चुनावी साल में चलो गांव के विकास का शोर तो है!

चुनावी साल में चलो गांव के विकास का शोर तो है!

बब्बन सिंह

मित्रो, हम एक सामान्य व्यक्ति हैं जो संयोग से पत्रकारिता के पेशे में हैं, जैसे आप किसी और पेशे में. हम किसी प्रकार का दंभ नहीं पालते कि हम बेहद ज्ञानी हैं. कदाचित आप भी इस पेशे में होते तो हमसे बेहतर लिख-पढ़ रहे होते… क्या पता आप आज भी ऐसा कर रहे हों. तीन दशक की पत्रकारिता के बाद कई बार लगता है कि हम कुछ नहीं जानते. फिर भी लिखने-पढ़ने के पेशे में होने के कारण और लंबे समय से अर्थ जगत की रिपोर्टिंग के कारण विभिन्न क्षेत्र के विशेषज्ञों से पाला पड़ता रहता है और इन मुलाकातों व थोड़ी-बहुत छानबीन की आदत के कारण कभी-कभी कुछ लिखना-पढना हो जाता है. कई सालों तक बजट पर नजर रखने के कारण इसकी बारीकियां भी कुछ-कुछ समझ में आने लगी हैं और इसी कारण आर्थिक-सामाजिक विषयों पर कलम चल भी जाती है.

सामान्यतः सरकारें बजट ऐसे पेश करती हैं कि चार आना काम सोलह आने का लगने लगता है और हम खुश हो लेते हैं. कई विधान सभाओं व आसन्न संसदीय चुनाव के कारण बजट पूर्व हमें भी लगा था कि इस साल के बजट में सरकार के पास बहुत प्रयोग करने का अवसर नहीं है और यह निकला भी वैसा ही. दो दिन पूर्व ही भाजपा के एग्जीक्यूटिव कमेटी के सदस्य और विचारक शेषाद्री चारी को एक टीवी चैनल पर सुना था कि अबतक भाजपा सरकार खेती के लिए कुछ नहीं कर पाई है और इस बार के बजट में खेती के आधारभूत विकास के लिए जरूर बेहतर प्रावधान करेगी. हालांकि एक रोज पूर्व ही सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रह्मनियन को कहते सुना था कि इस बजट में सरकार को नए प्रावधान करने से बचना चाहिए और पुरानी और अधूरी योजनाओं को पूरा करने पर जोर लगाना चाहिए. इसलिए चारी की बातों को संवेदनशील तरीके से न लेते हुए भी अवचेतन में कुछ उम्मीद पाले बैठा था. दुर्भाग्य से चारी गलत साबित हुए, उनकी सलाह को नजरंदाज किया गया और अपनी उम्मीदों पर भी तुषारापात हुआ.

आपको ज्ञात हो कि हाल के सालों में गांव व खेती से बुरी तरह पलायन हुआ है क्योंकि 1991 के उदारवादी आर्थिक नीति लागू होने के साथ ही सरकारों का ध्यान शहरों पर केंदित हो गया और गांव और खेती ख़त्म होती चली गई. अस्सी की दहाई में 70 फ़ीसदी आबादी वाले गांवों के देश की अर्थव्यवस्था की आय में 50 फीसद से ज्यादा का योगदान था. जो गए तीन दशकों में 16-17 फीसद पर आ अटका है हालांकि अभी भी गावों में आधी आबादी बसती है. लेकिन आपको ताज्जुब होगा कि आज भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था खराब होती है तो सारी अर्थव्यवस्था की चूलें हिलने लगती है. फिर भी पिछली सरकारों ने इस क्षेत्र को अपने हाल पर रोने के लिए छोड़ दिया. बताते चलें कि गए 4-5 सालों में इसकी स्थिति और भयावह हुई क्योंकि पिछली सरकारों से कहीं ज्यादा मोदी सरकार का सारा ध्यान शहर व महानगरों पर रहा. उल्लेखनीय है कि यूपीए के पूरे कार्यकाल में खेती की औसत विकास दर 4 फीसद से ऊपर थी जबकि इस सरकार के 4 साल के कार्यकाल में ये 2 फीसद से थोड़ा ही ऊपर है.

ऐसे में आप सोच सकते हैं कि गांवों की स्थिति कैसी होगी. फिर भी शहरों में रहने वाले मध्यम वर्ग और पूंजीपतियों की गांव के बारे में कैसी सोच है यह आप टीवी चैनलों की बहसों से या अखबार की सुर्ख़ियों से लगा सकते हैं. दुर्भाग्य से सरकार ने बजट घोषणाओं की कलाकारी से बहुतेरों को भरमा दिया है कि वो गांव के विकास के लिए बहुत तत्पर हैं. कम से कम अखबारों की सुर्खियां से तो ऐसा ही आभास होता है. वास्तव में आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक और पश्चिमी देशों के रेटिंग एजेंसियों के दबाव में सरकार वित्तीय स्थिति सुधारने में लगी है, फिर भी शेयर मार्किट और उद्योग जगत दबी जुबान में सरकार की आलोचना कर रहे हैं. मौका मिले तो आर्थिक टीवी चैनलों को देख लें तो पता चलेगा कि सरकार का ध्यान किधर है.

गए चार सालों से सरकार उनकी सेवा में लगी थी फलतः देश का वित्तीय घाटा 3.5 फीसद तक नीचे आ गया है (और सरकार ने अगले साल का लक्ष्य 3.3 फीसद का रखा है) फिर भी चिल-पों मची है कि सरकार इस साल के लक्ष्य से पिछड़ गई. हम भी ऐसा नहीं सोचते कि सरकार को अपनी वित्तीय स्थिति का ध्यान नहीं रखना चाहिए पर केवल उद्योग-धंधों को ध्यान में रख कर ऐसा किया जाना चाहिए? क्या इस चिंता में गांव व किसानों की स्थिति का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए? क्या आपकी घरेलू अर्थव्यवस्था डगमगा नहीं जाएगी जब गांव व किसानों की खराब होती स्थिति के कारण हमारे रसोई में महंगे आयातित आलू-प्याज-टमाटर मेहमान बनकर बैठे होंगे? दुर्भाग्य से आज देश की ऐसी ही स्थिति होती जा रही है, फिर भी देश के अधिकांश हिस्सों को इसकी सुध नहीं. याद कीजिए फ्रांस की क्रांति क्यों हुई थी और फिर वहां का समाज व राज कैसे बदला था. इन पहलुओं को ध्यान में रख कभी मौका मिले तो इस बारे में सोचिएगा!

आज़ादी के समय से ही इस देश का पूंजीपति वर्ग परोक्ष रूप से देश की कमान अपने हाथ में लेना चाहता है. दुर्भाग्य या सौभाग्य से समाजवादी सोच के कारण 1990 तक इसमें उन्हें बहुत कामयाबी नहीं मिली. पर अब हालात बदल गए हैं. पिछली यूपीए सरकार पर यही आरोप था और उसे सत्ता से बाहर होना पड़ा. आपको याद हो तो अस्सी के शुरुआती वर्षों में इंदिरा गांधी की सरकार पर रातों-रात धीरू भाई अंबानी को मुंबई हाई के कॉन्ट्रैक्ट देने का आरोप लगा था. अंबानी को तो आप जानते ही होंगे! इस देश में इस उद्योगपति की स्थिति कौरवों से बेहतर नहीं है. फिलहाल टेलीकॉम सेक्टर को मुकेश अंबानी ने कैसे काबू किया है और भविष्य में इसके कितने दुष्परिणाम होंगे, इसकी कल्पना भी सिहरन पैदा करती है. पर अब यह बात अंबानी तक सीमित नहीं रही. उदारवादी आर्थिक व्यवस्था में हम सब अंबानी से होड़ लेने लगे हैं.

ऐसे समय में इतिहास के पन्ने पलटने की इच्छा होती है. आपको रोमन, ब्रिटिश और अमेरिकी समाज का इतिहास तो पता ही होगा और आप जानते ही होंगे कि बड़े साम्राज्यों का पतन कैसे होता है. बणिकों के साथ सत्ता का गठबंधन में प्रायः ये अनिवार्य घटना या दुर्घटना है. आज देश ऐसी दिशा में तेजी से बढ़ रहा है और आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इसी रफ़्तार से हम आगे बढ़ते रहे तो अगले 40-50 सालों में दुनिया का नेतृत्व हमारे हाथों में होने से कौन रोक सकता है? पर क्या आप जानते हैं कि ऐसे नेतृत्व का काल कितना होता है? जिस ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज कभी न डूबता था वो भी दुनिया पर 300 सालों से ज्यादा राज नहीं कर पाया. अमेरिकी साम्राज्य की तो और भी भद्द पिटी. इस्लामी कठमुल्लों से लड़ते हुए वे भी 50 साल में ही ढेर हो गए.

21 वीं सदी की इस तेज बदलती दुनिया में आप भारतीय वैश्विक साम्राज्य को कितना समय देंगे. शायद हम अतियोश्योक्ति नहीं कर रहे जब हम यह अवधि 20-25 सालों से ज्यादा की नहीं मानते! उसके बाद सोचा है क्या होगा? क्या आप चाहते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी हमारी भोगी गई सुविधाओं का भुगतान करे. आज अमेरिकी समाज की क्या स्थिति है. डोनाल्ड ट्रम्प तो इसी समय की ईजाद हैं और वे उस समाज को कहां ले जा रहे हैं? कभी ब्रिटेन की दो-एक पीढ़ी को ऐसी ही स्थिति से दो-चार होना पड़ा था. युद्ध के विजेता विंस्टन चर्चिल का सितारा युद्ध ख़त्म होते ही डूब गया था. हालांकि 1951 में वापस लौटे पर उनके लिए करने को कुछ नहीं बचा था. आज भी यूरोप के अनेक देश ऐसे पापों का दंश भोग रहे हैं. इस बारे में जानने के लिए 50-60 के दशक के ब्रिटिश साहित्य-संस्कृति के पन्ने टटोल लीजिए. ये न संभव हो तो YOUTUBE पर उस दौर की फ़िल्में और सीरियल देख लीजिए. इससे भी मन न भरे तो अपने कृष्ण-अर्जुन को याद कर लीजिएगा महाभारत युद्ध के बाद उनकी जिंदगी कैसी हो गई थी!

संयुक्त परिवार या ग्रामीण परिवेश को जानने वाले जानते-समझते ही होंगे कि गांव समाज में आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े परिवार का कोई लड़का आर्थिक-सामाजिक रूप से किस कदर तेजी से आगे बढ़ता है और बहुत शीघ्र पूरे समाज में छा जाता है. लेकिन तुरंत-फुरंत बढे ऐसे अधिकांश परिवारों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति कबतक बरक़रार रहती है? कदाचित एक पीढ़ी, कभी-कभी दो पीढ़ी. प्रायः इससे ज्यादा देखने में नहीं आता. राष्ट्रों और देशों के संबंध में भी यही बात लागू होती है. दुर्भाग्य से आज हमारा परिवार-समाज ऐसी बातों को समझते हुए भी इतिहास से सबक लेने के लिए तैयार नहीं.

हम जब भी किसी गंभीर मुद्दे पर लिखते हैं तो पृष्ठभूमि में ये बातें जेहन में होती है. हो सकता है लेखन में वो साफ़ तौर पर न दिखे. जब हमने बजट में खेती के क्षेत्र में सरकार के आवंटन को देखा तो दंग रह गये. दो-एक फीसद की मामूली वृद्धि कर आप किस तरह क्षत-विक्षत खेती को संभालेंगे. ये बातें हमारे जेहन में लगातार गूंजती रही थी पर समुचित आंकड़े नहीं जुटा पाने के कारण उस पर लिखना टाल दिया.


बब्बन सिंह। वरिष्ठ पत्रकार। दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रकार में वरिष्ठ संपादकीय भूमिकाओं का निर्वहन। मुजफ्फरपुर के निवासी। फिलहाल भोपाल में डेरा। एमएल अकेडमी, लहेरिया सराय से उच्च शिक्षा।