विकास की आपाधापी में दम तोड़ती नैतिकता

विकास की आपाधापी में दम तोड़ती नैतिकता

ब्रह्मानंद ठाकुर

आज हमारा गांव विकास के इस आपाधापी में अतीत के तमाम उच्च नैतिक मानदंडों को बड़ी तेजी से खोता जा रहा है। सम्पूर्ण युवा पीढी अपसंस्कृति की जाल में बुरी तरह फंस गयी हो, मानवीय संवेलनाएं तार तार हो रही हों, सड़क पर किसी हादसे में गम्भीर रूप से घायल इंसान को अस्पताल ले जाने के वजाय उसका सेल्फी लिया जा रहा हो तो ऐसे समय में संस्कृति और नैतिकता पर गम्भीरता से सोंचने की जरूरत है।  बिहार के मुजफ्फरपुर के मनियारी गांव में नागरिक फोरम ने  नैतिक -सांस्कृतिक मूल्यों का पतन एवं वर्तमान चुनौतियां ‘ विषय पर परिचर्चा कराई ।सांस्कृतिक मूल्यों में लगातार हो रहे क्षरण को लेकर शहरी क्षेत्रों के आभिजात्य और बौद्धिक वर्गो में सतही चर्चा की बात तो देखी-सुनी जा रही लेकिन गावों मे इन ध्वस्त हो रहे मूल्यों को लेकर जो छटपटाहट है उसका एहसास पहली बार हुआ। मैं गांव का रहने वाला हूं लिहाजा उस दर्द को अच्छी तरह समझ सकता हूं ।

आज हम जिस नैतिक-सांस्कृतिक पतन और चुनौतियों की बात कर रहे हैं, हमें इसकी जडें इस मृतप्राय पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में तलाश करनी होगी। पूंजीवाद का आरम्भिक चरित्र जरूर प्रगतिशील रहा और सामंतवाद की कब्र पर अपना आकार लिया । देश दुनिया को सामंती शोषण से मुक्ति दिला कर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आदर्श को स्थापित किया । आज यह पूंजीवाद खुद मरनासन्न है। होना ही था । इस संकट से बचने के लिए यह नैतिकता और संस्कृति पर हमला कर रहा है। इसे समझने की जरूरत है। आज की युवा पीढ़ी के सामने संस्कृति, नैतिकता और मूल्यों के पतन की जो चुनौती है उसका सामना पूंजीवाद विरोधी संघर्ष को सफल बना कर ही किया जा सकता है।

मेरा मानना है कि सभ्यता और संस्कृति दो अलग अलग चीजें हैं । सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है जैसे भोग के आधुनिक साधन–रेल, मोटर, वातानुकूलित वाहन ऐसी तमाम सुविधाएं  लेकिन संस्कृति वह गुण है जो हमारे भीतर व्याप्त है। यह हमें चीजों के बेहतर और मानवीय तरीके से उपयोग करने की सीख देती है। संस्कृति फूल में व्याप्त उस सुगंध की तरह है जिसे देखा नहीं, महसूस किया जा सकता है। इस तरह एक सुसंस्कृत आदमी सभ्य नहीं भी हो  सकता है  और यह कोई जरूरी नहीं कि हर सभ्य आदमी सुसंस्कृत भी हो । इसी तरह नैतिकता एक जी्वन पद्धति है । नैतिक मूल्य मनुष्यता की पहचान होती है। शिक्षा से इसका अभिन्न सम्बंध है।जो मूल्य व्यक्ति के खुद के विकास के साथ-साथ दूसरों के विकास और कल्याण में योगदान दे वही नैतिक मूल्य है। ये मूल्य पढ़ाए नहीं जाते, अधिग्रहित किए जाते हैं। परिवेश की इसमें बड़ी अहम भूमिका होती है। गिरते नैतिक मूल्यों का कारण हमें आज के आर्थिक परिवेश में तलाश करनी होगी क्योंकि आर्थिक परिवेश से ही सामाजिक परिवेश का निर्माण होता है। नैतिक और सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न अधनंगा और भूखा राष्ट्र भी सीना तान कर खडा हो सकता है। इतिहास इसका गवाह है। ऐसी संस्कृति और ऐसे मूल्यबोध हजारों साल के संघर्षों से पैदा होते हैं।

इस कार्यक्रम में वतौर वक्ता के रूप में श्यामनन्दन मिश्र, रामनरेश पंडित, मोहम्मद रफी, संजय कुमार, रामरतन सहनी मौजूद रहे । । सभी वक्ताओं ने गिरते समाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों पर अपने अपने तरीके से चिंता जाहिर करते हुए इसके वास्तविक कारणों तक पहुंचने की कोशिश की। वैसे ग्रामीण क्षेत्र में आयोजित इस परिचर्चा ने संस्ककृति, नैतिकता और मूल्यबोध के पतन से जूझते हुए आम आदमी को एक सुखद संदेश देने का प्रयास तो जरूर किया है।  दुष्यंत कुमार के शब्दों में-

इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है ।


brahmanandब्रह्मानंद ठाकुर/ बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के रहने वाले । पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव पर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।