दिवाली में छिपी है प्रकृति से प्रेम की कला

दिवाली में छिपी है प्रकृति से प्रेम की कला

ब्रह्मानंद ठाकुर

भारतीय संस्कृति शाश्वत मूल्यों की चिरंतन जीजिविषा है। आदर्श एवं आध्मात्म की परम्परा इस देश का मूलमंत्र रहा है। धार्मिक तथा दार्शनिक चिंतन की मूल धारा मानव जीवन के बहुआयामी संदेशों को व्यक्त करती है। इसी से सम्बद्ध है इस देश का सांस्कृतिक उत्सवों एवं पर्वों का उदात्त पक्ष। भारतीय दर्शन और जीवन दृष्टि आदिकाल से ही स्वाभाविक रूप से प्रकृति से जुड़ी रही है। हमारे पूर्वजों ने सृष्टि के आरम्भ काल से ही यज्ञ, पर्व एवं अनुष्ठानों के आयोजन की व्यवस्था वातावरण, एवं ऋतुकाल के अनुरूप तय किया था। इन्हीं त्योहारों में एक है दीपावली का त्योहार। यह अंधकार पर प्रकाश के विजय के साथ-साथ नवान्न का पर्व भी है।

दिवाली शरद ऋतु ( कार्तिक मास) में मनाई जाती है। वेदों में शरद ऋतु को खास महत्व देते हुए लिखा है- जीवेम शरद: शतम् । वर्षा ऋतु के बाद आने वाली शरद ऋतु उमस और गर्मी से त्राण देकर जनमानस में प्रफुल्लता का संचार कर देती है। वर्षा ऋतु में जलजमाव, गंदगी और बाढ़ से वातावरण प्रदूषित हो जाता है। दूषित जलवायु के प्रभाव से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है और लोग इससे मुक्ति पाने के लिए कई तरह के अनुष्ठान करते हैं। दीपावली पर्व से कई मिथकीय प्रसंग भी जुडे हुए हैं। कहा जाता है कि त्रेता युग में राम लंका पर विजय पा कर इसी दिन अयोध्या लौटे थे और अयोध्या वासियों ने उनका स्वागत दीपमालिका सजाकर किया था। द्वापर में श्रीकृष्ण का नरकासुर बध का प्रसंग भी इस पर्व से जुड़ा है। पुराणों में इस पर्व से जुड़ी कई किंवदन्तियां हैं। इनमें एक है दैत्यराज बलि द्वारा देवताओं को पराजित कर लक्ष्मी को कैद किया जाना।

कहते हैं जब समुद्र मंथन से लक्ष्मी की उत्पत्ति हुई तो देवताओं और दानवों ने मिलकर लक्ष्मी को विष्णु को भेंट कर दिया। कालांतर में दैत्यराज बलि ने देवताओं को पराजित कर लक्ष्मी को कैद कर लिया। देवताओं के अनुरोध पर विष्णु ने वामन रूप धारण कर देवताओं सहित लक्ष्मीका उद्धार किया। फलस्वरूप इसी दिन देवताओं ने खुशियां मनाने के लिए प्रकाशोत्सव का आयोजन किया। वह दिन भी कार्तिक अमावस्या का दिन था। सही में देखा जाए तो इस आधार पर प्रकाश का यह पर्व लक्ष्मी उद्धार के रूप में नारी को सम्मान दिलाने की भावना से भी जुड़ा हुआ है।
दीपावली को दीप-मालिकाओं का पर्व कहा जाता है। सबसे पहले धनतेरस, जिसमें लोग लक्ष्मी की पूजा करते हैं, साथ-साथ घरों में उपयोग के लिए अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार सामग्रियों का क्रय भी करते हैं।इसके बाद होती है छोटी दिवाली, जिसे हनुमान जयंती भी लोग कहते हैं, इसमें हनुमान जी की पूजा का प्रावधान है। तीसरा दिन दीपावली का होता है। इसमें दीप जलाने के साथ-साथ लक्ष्मी-गणेश की पूजा भी की जाती है। चौथे दिन गोवर्धन पूजा होती है जिसे अन्नकूट भी कहा जाता है। इस सम्बंध में पुराणों में उल्लेख है कि इस दिन देवराज इन्द्र के प्रकोप से ब्रजवासियों को बचाने के लिए कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी तर्जनी पर धारण किया था। सबसे आखिर में भैयादूज का त्योहार होता है। इसमें बहने अपने भाइयों के लिए मंगलकामना करती हैं।
अतीत में जब हमारा देश गांवों में बसता था, शहर की कल्पना भी तब नहीं की गई थी, तब कृषि और अन्न उत्पादन ही व्यक्ति की सम्पन्नता का पैमाना हुआ करता था। इसी समय खरीफ की फसल तैयार हो कर घरों में आ रही होती है और अगली फसल लगाने की तैयारी किसान कर रहे होते है। इसी खुशी में लोग घर-आंगन, खेत-खलिहान यहां तक कि घूर (यह स्थान लक्ष्मी का वास माना जाता है ) पर भी दीप जला कर लक्ष्मी का स्वागत करते थे। रात के अंतिम पहर में घर की श्रेष्ठ महिला द्वारा डगरा (सूप) बजा कर घर के चारों ओर घूम कर दारिद्र को भगाने और लक्ष्मी के आह्वान का अनुष्ठान की परंपरा है। गांव की महिलाएं यह अनुष्ठान आज भी करती हैं।
ऐतिहासिक संदर्भों में देखा जाए तो कृषि की शुरुआत के साथ ही मानव सभ्यता का विकास हुआ है। तब लोग बाहरी दिखावा और चमक-दमक से दूर थे।
आज पूंजीवाद ने हमारे पर्व-त्योहारों को भी बाजार के हवाले कर दिया है। अपसंस्कृति के इस दौर में इन त्योहारों का अर्थ ही बदल गया है। दीपावली का पर्व भी इसका अपवाद नहीं रहा है। कभी ऋषियों ने कहा था- तमसो मा ज्योतिर्गमय’ यानि मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। यह अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर जाने का हमारे आदि मानव का शाश्वत मनोभाव रहा है जिसके सहारे हम आज यहां तक पहुंच सके हैं, लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि मरनासन्न पूंजीवाद जनित विकृतियों ने हमारी गौरवपूर्ण सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत हमसे बड़ी निर्दयता पूर्वक छीन ली है।

दीपावली जैसे गरिमामय त्योहार का रूप आज विकृत हो चुका है। पुरानी मान्यताएं, आस्था और विश्वास की भावना तिरोहित हो चुकी है।
रंग-विरंगे बल्वों की जगमगाहट, भारी भरकम पटाखे, हवा में तैरती बारुदी गंध से घुट-घुटकर जीने को मजबूर लोग ही आधुनिक दीपोत्सव की पहचान बनती जा रही है। दिवाली की रात पटाखों की कानफाडू आवाज से लोगों का चैन छिन जाता है। नवजात शिशु चौंक उठते हैं और उनकी माताएं डर जाती हैं। कितने लोग जख्मी होते हैं, मरते हैं इस दीपोत्सव के अवसर पर पटाखे की दुकान और कारखानों में आग लगने से। प्रभावित परिवार में मातम छा जाता है। आज की दिवाली पूरी तरह से अपना अर्थ खो चुकी है। मनुष्य दिशाहीन हो कर पतन की ओर जा रहा है। युवा पीढी इस अंधकार को मिटाने का अपना दायित्व पूरा नहीं कर पा रही है। यह अंधकार कड़वे सत्य की तरह जीवन के तमाम क्षेत्र में व्याप्त है। कभी अंगीरस नामक ऋषि जंगल में जलने वाली आग (दावानल) की खोज कर अपनी कुटिया में लाए थे। बाद में इस आग को लकड़ी के कुंदे से जलाकर घरों की ‘बोरसी’ मे संजो कर रखा जाने लगा। कहते है कि इसी आग की खोज से मानव सभ्यता मे पहली क्रांति आई थी। इसी अग्नि के आविष्कार ने मानव जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन किया। जंगलों से खेत और खेती शुरू हुई। यह अंधकार पर प्रकाश की पहली जीत थी। समाज में क्रांति आ गयी। फिर बिजली और बल्व का का आविष्कार हुआ। आज की दिवाली, दीपोत्सव नहीं बल्वोत्सव बन कर रह गयी है, फिर भी अंधेरा बदस्तूर कायम है।

आजादी के 70 वर्षों बाद भी गांव के गांव अंधेरे में हैं। सर्वग्रासी भ्रष्टाचार का दानव सारा उजाला अपनी मुठ्ठी में कैद किए हुए है। पर्व-त्योहार भी मुनाफे का साधन बना दिए गये हैं। ऐसे में अंधकार पर प्रकाश की विजय कहकर जो दीपोत्सव मनाया जा रहा है वह अपने कंधों पर दीपोत्सव-परम्परा की रश्म अदायगी भर ही है। यह दिवाली अपराध धनोत्सव बन कर रह गयी है। जरूरत है इस विषमता मूलक समाज में अपराधजनित पीड़ा को दूर करने की, अपराध, भ्रष्टाचार, शोषण , उत्पीडन जैसी पीड़ा से निजात पाने की। यह ‘ दीपोत्सव’ से नहीं, ‘आत्म दीपो भव’ से ही सम्भव हो सकेगा। तभी होगी अंधकार पर प्रकाश की विजय। किसी कवि ने भी लिखा है-
मुंह फेर महल खड़े, सिसक रही झोपडियां।
कैद पड़ी हैं खुशियां ऊंचे प्राचीरों में
दीप पर्व का कोई अर्थ नहीं है तबतक
जब तक जकड़ी ये किरणें जंजीरों में ।
एक दीप धर देना, कुटिया की देहरी पर।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।

 


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।

 


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।