गांधी को महात्मा बनाने की ‘चम्पारण कथा’ की पहली झलक

गांधी को महात्मा बनाने की ‘चम्पारण कथा’ की पहली झलक

पुष्यमित्र

चंपारण सत्याग्रह पर आधारित इस किताब को लिखना जब शुरू किया था तो चम्पारण सत्याग्रह की बहुत कम जानकारियां उपलब्ध थीं, चम्पारण इतिहास की किताबों में महज एक अनुच्छेद या एक पन्ने में सिमटा हुआ है। जबकि यह आजादी के इतिहास का वह मोड़ है जहां पहली बार देश के आम लोगों का जुड़ाव राष्ट्रव्यापी स्वतंत्रता आंदोलन से होती है। पहली बार एक खेतिहर आंदोलन महसूस करता है कि उसके सवालों को राष्ट्रीय फलक चाहिये और उस आंदोलन का नेता गांधी जी को ढूंढकर, पकड़कर चम्पारण ले आता है और उससे पहले तक शहरों और महानगरों में आंदोलन करने वाले गांधी को पहली दफा एक गंवई परिवेश में उन लोगों से मिलने का अवसर मिलता है, जिन्हें वे न जाने कब से भारत की आत्मा कहते रहे । यह आंदोलन एक पुल है जो शहरी मिजाज के पार्लियामेंटेरियन कांग्रेसियों को जमीनी आंदोलन से जुड़ने का अवसर देता है।

मगर यह सिर्फ गांधी और उनके सत्याग्रह की कथा नहीं है। उन गुमनाम नायकों की भी कथा है जिन्होंने बिहार के एक छोटे से इलाके में 1868 से लगातार संघर्ष की आग को जलाये रखा। उन यूरोपियन प्लांटरों के खिलाफ जिन्होंने देसी किसानों की जमीन पर कब्जा कर बहुत कम पैसों में नील की व्यावसायिक खेती करने पर मजबूर कर दिया था और उस खेती का हासिल सिर्फ कंगाली और बदहाली था, जोर-जुल्म था, तरह-तरह के नाजायज कर थे, गालियां थीं, मुकदमे थे, पुलिसिया दमन था, भुखमरी थी। सरकार उनकी थी, जमींदार उनके हित में खड़े थे, वे खुद ताकतवर थे और उनके पास गुंडों की फौज भी थी। फिर भी चम्पारण के किसानों ने लड़ना नहीं छोड़ा। 1868 से 1917 के बीच कई दफा निलहों को नील का मुआवजा बढ़ाने के लिये विवश किया। कई दफा इनलोगों ने अपने दम पर नील की खेती बन्द करवा दी।

इस संघर्ष के बीच पहले शेख गुलाब, फिर शीतल राय जैसे किसानों के नेता उभरे जिन्होंने 1917 से नौ साल पहले इतना दमदार आंदोलन किया कि उसे कुचलने के लिये सरकार को फौजी बटालियन बुलवानी पड़ी। यह आंदोलन जब कुचल दिया गया तब इन्हीं चम्पारण के किसानों ने खुद अपनी समझ से लड़ाई का तरीका बदल दिया। उन्होंने वकीलों को पकड़ा, पत्रकारों को पकड़ा और लड़ाई को पोलिटिकल मोर्चे तक ले जाने की कोशिश। अंग्रेजों को उन्हीं के हथियारों से मात देने की कोशिश की। यह जानकर आज भी मन सिहर उठता है कि 1915 में जब गांधी अफ्रीका से भारत आये थे उसी साल से राजकुमार शुक्ल जैसे किसान और पीर मोहम्मद मूनिस जैसे पत्रकार गांधी को चम्पारण लाने में जुट गए थे। और भी कई लोग थे जिनका जिक्र बहुत कम मौके पर होता है। यह वह वक़्त था जब गांधी की क्षमताओं को लेकर खुद कांग्रेस बहुत आश्वस्त नहीं थी। उनके राजनीतिक गुरु, भारत में उनके सरपरस्त गोपाल कृष्ण गोखले का देहावसान हो गया था। हर तरफ तिलक और उनके स्वराज का जलवा था। ऐसे में गांधी की क्षमताओं को पहचानना और उन्हें लगभग मजबूर करके चम्पारण ले आना, इसका क्रेडिट तो चम्पारण के अनपढ़ और अनगढ़ किसानों को ही जाता है।

यही वह वजह से है यह किताब जितनी सत्याग्रह की गाथा है, लगभग उतनी ही चम्पारण के उन अल्पज्ञात नायकों की भी। यह इतिहास कम है, गाथा अधिक है। कोशिश है कि आप एक सिटिंग में पूरी किताब पढ़ लें और इस गाथा से अवगत हो सकें। पिछले कुछ महीने में चम्पारण सत्याग्रह को लेकर कई बड़े विद्वानों की किताबें प्रकाशित हुई हैं। उन किताबों के बीच मुझ जैसे अनाम लेखक की यह किताब आपको कितनी पसंद आएगी कहना मुश्किल है। इस किताब के बारे में अपनी तरफ से एक ही बात कह सकता हूँ, यह विद्वानों, शोधकर्ताओं, इतिहास के जानकारों के लिये कम है। यह मूलतः उन लोगों के लिये है जो इतिहास को किस्से कहानियों की तरह पढ़ना चाहते हैं। यह चम्पारण कथा है।

पुष्यमित्र की नई किताब चम्पारण 1917 का बेसब्री से इंतजार

सत्यानंद निरुपम लिखते हैं कि पुष्यमित्र की किताब चंपारण 1917 इतिहास की एक ऐसी किताब जो किस्सा सुनाने जैसी भाषा में हर तरह के पाठकों को ध्यान में रख कर लाई जा रही है, जिससे चंपारण में हुए नील आंदोलन की पूरी कहानी मजे-मजे में मालूम हो सके। अभी इतिहास की सामान्य किताबों में चंपारण का बहुत अधिक उल्लेख नहीं है। आम लोग सिर्फ इतना जानते हैं कि गांधी चंपारण गये और उन्होंने नील की खेती खत्म करवा दी. संक्षेप में यह भी जानते हैं कि चंपारण सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का वह प्रस्थान बिंदु है, जहां से देश की आम जनता आजादी की लड़ाई में शामिल हुई। खास तौर पर गांव के किसानों की भागीदारी बढ़ी। इसी चंपारण की धरती पर गांधी के सत्याग्रह की शुरुआत हुई। यहीं उन्हें महात्मा कहा गया और यहीं उन्होंने एक ही वस्त्र पहनने का प्रण लिया।

आशुतोष पांडे लिखते हैं– पुष्य भाई को बहुत बधाई और शुभकामनाएं। जितना लेखक और प्रकाशक को इस किताब के लिए बैचैनी थी उससे कही ज़्यादा मेरे अंदर का पाठक बैचेन था। असल में मुझे इस किताब में चंपारण सत्याग्रह के बहाने जिस विषय को उठाया गया है, उसपर मेरी निज़ी दिलचस्पी है। कई बार पुष्य भाई से इस किताब के बारे में पूछ के तंग कर चुका हूँ। सत्यानंद जी आपको बहुत धन्यवाद। आपने बहुत सघनदार कवर डिजाइन करवाया है। उस कलाकार को भी प्यार। मेरा निवेदन है कि इसे पेपर बैक में भी जल्द लायेंगे।


PUSHYA PROFILE-1पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।