बच्‍चों की मार्कशीट को जिंदगी पर हावी न होने दें

बच्‍चों की मार्कशीट को जिंदगी पर हावी न होने दें

दयाशंकर मिश्र

बच्‍चों को संपत्ति की तरह न मानने, ‘बच्‍चे हमसे हैं, हमारे लिए नहीं’ भावना वाली परवरिश के सिद्धांत, विनम्र अनुरोध को देशभर के पाठकों से बेहद सृजनात्‍मक, सुखद प्रतिक्रिया मिली है. बच्चों की परवरिश में अपेक्षा जितनी कम होगी, वह अपने नैसर्गिक गुण के उतने अधिक नजदीक होंगे. तनाव, डिप्रेशन उन्‍हें कम से कम छू पाएंगे!

बच्‍चों को ‘अपने’ जैसा बनाने की इच्‍छा, असल में उनके विरुद्ध सबसे बड़ी साजिश है. जिंदगी अतीत की ओर नहीं जाती, न समय कल के लिए रुकता है! बच्‍चों को अपने सपनों से नहीं जोड़ना, उनके सहज गुण, स्‍वभाव को जानते हुए उस समय उनके साथ खड़ा होना जब उन्‍हें सब ओर से निराशा मिल रही हो, बेहद जरूरी है.

29 दिसंबर को भोपाल में डियर जिंदगी के 400 अंक पूरे होने के अवसर पर हुए संवाद में मप्र की सुपरिचित पत्रकार, लेखक विधु लता जी ने बेहद खूबसूरती, सरलता से अपनी बिटिया की परवरिश से जुड़े अनुभव साझा किए थे. उन पर विस्‍तार से हम अगले अंकों में बात करेंगे. अभी सारांश में केवल इतना कि बच्‍चे के साथ खड़े रहना सबसे अहम है.

बच्‍चा स्‍कूल में कुछ घंटे बिताता है, इसका अर्थ यह नहीं कि वह उनका है! बच्‍चा विशुद्ध रूप से आपका है. उसे स्‍कूल की महत्‍वाकांक्षा का उपकरण (टूल) मत बनने दीजिए. उसके लिए स्‍कूल का नाम रोशन करने से अधिक जरूरी है कि वह अपने सपनों में रंग भरे. अपने दिल की आवाज सुने. दुनिया की महानतम हस्‍तियों का अध्‍ययन कहता है, ‘बच्‍चे केवल स्‍कूल में असफल होते हैं.’ बच्‍चों की मार्कशीट को जिंदगी पर हावी नहीं होने देना है, यह बात जितनी अधिक स्‍पष्‍ट होगी, बच्‍चे का भविष्‍य उतना सुखद होगा.

इस भाव को बखूबी ग्रहण करते हुए गुजरात के राजकोट से श्‍वेता त्रिपाठी ने हमें लिखा, ‘बेटा पांचवीं कक्षा में है. होशियार और रचनात्‍मक. लेकिन स्‍कूल की नजर में वह बेहद कमजोर है. क्‍योंकि उसके नंबर अच्‍छे नहीं आते. जब शिक्षकों का व्‍यवहार उसके प्रति इतना खराब हो गया कि उसके मनोबल पर असर पड़ने लगा तो उन्‍होंने स्‍कूल में शिकायत करने के साथ यह तय किया कि वह अपने बच्‍चे को खुद पढ़ाएंगी, उसके कम नंबर के साथ हमेशा खड़ी रहेंगी.’

श्‍वेता ने जो किया, वह आपसे साझा कर रहा हूं. बच्‍चे के कम नंबर, उसके कथित खराब प्रदर्शन की चर्चा किसी से, कहीं नहीं की. नहीं करने का कड़ाई से पालन किया. थोड़े दिन में समझ में आ गया कि बच्‍चा पढ़ाई की जगह खेल में अच्‍छा है. पेंटिंग्‍स में अच्‍छा कर सकता है, तो उसका ध्‍यान उधर लगाने में मदद की, जहां उसे मजा आता है. बच्‍चे को मोबाइल से दूर रखने के लिए खुद घर में मोबाइल, इंटरनेट का उपयोग कम से कम किया. बच्‍चे को कहानियां सुनाने, प्रेरक प्रसंग सुनाने, उसके सामने सही उदाहरण रखने को एकदम जरूरी बनाया. जो काम खुद नहीं कर सकते, वह बच्‍चे से कहना बंद किया. उसे सफलता के साथ‍ अच्‍छे मनुष्‍य होने का महत्‍व बताना शुरू किया. उसे समझाया कि कामयाबी चाहिए, लेकिन ‘हर’ कीमत पर नहीं!

श्‍वेता ने जिन बातों का जिक्र किया, उससे बच्‍चे की जिंदगी को आसानी से सरल बनाया जा सकता है. हालांकि हम बड़ों के लिए यह करना थोड़ा मुश्किल है. क्‍योंकि हम क्‍या करना है, क्‍या नहीं करना के प्रति बहुत कठोर हैं. जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, हम ‘लचीले’ होने की जगह कठोर होते जाते हैं. इसलिए मेरे विचार में बच्‍चे की परवरिश करते हुए सबसे पहले जरूरी है कि हम स्‍वयं को अधिक लचीला, सजग और सरल बनाएं. बच्‍चे के दिमाग में यह भाव सुरक्षित रहे कि माता-पिता असफलता में भी उसका हाथ उतनी ही मजबूती से थामे हैं, जितना उस समय जब सब ओर से तालियां गूंज रही हों!