बिहार बोर्ड के रिजल्ट- छात्र फेल या सिस्टम

बिहार बोर्ड के रिजल्ट- छात्र फेल या सिस्टम

ब्रह्मानंद ठाकुर

इन्टर मीडिएट परीक्षा के नतीजों से बिहार में नया बखेड़ा खड़ा हो गया। नतीजे घोषित होने के 24 घंटे के भीतर ही छात्र सड़क पर उतर आए। हर तरफ हंगामा और तोड़फोड़ शुरू हो गयी। सियासी बयानबाजियां भी खूब हुईं और हो भी क्यों ना आखिर बिहार बोर्ड ने इतना ऐतिहासिक काम जो किया है।

अब इसे आप शिक्षा का बेहतर परिणाम कहेंगे या फिर शिक्षा को सबसे बुरा दौर क्योंकि 12वीं में इस बार 60 फ़ीसदी से ज्यादा छात्रा फेल हुए हैं। कमोबेश पिछले साल के मुक़ाबले इस बरस नतीजे एकदम उलट हैं। इस बार 12वीं में कुल 12 लाख 40 हजार बच्चों ने परीक्षा दी थी जिसमें 8 लाख से ज्यादा छात्र फेल हो गए। बिहार बोर्ड के नतीजे शिक्षा संबंधी सभी सुधारों की कलई खोलने के लिए काफी हैं।

सरकारी कॉलेज हों या फिर निजी स्कूल कमोबेश सबका हाल एक जैसा ही रहा। इनमें सरकारी कॉलेजों का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा। मुजफ्फरपुर जिले की बात करें तो साइंस, आर्ट्स और कॉमर्स के कुल 31 टापर्स में महज 7 टॉपर्स सरकारी कॉलेजों से हैं बाकि 24 टॉपर्स संबद्ध इंटर कॉलेज के हैं। जाहिर है हमारी सरकार जिन कालेजों के शिक्षकों के वेतन, भत्ते, पेंशन और अन्य जरूरी संसाधनो पर हर साल अरबों रूपये खर्च करती है उन कॉलेजों का ये परिणाम देखकर सवाल तो उठेंगे ही।

खैर परीक्षा परिणाम को लेकर चौतरफा घिरी सरकार की ओर से जब सफाई देने खुद शिक्षा मंत्री और बिहार बोर्ड के अध्यक्ष सामने आये तो उन लोगों ने अपनी पीठ-थपथपाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। दावा है कि नकलमुक्त परीक्षा की वजह से रिजल्ट इतना कम आया है। साहब ये भूल गये कि इनकी जिम्मेदारी सिर्फ नकल मुक्त परीक्षा संपन्न कराने की नहीं होती बल्कि शिक्षा के स्तर में सुधार की भी है।

सरकार चाहे जो भी दलील दे लेकिन जानकार इसके लिए शिक्षा व्यवस्था को जिम्मेदार मान रहे हैं। इसके लिए उनके पास वाजिब तर्क भी हैं। जानकारों का मानना है कि उत्तर पुस्तिकाओं की जांच में जरूर कोई ना कोई कोताही बरती गई है। कॉपियों के मूल्यांकन से ठीक पहले शिक्षक हड़ताल पर चले गये। सरकार के सामने समय सीमा के भीतर रिजल्ट प्रकाशन की चुनोती थी, लिहाजा उत्तर पुस्तिकाओं के जांच की वैकल्पिक व्यवस्था की गयी। सीबीएससी पैटर्न वाले  शिक्षक, विभिन्न विषयों के स्नातकोत्तर डिग्रीधारी युवाओं को भी कॉपी के मूल्यांकन कार्य में लगाया गया। साथ ही हड़ताली शिक्षकों पर दवाब डालकर हडताल खत्म कराई गयी। हालांकि तब तक काफी समय बीत चुका था।

वक्त की कमी और काम के दबाव को देखते हुए उत्तर पुस्तिका जांच की सीमा करीब-करीब दोगुनी कर दी गई यानी पहले जिस शिक्षक को प्रतिदिन 30 से 35 उत्तर पुस्तिका जांचने की जिम्मेदारी सौंपी जाती थी, उसको इस दौरान 50 कॉपी जांचने के लिए बाध्य कर दिया गया। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि गड़बड़ी की एक बड़ी वजह यह भी हो सकती है? एक तरफ बिहार बोर्ड के टीचरों की बजाय CBSE बोर्ड या फिर दूसरे शिक्षित युवाओं से कॉपी जंचवाई गई और दूसरे प्रतिदिन की कॉपी जांचने की संख्या बढ़ाकर दोहरी गलती की गई। इससे गड़बड़ी की गुंजाइश से इनकार नहीं किया जा सकता। बिहार बोर्ड के ऐसे फैसलों से रिजल्ट तो वक्त पर आ गया लेकिन उसका नतीजा बेहद चौंकाने वाला रहा। एक बात और जाननी जरूरी है कि इस बार पहले के मुक़ाबले परीक्षा सीट में भी बदलाव किया गया था।

बिहार  सरकार ने इस बार OMR सीट सिस्टम को लागू किया था। जानकारी के मुताबिक जांची गयी उत्तर पुस्तिकाओं का अंक इसी ओएमआर सीट पर लिखना था। जबकि कॉपी जांचने वालों को इसके लिए कोई खास ट्रेनिंग भी नहीं दी गई थी। ऐसे ही एक टीचर से जब मेरी बात हुई तो पता चला कि वे भी इस बार कॉपी के मूल्यांकन में शामिल थे। हालांकि उनका मानना है कि अगर OMR सीट में कोई भूल हुई हो और उसे सुधार दिया जाए तो परीक्षा परीणाम में 10 फीसदी के पास फेल का फर्क पड़ सकता है। मतलब साफ है कि कुछ ना कुछ तो चूक हुई है और इसके लिए पूरी तरह बिहार सरकार और बिहार बोर्ड जिम्मेदार है। क्योंकि जिस तरह से साल दर साल शिक्षा के स्तर में गिरावट आ रही है वो बेहद चिंताजनक है। पिछले कुछ साल के 12वीं कक्षा के नतीजों पर गौर करें तो पता चलता है कि 2013 से 2017 तक परीक्षा परिणाम घटता ही चला गया।

साल दर साल नतीजे

पास छात्रों का प्रतिशत

2013 88.2%
2014 76.17%
2015 87.45%
2016 62.19%
2017 35.25%

इन आंकड़ों से एक बात तो साफ है कि 2015 को छोड़ दिया जाए तो पिछले पांच सालों में परीक्षा परिणाम में गिरावट ही आई है। हालांकि इन पांच सालों में परीक्षार्थियों की संख्या अमूमन हर साल बढ़ती गई है। इन सबके लिए कहीं ना कहीं शिक्षा के स्तर में आई गिरावट ही जिम्मेदार है।

इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि बिहार में शिक्षकों और स्कूलों की हालत कैसी है। बिहार सरकार ने शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत धड़ल्ले से प्राइमरी को मिडल, मिडल को हाई स्कूल और हाई स्कूलों को 12वीं तक की मान्यता दे तो दी लेकिन जरूरत के मुताबिक काबिल शिक्षकों की बहाली नहीं की गई। साल 2012 में सूबे में 17 हजार 583 उच्च माध्यमिक शिक्षकों के नियोजन की प्रक्रिया शुरू हुई थी, लेकिन नियोजन की रफ्तार की सुस्ती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 5 साल बाद भी 12 हजार से ज्यादा शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का राग अलापते हुए सूबे की शिक्षा को सरकार आज जिस मुकाम पर पहुंचा चुकी है वह निश्चित रूप से प्रबुद्ध समाज के लिए चिंता का विषय है। फिर भी हमारी सरकार मर्ज की असल वजह की तलाश की बजाय उसे ऊपरी मरहम-पट्टी से ठीक करने में जुटी है। जिसका परिणाम आने वाले वक्त में और भी भयावह हो सकता है।


ब्रह्मानंद ठाकुर/ BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।