछे एक सोच काम करती है। मजबूती का नाम गांधी, का भाव पैदा करना भी जरूरी है। और गांधी पर विचारमंथन के दौरान मैंने पाया तो यही है कि ज्यादातर लोग गांधी के विचारों से सहमत हैं, वो गांधी की तरह इंसान बनने की कष्टप्रद प्रक्रिया और जद्दोजहद से गुजरना भी चाहते हैं, बशर्ते एक समूह के साथ वो इस प्रक्रिया में शरीक हों। सुर मिलें तो फिर से गूंजे- वैष्णव जन तो तैणें कहिए, जे पीर पराई जाने रे।


india tv 2पशुपति शर्मा ।बिहार के पूर्णिया जिले के निवासी। नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से संचार की पढ़ाई। जेएनयू दिल्ली से हिंदी में एमए और एमफिल। डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। उनसे 8826972867 पर संपर्क किया जा सकता है।