सियासी फलक पर उम्मीदों और सवालों से घिरी ‘मोदी की बीजेपी’

सियासी फलक पर उम्मीदों और सवालों से घिरी ‘मोदी की बीजेपी’

रामजी तिवारी

भारतीय जनता पार्टी के बारे में लिखना अपेक्षाकृत कठिन होता है। कारण यह कि इस पार्टी के बारे मीडिया में पहले से ही बहुत सारी ख़बरें तैरती रहती हैं। ऐसे में उसके समर्थकों को लगता है कि हमने कुछ खास तारीफ़ नहीं की। वहीं सोशल मीडिया में चुकि यह पार्टी बौद्धिक तबके के निशाने पर रहती है, इसलिए उसके आलोचकों को लगता है कि हमने कुछ ख़ास आलोचना नहीं की। मगर लगने-लगाने से अलग एक सामान्य नागरिक के रूप में इस पार्टी के बारे में भी हमारी कुछ धारणाएं है, जिन्हें व्यक्त किया जाना चाहिए। तो आज इस पार्टी की मजबूती पर बात करते हैं। चुकि इस पार्टी का उत्तर प्रदेश में कभी भी पूरा कार्यकाल नहीं रहा है, इसलिये इसके बारे में बात करते हुए हमें केंद्र की सरकार और पडोसी राज्यों की सरकारों पर भी निर्भर होना पड़ेगा। और जो थोड़ा बहुत टुकड़े-टुकड़े में इसका शासन उत्तरप्रदेश में रहा है, उसे मिलाकर भी।

उत्तरप्रदेश में इस पार्टी की सरकार को सब लोग शिक्षा क्षेत्र के सुधार के लिए याद करते हैं। नकल विरोधी कानून के द्वारा जो प्रयास भाजपा की उस सरकार ने किया था, वैसा किसी ने नहीं किया। बेशक कि उस कानून में कुछ कमियां भी थीं, लेकिन जो लोग उत्तर प्रदेश की माध्यमिक परीक्षाओं के बारे में जानते हैं, वे इस बात से जरूर सहमत होंगे कि इस मामले में हमारे प्रदेश की विश्वसनीयता काफी नीचे है। यह अनायास नहीं है कि इस हमारे प्रदेश के बोर्ड से पास हुए विद्यार्थियों को पूरे देश में शंका की निगाह से देखा जाता है। इस बोर्ड के विद्यार्थियों का प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता का प्रतिशत भी काफी कम है। भाजपा के शासन काल के इस बड़ी कमी को दूर करने का एक गंभीर प्रयास हुआ था। अफ़सोस कि वह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी।

कानून व्यवस्था के मामले में भी भाजपा सरकार की छवि अच्छी मानी जाती है। हालांकि उस सरकार के समय में ही प्रदेश में सांप्रदायिक माहौल खराब हुआ था, लेकिन उसके अलावा दैनिक क़ानून व्यवस्था के मसले पर भाजपा सरकार का रिकार्ड अच्छा रहा है। यहाँ के थानों में जिस तरह से सरकार में रहने वाली पार्टियों की दखल बढ़ जाती है, उस प्रवृत्ति पर भाजपा की सरकार ने काफी हद तक अंकुश लगाया था। यह एक उनकी बड़ी उपलब्द्धि है। भाजपा के पक्ष में जो एक बात सबसे मजबूती से कही जाती है, वह यह है कि यह पार्टी विकास को बहस के केंद्र में ले आती है। अटल जी की सरकार ने जो काम देश की सड़कों पर किया था, वह अभूतपूर्व था। बाद में कांग्रेस की सरकार ने भी उस एजेंडे को आगे बढ़ाया, लेकिन यह भाजपा सरकार की ही देन थी कि नए बदलते हुए भारत में सड़कों की महत्ता और गुणवत्ता के बारे में गंभीर प्रयास शुरू हुआ। प्रदेश में पिछले लगभग ढाई दशकों में दो दशक तक सपा और बसपा की सरकार ही शासन में रही है। जाहिर है कि इन वर्षों में हमारा प्रदेश अपने आसपास के प्रदेशों के मुकाबले विकास की स्थिति में पिछड़ गया है। जाहिर है कि यह बात भी भाजपा के पक्ष में जाती है। एक तो वह सवाल पूछ सकती है कि जब देश के अन्य राज्यों में बिजली की आत्मनिर्भरता बढ़ रही थी, तब उत्तर प्रदेश में ढिबरी काल में क्यों कदमताल कर रहा था। जब देश के अन्य राज्यों में नए कल कारखाने लग रहे थे तब उत्तर प्रदेश का दामन खाली क्यों रह गया था।

भाजपा अपने पक्ष में उत्तर प्रदेश के आसपास के राज्यों का उदाहरण सामने रखती है, जो उसके ही जैसे बड़े हैं। मसलन मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की इस आधार पर जब हम तुलना करते हैं तो पाते हैं कि इन्ही पंद्रह बीस वर्षों में मध्य प्रदेश हमारे उत्तर प्रदेश के मुकाबले विकास के हर क्षेत्र में आगे निकल गया। लगभग एक जैसी स्थिति वाले इन दोनो राज्यों की तुलना के आधार पर भाजपा का दावा काफी मजबूत नजर आता है। भाजपा यह तर्क देती है कि हमने अपने एजेंडे में विकास की सम्पूर्ण अवधारणा को शामिल किया है, और उसके लिए आवश्यक तत्वों को दुरुस्त किया है। जैसे सड़कें, बिजली और क़ानून-व्यवस्था की स्थिति। उत्तर प्रदेश में चुकि इन तीनो क्षेत्रो में काम नहीं हुआ है, इसलिए यह प्रदेश अपनी बदहाली पर रो रहा है। आखिर क्या कारण है कि बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग लद्दाख की सर्पीली सड़कों को बनाने के लिए भी अपना पसीना बहाते नजर आते हैं और केरल के विश्व प्रसिद्ध समुद्री किनारे कोवलम के किनारे झाल मुड़ी बेचते हुए भी। वे पंजाब के खेतों में भी देखे जा सकते हैं और चेन्नई के बंदरगाह पर भी। पूर्वोत्तर में रोजी रोटी के लिए अपनी जान गंवाते हुए भी उन्हें दर्ज किया जा सकता है, और मुंबई की सड़कों पर पिटाई खाते हुए भी।

क्या इसके लिए यहाँ की सरकारें जिम्मेदार नहीं है, जिन्होंने उत्तर प्रदेश पर इस महत्वपूर्ण बदलते समय में शासन किया है। भाजपा का यह सवाल सीधे जनता के मन में उतरता है, और उस पार्टी को संबल प्रदान करता है। चुकि भाजपा अपने शाषित राज्यों का उदाहरण भी देती है, कि हमने अपने शासन काल के अधीन राज्यों में यह सारा काम किया है, इसलिए यदि हमें उत्तर प्रदेश में शासन करने का अवसर मिला, तो हम इस प्रदेश भी वह विकास कर सकते हैं। मंडल आंदोलन के बाद की भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग का फलसफा भी ठीक से समझा है। अब उसके पास भी समाज के सभी वर्गों के चेहरे मौजूद हैं, जिससे एक बड़ी तस्वीर बनती है। बस इस तस्वीर में एक ही कमी खटकती है, और वह है अल्पसंख्यक समुदाय की उपस्थिति की। देखते हैं कि यह पार्टी उस तरफ कब ध्यान देती है।

भाजपा के बारे में एक बड़ा सवाल पूछा जाता है कि यह पार्टी देश की मुख्यधारा के साथ नहीं चलती है। यह एकांगी सोच रखने वाली पार्टी है। तो जबाब में यह पार्टी जो तर्क देती है, वह काफी दमदार नजर आता है। मसलन वह सवाल पूछती है कि भाजपा के लगभग ढाई दशक के उभार में देश की वह कौन सी पार्टी है, जिसने उसके साथ मिलकर काम नहीं किया है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक। और पूरब से लेकर पश्चिम तक। अपवादों को छोड़ दिया जाए तो देश की अधिकतर क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा के साथ मिलकर सरकार चला चुकी हैं। ऐसे में उन पार्टियों को भाजपा पर आरोप लगाने का क्या हक़ है।

कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने भाजपा से गठबंधन किया है। पंजाब में अकाली दल ने। उत्तर प्रदेश में बसपा और लोक दल ने। बिहार में जनता दल यू और लोक जनशक्ति पार्टी ने। बंगाल में ममता ने। उड़ीसा में बीजू जनता दल ने। आंध्र में तेलगु देशम ने। महाराष्ट्र में शिव सेना ने। और ऐसे ही यह फेहरिश्त इतनी लंबी है कि भाजपा पर एकांगी होने का आरोप काफी खोखला नजर आता है। जब देश की इतनी सारी पार्टियां भाजपा से जुड़ती रही हैं, इसका मतलब उसकी विश्वसनीयता उन पार्टियों में भी है। इन सब आधारों पर यह पार्टी इस बार उत्तर प्रदेश में जनता के बीच खड़ी है। अब यह मिलियन डालर का सवाल है कि जनता उसकी बातों पर यकीन करते हुए उसे उत्तर प्रदेश की सत्ता सौंपती है या नहीं लेकिन इन सबके बीच बीजेपी की कमजोरियों की चर्चा भी जरूरी है ।अब इसकी कमजोरियों की चर्चा।

भारतीय जनता पार्टी के साथ मीडिया घरानों का इतना याराना रहता है कि उस पार्टी को सामान्यतया पता ही नहीं चल पाता कि वह कहाँ पर गलत नीतियों के साथ खड़ी है। खासकर हिंदी पट्टी की मीडिया में तो इस पार्टी की लगभग सम्पूर्ण ही दोस्ती-यारी दिखाई देती है। मसलन कि हम सब जानते हैं कि इस पार्टी ने अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए आंदोलन किया था। राजनैतिक रूप से उस आंदोलन ने इसे बहुत लाभ भी पहुंचाया। उस आंदोलन में पार्टी क्या कर रही थी, इससे बड़ा सवाल यह है कि उस समय का हिंदी मीडिया क्या कर रहा था। जहाँ अंग्रेजी मीडिया में इस पार्टी को इस तरह के मुद्दे उठाने के लिए आलोचित किया गया था कि इससे देश और समाज का माहौल खराब होगा। वहीँ हिंदी मीडिया ने आग में घी का काम किया था। खबरों को इस तरह से चढ़ा बढाकर पेश किया गया कि पूरे समाज में नफरत का माहौल पैदा हुआ।

बाबरी मस्जिद तोड़ दी गयी। उस घटना ने हमारे दौर के समाज को बहुत गहरे स्तर तक विभाजित किया। हालांकि बाद में भाजपा ने बाबरी मस्जिद विध्वंश से अपने को अलग किया और उसके शीर्ष नेताओं ने अदालतों में गवाहियां दीं कि वे कारसेवकों को रोकने की कोशिश कर रहे थे। उनकी उसमे कोई भूमिका नहीं थी। लेकिन माहौल तो खराब हो चुका था। देश भर में भारी पैमाने पर हिंसा हुई और लोग मारे गए। और समाज के भीतर एक ऐसी दीवार भी खड़ी हुई जिसे हम आज भी महसूस कर सकते हैं। मैंने इस कड़ी की अपनी एक पोस्ट में लिखा था कि किसी भी समाज को मूल्यांकित करते हुए इस पैमाने को जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि वह समाज अपने भीतर के अल्पसंख्यकों और कमजोर वर्गों के साथ कैसा व्यवहार करता है। मेरे लिए भाजपा के मूल्यांकन का भी वही आधार है। और इस पैमाने पर यह पार्टी निराश ही करती है।

भाजपा अपने आपको ‘पार्टी विथ डिफ़रेंस’ कहती है। वह दावा करती है कि राजनैतिक दलों का मूल्यांकन करते हुए उसे और दलों से अलग रखा जाए। लेकिन क्या सचमुच वह अन्य दलों से अलग है ….? केंद्र में और कई राज्यों में शासन करने के बाद इस पार्टी का यह दावा भी काफी खोखला नजर आता है। मसलन भ्रष्टाचार को ही लेते हैं। जहाँ-जहाँ इस पार्टी की सरकारें हैं, उन सबके ऊपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। इसके नेताओं के पास भी उतनी ही अकूत संपत्तियां दिखाई देती हैं, जैसे कि अन्य पार्टियों के नेताओं के पास। नौकरशाही उसी तरह से काम करती है। और कारपोरेट घरानो की तो जैसे चांदी ही रहती है।

भाजपा वंशवाद और परिवारवाद का भी विरोध करती रही है। लेकिन इस बार के उत्तर प्रदेश चुनावों में उसके द्वारा जारी प्रत्याशियों की सूची देख लीजिए। उसका यह विरोध अब हास्यास्पद नजर आता है। देवरिया से नोएडा तक और बुंदेलखंड से तराई तक हर जगह इस पार्टी ने नेता-पुत्रो, पुत्रियों और नजदीकी सम्बन्धियों को उपकृत किया है। भारत की राजनीति में वामपंथ के साथ भाजपा भी यह दावा करती थी कि वह कैडर बेस पार्टी है, इसलिए उससे जुड़ने वाले लोग उसके सिद्धांतो और नीतियों को मानने वाले होते हैं। आप उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के उम्मीदवारों की सूची उठाकर देख लीजिए, इस पार्टी ने दलबदलुओं की खूब अगवानी की है। यह अनायास नहीं है कि इन दोनों राज्यों में इसके अपने कार्यकर्त्ताओं और नेताओं के भीतर बड़ा असंतोष उभरा है। बेशक कि पार्टी आजकल इसे चुनावी राजनीति की अभियांत्रिकी कहती है। कथनी और करनी में अंतर वाला आरोप भी इस पार्टी पर उसी तरह से लगता है जैसे कि अन्य पार्टियों पर। इस पार्टी ने आम चुनावों के समय कुछ बड़े वादे किये थे। देश की जनता ने उन वादों पर भरोसा करके उसे सत्ता भी सौंपी थी। बल्कि प्रचंड बहुमत से सौंपी थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद इस पार्टी ने उन वादों पर क्या किया। यह सवाल पूछते ही अब उसके समर्थक लोग भड़क जाते हैं। तो क्या उनके भड़क जाने से उन वादों की तरफ पार्टी का ध्यान न दिलाया जाय।

मसलन कोर मुद्दों का सवाल ही लिया जाए। बेरोजगारी को लेकर इस सरकार के अपने आंकड़े ही बहुत निराश करते हैं। कहाँ सरकार ने 2 करोड़ लोगों को प्रति वर्ष रोजगार देने का वादा किया था, जबकि पिछले वर्ष में 2 लाख से भी कम रोजगार सृजित हुए हैं। सरकार ने विदेशों में जमा काले धन को लेकर बड़े बड़े वादे किये थे। लेकिन ढाई वर्षों का हासिल यह है कि एक एस.आई.टी. बन गयी है और स्विस बैंक की सूची के साथ पनामा वाली सूची भी कार्यवाई के इंतजार में राह देख रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी जस की तस है। सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत करने के बजाय सारा ध्यान निजी क्षेत्र की तरफ ही केंद्रित किया जा रहा है। लोगों के आम जीवन में भ्रष्टाचार को लेकर भी कोई ख़ास परिवर्तन दिखाई नहीं देता। इन कोर मुद्दों पर ही देश की जनता ने भाजपा को सत्ता सौंपी थी। अफ़सोस कि यह पार्टी उन मुद्दों पर ही ध्यान नहीं दे रही। दुर्भाग्य तो यह कि उन मुद्दों पर फोकस करने के बजाय अब उसके एजेंडे में दुसरे गैर जरुरी मुद्दे शामिल हो गए हैं, जिनसे देश और समाज का कुछ भला नहीं होने वाला।

इस सरकार ने नोटबंदी का एक बड़ा फैसला लिया। पूरे देश की जनता ने इसके लिए सरकार की सराहना भी की। उसने तमाम कष्ट झेले, तमाम दुश्वारियां उठाईं। तीन महीने के बाद आज भी हमारे जिले के ग्रामीण इलाके के बैंको में संकट बरकरार है। लोग बाग अपने ही पैसो को पाने के लिए बेहाल है। लेकिन सरकार अब उस पर चुप्पी साधे हुए है। नोटबंदी का हासिल क्या रहा, उसने देश में जमा काले धन पर कितना प्रहार किया, सरकार नहीं बता रही। मगर क्यों ….. ? यह सवाल पूछने पर उसके समर्थक लोग नाराज हो जाते हैं। मैंने ऊपर मध्य प्रदेश से तुलना करते हुए बिजली और सड़क के मामले में भाजपा सरकार की सराहना की थी। लेकिन वही मध्यप्रदेश भाजपा को शर्मनाक स्थिति में भी डालता है। परीक्षाओं और नौकरियों में भ्रष्टाचार के लिए यदि किसी राज्य का नाम सबसे पहले जेहन में आता है, तो वह मध्य प्रदेश ही है। ‘व्यापम’ के बारे में यहाँ तक कुख्यात हो चला है कि यह इतना बड़ा घोटाला है कि इसकी जांच में जाने वाले लोग भी जिंदा नहीं बच पाते।

‘जीजाजी’ घोटाले की भी चुनाव के समय खूब चर्चा होती थी। अब उस पर बात नहीं होती। ऐसे में लोग बाग़ सवाल पूछते हैं कि इस पार्टी पर कैसे भरोसा किया जाए कि उत्तर प्रदेश की सत्ता में आ जाने के बाद वह यहाँ के भ्रष्टाचार के बारे में कुछ कार्यवाही करेगी। जीजाजी के कथित घोटाले वाले दोनों राज्यों- हरियाणा और राजस्थान – में भाजपा की सरकार है। केंद्र में भी भाजपा की सरकार है। लेकिन ‘ जीजाजी’ पर कोई कार्यवाई नहीं। तो क्या यह मान लिया जाय कि जीजाजी भी निर्दोष ही हैं। सरकार मौन साधे हुए है।

एक किस्सा सुनाकर अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ। नोटबंदी के दौरान जब बैंक वालों पर यह आरोप लग रहा था कि उनकी मिली भगत के कारण ही आम जनता को पैसा नहीं मिल पा रहा है। उन्होंने ही यह परेशानी खड़ी की है। तब मैंने यह बात अपने बैंक के एक पुराने साथी से पूछी थी। वे बहुत व्यथित नजर आये थे। वे एक बड़े शहर में बैंक के बड़े अधिकारी हैं। ऐसे में मैंने उनसे कहा था कि आप इस सम्बन्ध में कुछ कहिये। लोगों को बताईये कि वस्तुस्थिति क्या है। आप तो सरकार की तमाम नीतियों के घनघोर समर्थक भी रहे हैं। आपकी बात पर लोग यकीन भी करेंगे। तो उन्होंने कहा था कि आजकल सरकार के खिलाफ बोलना आसान नहीं रह गया है। मैं चाहते हुए भी कुछ बोल नहीं सकता। ध्यान रहे कि असहिष्णुता वाले मुद्दे पर उस साथी ने बुद्धिजीवियों की खूब आलोचना की थी।

इन सब बातों के मद्देनजर भाजपा से एक उम्मीद भी है। और उससे कुछ सवाल भी। ऐसे में यह समय ही बताएगा कि उत्तर प्रदेश की जनता इस पार्टी को सत्ता सौंपती है या नहीं।


रामजी तिवारी। एक लेखक और कवि हैं, बलिया में रहते हैं. यात्रा वृत्तांत पर आधारित पुस्तक लद्दाख में कोई रैंचो नहीं रहता…हाल ही में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित ।