गौ-रक्षा पर पीएम के ‘विस्फोट’ का वेलकम!

संदीप सिंह

pm modi gauraksha‘गौ-रक्षा की दुकानें’ चला रहे लोगों पर प्रधानमंत्री मोदी का ग़ुस्सा खुलकर सामने आया है। मोदीजी के अनुसार इनमें से अधिकांश असामाजिक तत्व हैं जो रात में आपराधिक काम करते हैं और दिन में गौ-रक्षक बन जाते हैं। प्रधानमंत्री का यह बयान बहुत जरूरी और समयानुकूल है। हजारों वर्षों से मनुष्यों के साथ रह रही गाय अचानक भारत की राजनीति में नफरत और हिंसा का सबसे बड़ा कारण बनती जा रही है। ‘गौ-आतंक’ का भूगोल फैलता ही जा रहा है। एक्सप्रेस अख़बार में तीन दशकों से जानवरों का व्यापार करने वाले पंजाब के अमरजीत सिंह देओल के हवाले से खबर छपी है। जानवर ढुलाई के उनके ट्रकों के प्रदेश भर में बाधारहित परिवहन को लेकर उन्होंने हिन्दू शिव सेना के एक नेता को दो लाख रूपये का भुगतान किया। अब गौ-रक्षा सिर्फ धर्म व राजनीति का ही मुद्दा नहीं रह गयी है बल्कि इसका ‘गौ-अर्थशास्त्र’ भी है।

आधुनिक भारत में गाय के नाम पर सांप्रदायिक राजनीति की जड़ें कम से कम दो सौ वर्ष पीछे तक जाती हैं। इसे इतना बड़ा विभाजनकारी मुद्दा बना देने में जहाँ एक तरफ ‘बांटों और राज करो’ पर आधारित औपनिवेशिक सत्ता की साजिशें थीं तो दूसरी तरफ आर्य-समाज जैसे पुनरुत्थानवादी संगठनों और यहाँ तक कि कांग्रेस का भी हाथ था। 1980 के पहले तक कांग्रेस का चुनाव चिन्ह ‘गाय और बछड़ा’ ही था। भारत के ‘मिल्क मैन’ वर्गीस कुरियन की मार्फ़त अब हम जानते हैं कि किस तरह 60 के दशक में गोलवलकर साहब ने ‘गौ-रक्षा’ के मुद्दे को अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करने की शुरुआत की।

cow bjp_adसमकालीन भारतीय राजनीति में यदि गाय को राष्ट्रीय-राजनीति के केंद्र में ला देने का श्रेय आरएसएस, उससे जुड़े असंख्य संगठनों और भाजपा को जाता है, तो गाय के मुद्दे को भावनात्मक स्तर पर जन-जन में स्थापित करने का श्रेय समकालीन भारतीय राजनीति के सबसे बड़े चेहरे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ही है। 2014 के लोकसभा चुनाव की तूफानी रैलियों, सभाओं और भाषणों से देश का दिल जीत लेने वाले मोदी ने बार-बार गाय को मुद्दा बनाया और भारत की राजनीति को ‘पिंक रेवोल्यूशन’ नाम का नया जुमला दिया। खास तौर से पश्चिमी उत्तर-प्रदेश और बिहार की रैलियों में इस मुद्दे पर वे बहुत मुखर थे। तब शायद उन्हें प्लास्टिक खाकर मरने वाली गायों की खबर न थी! बिहार विधानसभा चुनावों में तो भाजपा ने गाय और मोदी की तस्वीरों के साथ बड़े-बड़े होर्डिंग्स भी लगाए थे।

गाय के नाम पर फलने-फूलने वाले विभिन्न संगठनों, अफवाह-समूहों, लम्पट-गिरोहों को चाहे-अनचाहे मोदी के भाषणों से काफी वैधता मिली। विभिन्न राज्यों में सत्ता में आयी भाजपा सरकारों के शुरुआती कामों में गौ-हत्या कानूनों को और सख्त करना एक पैटर्न की तरह शामिल दिखता है। कई सारे भाजपा मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार के कई मंत्री खुले आम इसमें एक ख़ास पक्ष लेते दिखाई पड़ते हैं।

gaur aksha dalदेखते ही देखते गौ-भक्ति को देशभक्ति से जोड़ दिया गया। एक हिंसक उन्माद में राष्ट्र दादरी और ऊना के रास्ते पर बढ़ चला। कुछ भाजपा-विरोधी ताकतें और खास कर वामपंथी इतिहासकार वेद-पुराण और न जाने कहाँ-कहाँ से साक्ष्य दिखाकर यह साबित करने में हलकान रहे कि हिन्दुओं के वैदिक-पूर्वज गौ-मांस खाते थे, पर गौ-भक्ति से ओतप्रोत और ‘गौ-माता व्हाट्सएप ग्रुपों’ के उत्साही सिपाहियों को यह सब जानने की फुर्सत नहीं थी। अपनी सामूहिक आत्म-अभिव्यक्ति करने के लिए अगर इस देश को कभी चरखा मिला, कभी खादी कभी गांधी परिवार तो आज इसे ‘गौ-माता’ मिली है।

इस हिंसक ‘गौ-रक्षा’ अभियान ने हर किस्म के सामंती-सांप्रदायिक तत्वों को सक्रिय कर दिया। आम तौर से इस अभियान का निशाना मुस्लिम ही होते रहे। जैसा कि हर विभाजनकारी विचार के साथ होता है। गौ-रक्षा अभियान की दिशा मुस्लिमों के साथ-साथ दलितों की तरफ भी मुड़ी। पेशेगत कारणों और सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं के चलते दलितों का काफी बड़ा हिस्सा न सिर्फ जानवरों के चमड़े के व्यापार में लगा हुआ है बल्कि गाय के मांस को लेकर इस समुदाय में ऐसी कोई ख़ास असहजता भी नहीं है।

cow protest 2भाजपा की पहली केंद्र सरकार में झज्जर यदि एक इशारा था तो दूसरी बार केन्द्रीय सत्ता में आते ही यह इशारा मुखर होकर एक हिंसक अभियान में तब्दील हो गया। जगह-जगह पर दलित पीटे जाने लगे। गोबर, मूत्र खिलाकर और सामूहिक सजाएं देकर उनका ‘शुद्धिकरण’ किये जाने की खबरें आने लगीं। सत्ताधारी दल का एजेंडा राजनीति के राजमार्ग पर सरपट दौड़ने लगा। गौ-रक्षा अभियान भाजपा का राममंदिर-2 हो गया। एक समय तो ऐसा लगा कि गाय की पूंछ पकड़कर उत्तर-प्रदेश की वैतरणी पार हो जायेगी।

पर इसी बीच उत्तर-प्रदेश में दयाशंकर और गुजरात में ऊना हो गया। वह प्रदेश जिसे मोदी की प्रयोगशाला कहा जाता है, मोदी के विकास का मॉडल कहा जाता है। वहां दलितों ने मरी गायें सरकारी दफ्तरों में, रास्तों पर फेंक दीं और कहा गौ-रक्षक अपनी माता का अंतिम संस्कार करें। देश दहल गया। हजारों दलित गुजरात की सड़कों पर आ गए। देखते-देखते इसे ‘दलित उभार का मानसून’ कहा जाने लगा। डैमेज-कंट्रोल के चक्कर में दयाशंकर को, आनंदीबेन को जाना पड़ा और मोदी को टाउनहाल मीटिंग में उस अभियान के ख़िलाफ़ बोलना पड़ा, जिसके बीजारोपण का आरोप खुद उन पर है।

modi-cow charaकई असहमतियों के बावजूद भी मोदीजी के इस बयान का स्वागत किया जाना चाहिए। उन्होंने वह कहा है, जो एक प्रधानमंत्री के बतौर उन्हें काफी पहले कहना चाहिए था। आरएसएस से उनकी जितनी भी प्रतिबद्धता हो, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि अब वे आरएसएस के स्वयंसेवक नहीं बल्कि एक संवैधानिक सरकार के चुने हुए प्रधानमंत्री हैं। एक ऐसे संविधान के प्रथम-रक्षक जो उन सारी चीजों की मनाही करता है, जिसकी बारंबारता फिलवक्त उनके राज में बड़े पैमाने पर दिख रही हैं। देर से सही पर उन्होंने बहुत जरूरी हस्तक्षेप किया है। यह और पहले हो जाता तो शायद कुछ जानें बचाई जा सकती थीं।

देखने वाली बात यह है कि ‘गौ-रक्षकों को फटकारने’ वाले नाटकीयता से भरे इस भावुक भाषण से मोदीजी एक साथ दो नहीं तीन निशाने लगा रहे हैं। पहला – गौरक्षा के नाम पर मुस्लिमों पर हुए हमलों का जिक्र भी न कर एक तरह से वे दादरी, लातेहार को जायज ठहरा देते हैं। उन्हें पता है मुस्लिम उनका वोट बैंक नहीं। दूसरा – बादशाह और राजा की जंग में गाय के इस्तेमाल के रूपक को चालाकी से पेश करते हुए वे दरअसल राजा सोहालदेव और सालार मसूद उर्फ़ गाजी मियां का सन्दर्भ देकर चुनावासन्न उत्तर-प्रदेश में अपनी सांप्रदायिक बिसात बिछा रहे हैं। और तीसरा – वे दलितों को यह सन्देश देना चाहते हैं कि मोदी उनके हितों की चिंता करते हैं।

इस भाषण के बाद अब कई प्रश्न हैं जिनका जवाब दिया जाना है. मसलन, क्या केंद्र सरकार आतंक फैला रहे गौ-रक्षक संगठनों के खिलाफ कोई कानून लायेगी? सिर्फ राज्य-सरकारों के ऊपर इसे न छोड़कर क्या खुद केंद्र सरकार इस पर सख्त कदम उठायेगी? अलग-अलग जगहों में गौ-रक्षा के नाम पर हिंसा में लिप्त पाए गए संगठनों/लोगों पर क्या कार्रवाई की जायेगी? ‘पिंक रेवोल्युशन’ का नारा क्या वापस होगा? गाय के नाम पर हो रही हिंसा को येन-केन-प्रकारेण जायज ठहराने वाले मनोहरलाल खट्टर, गिरराज सिंह, रघुवर सहाय, योगी आदित्यनाथ, संजीव बालियान, संगीत सोम, राजा सिंह, हुकुम सिंह जैसे भाजपा नेताओं के ऊपर क्या कोई एक्शन लिया जाएगा?

2014 के लोकसभा चुनावों के संभावित विजेता के रूप में दो छवियाँ मोदी का अस्त्र थीं। विकास-पुरुष और हिन्दू-ह्रदय सम्राट। तीसरी छवि जो स्वयं मोदी ने गढ़ी – वह थी प्रथम गौ-रक्षक। मोदी के सफल प्रयोग के बाद अब छुटभैये नेताओं के लिए ‘गौ-रक्षक’ का तमगा राजनीति में स्थापित हो जाने का शॉर्टकट बन चुका है। तेज़ गति से नेता बनने का आरएसएस/भाजपा का यह ‘घरेलू उद्योग’ है। कहीं मोदीजी की नाराजगी इस बात को तो लेकर नहीं है कि सब उनके रास्ते चलकर ‘छोटे-छोटे मोदी’ बनना चाहते हैं! जाहिर है अनेक मोदी से बेहतर एक मोदी!

rss cow sevaयह एक स्थापित तथ्य है कि अधिकांश गौ-रक्षक दल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आरएसएस से जुड़े हुए हैं। स्वयं आरएसएस का ‘गौ-सेवा’ प्रकोष्ठ है। इसके अखिल भारतीय प्रमुख शंकरलाल का इंडियन एक्सप्रेस ने साक्षात्कार लिया है। शंकरलाल अपने मोबाइल के पीछे गाय का गोबर चिपकाकर रखते हैं। उनका दावा है कि यह गोबर फ़ोन से निकलने वाली नुकसानदेह तरंगों से बचाव करता है। हर तरह की गंभीर बीमारियों के इलाज के साथ-साथ वे गर्भवती महिलाओं को भी गाय का गोबर व मूत्र पिलाते हैं। उनके अनुसार इससे महिलाओं को प्रसव में दिक्कत नहीं होती। उनका यह भी मानना है कि ये औषधिमूलक गुण सिर्फ भारतीय देशी गाय में होते हैं।  वैसे गाय या किसी भी पशु के बारे में व्यक्तिगत स्तर पर ऐसे ख्याल रखने में कोई ज्यादा बुराई नहीं है। भारत में हजारों लोग होंगे जो गाय के मलमूत्र से इलाज में विश्वास करते होंगे। पर जब सारी राजनीति ही गाय के इर्द-गिर्द सिमट गयी हो – ऐसे विश्वास हिंसक रूप ले लेते हैं।

गाहे-बगाहे यह सुनने को मिलता रहता है कि आरएसएस और भाजपा के भीतर कुछ लोग मोदी से खुश नहीं हैं। यह सिर्फ आडवाणी एंड कंपनी की बात नहीं है। उन्हें मोदी और शाह की जोड़ी कमोबेश अप्रासंगिक कर चुकी है। वैसे भी खुद में बहुत ही ज्यादा यकीन रखने वाले मोदी पहले से खींची ‘लक्ष्मण रेखाओं’ को मानने वाले राजनेता नहीं हैं। वे नयी लकीरें, बड़ी लकीरें खींचने का माद्दा और इच्छा रखते हैं। कहीं कुछ लोगों को यह खटक तो नहीं रहा? अपने राजनीतिक कैरियर के ऐसे दौर में जब वे खुद को ‘विश्व-स्तर के नेता’ के रूप में प्रतिष्ठित होते हुए देखना चाहते हैं, उन्हें लग सकता है कि ‘गौ-रक्षकों का यह तांडव’ उन्हें दुबारा उसी कीचड़ में खींच रहा है। जो भी हो, कई चुप्पियों के बावजूद हमें उनके इस विस्फोट का स्वागत करना चाहिए और यह जनमत बनना चाहिए कि टाउनहॉल में जो उन्होंने कहा है- मोदी उससे पीछे न जाएँ और वह सिर्फ एक ‘परफॉरमेंस’ बनकर रह न जाय।


sandeep singhसंदीप सिंह। प्रतापगढ़, उत्तरप्रदेश के निवासी। जेेएनयूएसयू के पूर्व अध्यक्ष। राजनीतिक और सामाजिक मोर्चों पर सक्रिय। संप्रति-दिल्ली में निवास।