फरकिया का आंदोलन और “रेडियो कोसी”

फरकिया का आंदोलन और “रेडियो कोसी”

राजीव रंजन प्रसाद

पुष्यमित्र के उपन्यास “रेडियो कोसी” पर टिप्पणी करना चाहता था, शायद अब सही समय है। पिछले कई दिनों से फरकिया के एक क्षेत्र में पुल बनाये जाने की माँग को ले कर चल रहे आंदोलन से संदर्भित समाचार सोशल माध्यमों में तैर रहा है। हालात इतने बुरे हैं कि आंदोलनकारियों की हालत बिगड़ने लगी है, उन्हें स्लाईन चढाये जाने की नौबत आ गयी है। एक मानवशृंखला भी विरोध प्रदर्शन के लिये बनायी गयी थी और इस सबके बाद भी हमारा विमर्श इस करवट नहीं हो सका। चर्चा खड़ी करने के दृष्टिगत किस बात की हमें प्रतीक्षा रहती है, क्या मुद्दों के राजनीतिकरण की अथवा दिल्ली के आलीशान विश्वविद्यालयों के गलियारों में उठाये जाने वाले नारों की? जब आम जन अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त करने के रास्ते तलाशता है तो उसकी आवाज को क्या ‘रेडियो कोसी’ की प्रतीक्षा रहती है?

पुष्यमित्र का उपन्यास रेडियो कोसी वस्तुत: फरकिया के दर्द की ताकतवर अभिव्यक्ति है। उपन्यास को एक ही बैठक में पूरा पढने के पश्चात कह सकता हूँ कि रेडियो कोसी की कहानी उस संघर्ष-लोक की कथा है जो उपन्यास की भूमिका के इन शब्दों में सामने आयी है – “उनके लिये अगस्त का महीना बाढ का महीना होता है और इससे लड़ने के लिये वे जून-जुलाई में ही तैयारी शुरु कर देते हैं। बाढ का पानी जब तक उतरता नहीं वे टापुओं की तरह अपने-अपने घरों में दुबके रहते हैं, सारा काम नाव से करते हैं। बाहरी दुनिया से बस जरूरत भर का संपर्क होता है। अक्टूबर में जब पानी उतरने लगता है तो दुर्गा माँ के स्वागत की तैयारियों के साथ उनके जीवन का सवेरा शुरु होने लगता है। यह कहानी एक दो गाँव की नहीं पूरे साढे तीन सौ गाँव की है…”।

ऐसा तो नहीं कि समाधानों की दिशा तय करने का प्रयास न किया गया होगा? शायद हम उस देश में रहते हैं जिसकी जड़ों में दीमक लग गया है। क्या इस उदाहरण से यही सिद्ध नहीं होता कि बाढ़ आपदा समाधान के तौर पर कोसी नदी के दोनों किनारों को ऊँचे तटबंधों से बाँधा गया है जिसकी परिणति अलग तौर का जलजमाव बन गयी है, जिसमें 4.26 लाख हेक्टेयर जमीन डूबी रहती है। कोसी तटबंध परियोजना का लक्ष्य कुल 2.14 लाख हेक्टेयर जमीन को बाढ से बचाना था। यह तो मुंगेरीलाल परियोजना का हश्र है और ऐसी ही सोच के साथ हम बार-बार अपना रास्ता भटकती अल्हड़, वेगवान और उस दिशाहीन नदी पर अंकुश लगाना चाहते हैं जो प्रतिवर्ष पाँच करोड़ पचास लाख टन गाद आपने साथ लाती है और आस-पास के क्षेत्र में इसमें से अधिकतम पटक जाती है।

कोसी के अल्हड़पन और फरकिया के आर्तनाद की कहानी को पात्रों के माध्यम से पुष्यमित्र बखूबी कह जाते हैं और कितने ही प्रश्नचिन्ह अध्याय दर अध्याय पाठक के मन-मष्तिष्क को थमाते चलते हैं। लोकजीवन के चितेरे हैं पुष्यमित्र; वे संवादों, उसकी भाषा तथा कहन से पाठक को फरकिया पहुँचा कर ही रहते हैं। वह भी इस तरह कि मेरा दावा है अधिकतम ने पुस्तक को एक या दो बैठक में ही पढ कर पूरा किया होगा। पलायन और फिर ग्राम वापसी के परिप्रेक्ष्य में प्रहलाद- दीपा की प्रेमकहानी में पाठकों को गुदगुदाने की क्षमता है। प्रेमाभिव्यक्ति से आरम्भ हुआ जुगाड़ टेक्नॉलॉजी वाला रेडियो घर से भागे हुए प्रेमी के शौक और आजीविका की डोर थाम कर परिवेश की आवाज़ बन जाता है। नाम मात्र के शुल्क पर गाने, विज्ञापन और स्थानीय समाचार प्रसारित करने वाला यह रेडियो कैसे लाईसेंस और परमिशन के चक्रव्यूह में फँसता है, पूंजीपतियों की वक्रदृष्टि का शिकार बनता है, पुलिस और प्रशासन की कार्रवाईयों में उलझता है, यह सब घटनाक्रम उपन्यास को रोचकता प्रदान करते हैं। गिरफ्त में आने के बाद कैसे यही रेडियो आपदा प्रबंधन में कारगर सिद्ध होगा है लेकिन मतलब निकल जाने के बाद पुन: सरकारी कागजी कार्रवाईयों के मकड़जाल में खामोशी की सजा पाता है, उपन्यास का क्लाईमेक्स है।

यह उपन्यास फरकिया का इतिहास और वर्तमान है। टोडरमल के दौर से ही फरक किया गया क्षेत्र आज भी कथित मुख्यधारा से कितना अलग-थलग है इसे उपन्यास सामने लाने में सफल हुआ है। पर्यावरण, विकास और विनाश जैसे शब्दों के वास्तविक मायनों को इस उपन्यास से समझा जा सकता है। उपन्यास में अभी गुंजाईश थी और इसका फलक अधिक विस्तृत किया जा सकता था। कितने ही स्थानों पर रिपोर्ताज शैली कहन पर हावी हुई है। जुगाड़ रेडियो को सामूहिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने के पीछे जो प्रयोग है, लगभग वैसा ही कम्युनिटी रेडियो संदर्भ के माध्यम से सुभ्रांशु चौधरी जनजातीय क्षेत्रों में कर रहे हैं और बहुत हद तक समस्याओं को मुख्यधारा पहुँचाने में उन्हें सफलता भी मिली है।

यहाँ से पुन: बात उस आंदोलन की जो फरकिया क्षेत्र में पुल बनाने के लिये चल रहा है। राजनीति अगर जमीन पर उतरे तभी समझ सकती है कि लोकतंत्र में लोक कितना हैरान-परेशान और कसमसाया हुआ है। जब जख्म ताजा होता है तो सरकारें मौनव्रती लेकिन जब नारे-झंडे, वाद-संगठन वगैरह अपनी पैठ बना लेते हैं तो लाठियां और आँसू-गैस उसके समाधान बन जाते हैं।


राजीव रंजन प्रसाद। दंतेवाड़ा के मूल निवासी राजीव रंजन प्रसाद ने बरकतुल्लाह और बस्तर यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा हासिल की। एनएचपीसी में कार्यरत। साहित्य लेखन में गहरी अभिरुचि।