भितिहरवा गांव, जिसने याद रखा कस्तूरबा का ‘ककहरा’

पुष्यमित्र

पहली बार जिस खपरैल में गांधी का स्कूल शुरु हुआ था, उसे सुरक्षित रखा गया है। सभी फोटो-पुष्यमित्र
पहली बार जिस खपरैल में गांधी का स्कूल शुरु हुआ था, उसे सुरक्षित रखा गया है। सभी फोटो-पुष्यमित्र

लोगों ने इस स्कूल को जिंदा रखने के लिए तीन-तीन बार अलग-अलग जगह जमीन दान की। गोरों ने स्कूल में आग लगा दी तो लोगों ने ईंट-गारे का भवन खड़ा कर दिया। स्कूल के शिक्षकों ने भी इस योगदान का ऐसा सम्मान किया कि दान में मिलने वाले बांस और रस्सी तक का हिसाब लिख कर रखा।

बुनियादी विद्यालय, भितिहरवा के प्रधानाध्यापक लक्ष्मी मंडल इस स्कूल का इतिहास पूछने पर एक पुरानी फाइल दिखाने लगते हैं। इस फाइल में कई पुराने कागजात हैं। 1960 से लेकर अब तक के कई रिकॉर्ड हैं। किसने इस स्कूल के लिए जमीन दी, कब किस सेशन में कौन-कौन छात्र थे। कर्पूरी ठाकुर ने विधायक रहते हुए कैसे इस स्कूल के लिए सादे कागज पर एक हस्तलिखित लिखित पत्र सरकार को लिखा था। इन कागजातों में सबसे अमूल्य वह पतली सी कॉपी है, जिसमें दर्ज है कि इस स्कूल के निर्माण के लिए कब-कब, किन-किन लोगों ने क्या-क्या सामान दिये। इस कॉपी में बांस, सुतली और छप्पर छाने के लिए इस्तेमाल होने वाले खर तक का हिसाब दर्ज है। 1961 के आसपास के इन तमाम कागजातों पर उस महामानव की छाप साफ-साफ नज़र आती है, जो साल 1917 के आख़िरी दिनों में इस गांव आया था और उसने यहां एक स्कूल की स्थापना की थी।

1961 स्कूल निर्माण हेतु सामान देने वालों की सूची इस पुस्तिका में दर्ज है
1961 स्कूल निर्माण हेतु सामान देने वालों की सूची इस पुस्तिका में दर्ज है

बेतिया जिले के नरकटियागंज से 11-12 किलोमीटर दूर स्थित इस भितिहरवा गांव में एक गांधी स्मारक संग्रहालय भी है, जो इस गांव के लिहाज से काफी भव्य है। गांव के लोग बताते हैं कि 1988 में राज्य सरकार ने अचानक इस संग्रहालय को रातों-रात खड़ा कर दिया था। जिस जगह यह संग्रहालय बना है, उसी जगह 16 नवंबर, 1917 को महात्मा गांधी ने एक विद्यालय की स्थापना की थी। बड़हरवा लखनसेन वाले स्कूल के खुलने के महज तीन दिन बाद। ये इलाका निलहे आंदोलन का बड़ा केंद्र बन गया था, इसलिए गांधी यहां एक स्कूल खोलना चाहते थे।

एक स्थानीय मंदिर के पुजारी बाबा रामनारायण दास ने गांधीजी को स्कूल खोलने के लिए 7.5 कट्ठा जमीन दी। उस जमीन में स्थानीय लोगों की मदद से आनन-फानन में एक फूस की झोपड़ी खड़ी हो गयी। महात्मा गांधी का यह काम पड़ोस के बेलवा गांव में कोठी बना कर रहने वाले निलहे प्लांटर एसी एमन को नहीं सुहाया, सो उन्होंने उस झोपड़ी में आग लगवा दी। मगर इस स्कूल की शुरुआत करने गांधीजी के साथ पहुंचे स्वयंसेवक सोमणजी ने तय किया कि गोरे तो फूस की झोपड़ी में ही आग लगाते हैं न, हम पक्का मकान खड़ा कर लेंगे। फिर स्थानीय लोगों की मदद से ईंट-गारे का इंतजाम किया गया और एक खपरैल पक्का मकान तैयार कर लिया गया। उसी भवन में सोमणजी और कस्तूरबा ने मिल कर स्कूल का संचालन शुरू किया। ये कहानियां बापू की आत्मकथा में दर्ज हैं। आज वह खपरैल, उस संग्रहालय के परिसर में भव्य तरीके से संरक्षित किया गया है। स्कूल की घंटी और कस्तूरबा की चक्की को भी सुरक्षित रखा गया है।

यह उस मठ की झोपड़ी है, जिसने स्कूल के लिए गांधी जी को जमीन दान में दी थी
यह उस मठ की झोपड़ी है, जिसने स्कूल के लिए गांधी जी को जमीन दान में दी थी

स्थानीय लोग बताते हैं कि कुछ दस्तावेजों में भी इस बात का जिक्र है कि पुंडरीकजी कातगढ़े नामक मराठी सज्जन को इस स्कूल के संचालन की जिम्मेदारी दी गयी। जिन्होंने वहां पूरा वक़्त तो नहीं बिताया, मगर संभवतः 1972 तक इस गांव में आते-जाते रहे। बताया जाता है कि एसी एमन ने उन पर कुछ आरोप लगा कर उन्हें जिला बदर करवा दिया था। गांधीजी के जाने के बाद इस स्कूल के प्रथम छात्र मुकुटधारी चौहान ने भी इस स्कूल को चालू रखने में महती भूमिका निभायी। एक अन्य स्वतंत्रता सेनानी सत्यदेव प्रसाद वर्मा और उनकी पत्नी सावित्री वर्मा द्वारा भी स्कूल को चलाये जाने की बात कही जाती है। संग्रहालय के दस्तावेजों के अनुसार आजादी के बाद 1974 तक गांधी निधि से इस आश्रम का संचालन होता रहा। स्कूल की कहानी 1955 के आस-पास अलग हो गयी।

दरअसल, आश्रम के सामने पांच कट्ठा जमीन का एक टुकड़ा है, जिस पर कस्तूरबा उच्च विद्यालय का एक बोर्ड लगा है। गांव के 1955 का एक दस्तावेज दिखाते हुए एक सज्जन बताते हैं कि यह जमीन बुनियादी विद्यालय खोलने के लिए उनके पूर्वज रघुनाथ साह ने बिहार सरकार को दी थी। उस जगह स्कूल शुरू भी हुआ, जिसे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड द्वारा संचालित किया जाता था। गांव के कई लोग पुष्टि करते हैं कि उन्होंने उस स्कूल में पढ़ाई की है। पड़ोस के गांव श्रीरामपुर के सेवानिवृत शिक्षक सुखदेव प्रसाद यादव कहते हैं कि उन्होंने उस स्कूल से आठवीं कक्षा पास की है। वे याद करते हुए बताते हैं कि उस वक़्त अन्य विषयों के साथ खेती और स्वाबलंबन की भी घंटियां हुआ करती थीं।

1964 में यह स्कूल इस आश्रम से अच्छी खासी दूरी पर एक नये परिसर में चला गया। इसकी कथा यह है कि देश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री जाकिर हुसैन 1959 में इस गांव में आये थे और उन्होंने स्कूल की जो दशा देखी इससे उन्हें दुख हुआ। उन्होंने सरकार को प्रस्ताव भेजा कि इस स्कूल का बेहतर तरीके से संचालन हो। इसके लिए जितनी जमीन की दरकार थी, वह एक जगह मिल नहीं पा रही थी। ऐसे में भितिहरवा स्कूल के पहले छात्र मुकुटधारी चौहान समेत तीन-चार लोगों ने अपनी जमीन उस व्यक्ति के नाम कर दी, जिसकी एकमुश्त 5 एकड़ जमीन एक जगह थी। फिर उस पांच एकड़ जमीन पर नये सिरे से सीनियर बेसिक स्कूल की स्थापना हुई। तब से आज तक वह स्कूल उसी जमीन पर चल रहा है।

राजकीय बुनियादी विद्यालय, भितिहरवा का वर्तमान भवन।
राजकीय बुनियादी विद्यालय, भितिहरवा का वर्तमान भवन।

गांव में घूमने पर कई लोग इस साल का उल्लेख करते हैं। श्रीरामपुर गांव के युवक मनोज यादव जो पत्रकारिता से जुड़े हैं, कहते हैं इसी साल भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ यात्रा करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर इस गांव में पहुंचे थे। उन्होंने जब आश्रम और स्कूल को बदहाल स्थिति में पाया तो वे चादर बिछा कर बैठ गये। उन्होंने कहा, हम क्यों हर बात के लिए सरकार के भरोसे रहें। आप चंदा दीजिये। मैं गांधी के आश्रम का जीर्णोद्धार कराऊंगा। आनन-फानन में चंदे के रूप में बड़ी राशि का इंतजाम हो गया। मगर इस बीच, इस गतिविधि की सूचना राज्य सरकार को हो गयी और सरकार की ओर से ईंट-बालू गिरा कर एक हफ़्ते में संग्रहालय को भव्य स्वरूप में तैयार कर दिया गया। चंद्रशेखरजी ने जो चंदा जमा किया, उसका इधर इस्तेमाल नहीं हो पाया तो उस पैसे से उन्होंने गांव में ही एक गांधी शोध संस्थान की स्थापना कर दी। वह शोध संस्थान भारत यात्रा ट्रस्ट के द्वारा संचालित किया जाता है।

kasturba gandhiराजकीय बुनियादी विद्यालय, भितिहरवा अपने इतने समृद्ध इतिहास के बावजूद आज एक सामान्य स्कूल की तरह संचालित हो रहा है। जो गौरव भितिहरवा आश्रम को मिला वह इस स्कूल को नहीं मिला। आज भी रोज 20-25 लोग भितिहरवा आश्रम स्थित गांधी स्मारक संग्रहालय को देखने आते हैं। वे गांधीजी की घंटी और कस्तूरबा की चक्की देखते हैं। मगर उस स्कूल तक नहीं जाते, जिसके लिए गांधी जी ने इतनी कोशिशें की थीं। हालांकि आज से 99 साल पहले हुई उस छोटी सी कोशिश का असर आस-पास के इलाके में साफ नज़र आता है। इलाके में हर जाति में शिक्षा का अच्छा प्रसार है, लोगों में पढ़ने की ललक है। कस्तूरबा ने जो छह माह तक लोगों को साफ रखना सिखाया, वह सीख आज तक लोगों के व्यवहार में नजर आती है। स्वतंत्रता आंदोलन में महती भूमिका निभाने के बावजूद स्कूल के पहले छात्र मुकुटधारी चौहान ने स्वतंत्रता सेनानी पेंशन लेने से इनकार कर दिया।

मगर उसी गांव में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके लिए आज गांधी की विरासत का मतलब पैसे कमाना रह गया है। इसी वजह से रघुनाथ साह की जमीन और चंद्रशेखर द्वारा स्थापित गांधी शोध संस्थान पर कब्जा जमाने की जुगतें करते लोग भी नजर आते हैं। हालांकि इन लोगों के बीच वह मठ अपने आप में एक मिसाल है, जिसके पुजारी ने पहली दफा गांधी जी को स्कूल खोलने के लिए जमीन दी थी। आज उस पुजारी रामनारायण दास के वारिस नवल किशोर मिश्र सपरिवार उसी भव्य संग्राहलय के पड़ोस में एक फूस की झोपड़ी में रहते हैं।


(साभार-प्रभात ख़बर)

PUSHYA PROFILE-1


पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।


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One thought on “भितिहरवा गांव, जिसने याद रखा कस्तूरबा का ‘ककहरा’

  1. Thanks bhai, for providing good information that how people are carrying the changes and land donatated for a school.

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