तब की दिवाली, अब का ‘दिवाला’

तब की दिवाली, अब का ‘दिवाला’

ब्रह्मानंद ठाकुर

आज घोंचू भाई जब मनकचोटन भाई के दालान पर पहुंचे तो मनसुखबा दिवाली मनाने के लिए जरूरी सामान का लिस्ट बना रहा था। घोंचू भाई उसकी बगल में सट कर बइठ गये और सामान का लिस्ट पढने लगे। राकेट बम 10 पीस -200 /-, हाइड्रोबम -10 पीस -200/-,  मैजिक पेंसिल 10 पीस -50/- , बुलेट बम – 10 पीस -150/- , नागिन चटाई 1 पैकेट 40/- , फ्लावर पॉट 1 पैकेट 150/- , 7 आवाज -100/- , फुलझड़ी -250/-, डीजे लाईट -200/- , प्लेन राईस -150/- , बिजली मोमबत्ती 50 मीटर 800/- । मनकचोटन भाई का नाती मनसुखबा लिस्ट बनाइए रहा था कि घोंचू भाई टोक दिए ‘ ई कथी का लिस्ट बन रहा है हो बाबू ?’ ‘ नाना, दिवाली आ रही है न ,सो पटाखा और बिजली के बौल – बत्ती – का लिस्ट बना रहे हैं। बिहान बाजार से खरीदना हय। इसी सब से न दिवाली चकाचक रहेगा ?

घोंचू उवाच-18

‘ मनसुखबा ने घोंचू भाई को अपनी योजना विस्तार से समझाते हुए कहा। ‘ ठीके हय , दिवाली तो मनेगी बाद में ,उससे पहले तुम मनकचोटन भाई का दिवाला ही निकाल दोगे। परब – त्योहार में आडम्बर और फिजूलखर्ची ठीक नहीं है। इससे तो नुकसान ही नुकसान है।सेहत और पैसा दोनों की बर्बादी होती है, मनसुख। हमें अपने पर्व-त्योहारों के संदेश और उसको विकृत करने वाले बाजार के तिलस्म को समझने की जरूरत है। यह बाजार हमारे घरो में घुस कर बड़ी बेरहमी से हमारी मिहनत की कमाई को लूट रहा है और तुम लोग इससे पूरी तरह बेखबर होकर इस बाज़ार के जाल मे फंसते जा रहे हो। पर्व – त्योहार का असली मकसदे खतम हो गया।’ दिवाली मनाने के नाम पर हजारो रूपये पटाखे और बिजलीबत्ती पर फूंक देना बुद्धिमानी नहीं ,निरी मूर्खता है मनसुख। हमलोग जब तुम्हारी उम्र मे थे तो जानते हो , तब दिवाली कैसे मनाई जाती थी ? नहीं जानते हो तो सुनो। विजयादशमी के बाद से ही हमलोग दिवाली की तैयारी में जुट जाते थे। घर – आंगन ,दूरा – दरबाजा , अगुआरा – पिछवाड़ा की पूरी सफाई करते थे। बरसात में दरबाजे पर बने गड्ढों मे मिट्टी भर कर उसे फिर समतल करते थे। फूस के घरों की टाटी में मिट्टी का लेप चढाया जाता और उसके सूखने पर घर की बुजुर्ग महिलाएं उस पर गेरू से रंगोली बनाती थीं। पक्का वाले घरों मे चूने का पोचारा कराया जाता था। दिवाली आते – आते पूरा गांव और टोला चकाचक करने लगता था।

यह था दिवाली का स्वच्छता अभियान ! कहीं गंदगी नहीं। तब बड़े – बुजुर्ग कहा करते थे – ‘ सफाई में ही लक्ष्मी का वास होता है। दिवाली को लोग लक्ष्मी पूजा भी कहते हैं न ? तब आज की तरह बिजली – बत्ती गांंव में नहीं थी। लोग लालटेन और डिबिया का उपयोग करते थे। किरासन तेल तब दो रंग का होता था – लाल और उजला। लाल किरासन तेल से डिबिया और उजला से लालटेन जलाई जाती थी। दिवाली के दिन सबेरे हमलोग लालटेन की सफाई करते थे। फिर उसमें तेल डालते और नया बत्ती लगाते थे। कुम्हार दियउरी देता था। यह दियउरी भी दो तरह की होती थी- बड़ी और छोटी। बड़ी दियउरी में अंडी का तेल और छोटी दियउरी में सरसों या तीसी का तेल डाल कर उसे जलाते थे। उसमें कपड़े के बतिहर का इस्तेमाल होता था। घर की महिलाएं पुराने और साफ सूती कपड़े से बतिहर बनाती थी। देवता घर में घी का दिया जलाया जाता था। इसमें रूई की बत्ती होती थी। अंंडी , तीसी और सरसों हमलोग खेत से उपजाते थे। कुछ भी तो खरीदना नहीं पड़ता था।

दिया जला लेने के बाद घूम – घूम कर दिया में जलने वाली बत्ती को उसकाते रहते थे ताकि दिया में तेल रहते हुए वह बुझ नहीं पाए। कोई – कोई अपने दरबाजे पर लम्बा बांस गाड़ कर डोरी के सहारे उसमे कंडील बांधता था। जब रात में कंडील के भीतर दिया जलता तो दूर से ही उसे देख कर मन खुश हो जाता था। उस कंडील को आकाश दीप भी कहते हैं। यह कंडील भी गांव के कलाकार बनाते थे। उधर दिया जलता रहता और इधर हमलोग उकियाडी भांजने निकल पड़ते थे । उकियाडी सनई के संठी और पुराने खढ से बनती थी। उसे नया मूंज से सात जगह बांधा जाता था। गांव के बाहर सरेह मे हांज के हांज उकियारी भांजते युवकों की टोली जब निकलती तो देखते ही बनती थी। ‘ आज तो सनई का संठी भी 5 रूपये मुठ्ठी बिकती हैः एक मुठ्ठी मे 5-7 संठी। पेठिया में देखबे करते हो, हमहूं काल्ह गांव के पेठिया से 15 रुपइया मे तीन मुठ्ठी खरीद कर लाए हैं। अब त सन – पटुआ का खेतिए अलोपित हो गया, ‘ बुरबक खेती सन – पटुआ के , पानी में खरिहान। अब त चौर मे पानियो नहीं रहा आ अगर रहबो करता त के जाता सडल पानी मे सन – पटुआ साफ करने ?

मनसुखबा बडे ध्यान से घोंचू भाई से उनके जमाने के दिवाली मनाने की बात सुन रहा था। अचानक बोल उठा ‘ और पटाखा – फुलझड़ी?’ ‘हां ,पटाखा और फुलझड़ी भी तब थी , लेकिन आज की तरह कानफाडू और घातक नहीं। चार आने में एक डिब्बा बीडी पटाखा मिलता था। एक डिब्बा में वही एक दर्जन रहता होगा। उससे कोई खास खतरा भी नहीं और पर्यावरण का नुकसान भी नही होता था। इक्के – दुक्के लड़के ही तब गांव में पटाखे फोड़ते थे। अभाव जरूर था मगर पर्व – त्योहार मनाने में एक शालीनता थी , सामूहिकता थी और था एक – दूसरे के प्रति आत्मीय लगाव। आज तो पर्व – त्योहारों के आयोजन में आडम्बर के साथ – साथ प्रतिस्पर्धा भी काफी बढ गई है। तुम जो यह लिस्ट बना रहे हो वह इसी प्रतिस्पर्धात्मक मनोवृत्ति का सूचक है। इसे तो अपव्यय ही कहा जाएगा। यह स्थिति चिंताजनक है।

पटाखे में बारूद होती है, जलने पर यह दुर्गंध फैलाता है। इससे हवा प्रदूषित होती है और कानफाडू आवाज से ध्वनि प्रदूषण होता है। हम जब प्रदूषण नहीं रोक सकते तो हमें इसको बढाना भी नहीं चाहिए। हमें कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जो प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुंंचाने वाला हो। इससे तो हम अपना ही अहित करेंगे न ? इसलिए जरूरी है कि सबसे पहले हम ज्ञान का दीप जलाएं मनसुख। यही ज्ञान हमें अपनी विरासत की रक्षा करते हुए हमारी गौरवशाली परम्परा को बाजारवाद की गिरफ्त से छुटकारा दिलाएगा। इसलिए हमारे पूर्वजों ने कभी कहा था , तमसो मा ज्योतिर्गमय। मुझे अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले चलो। ‘


ब्रह्मानंद ठाकुर। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।