बेनीपुरी की 120वीं जयंती पर विशेष

बेनीपुरी की 120वीं जयंती पर विशेष

ब्रह्मानंद ठाकुर

रामवृक्ष बेनीपुरी की आज 120 वीं जयंती हैं, 23 दिसम्बर 1899 में मुजफ्फरपुर में जन्मे बेनीपुरी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, बेनीपुरी जी का बचपन संघर्ष से भरा रहा, मुश्किल दौरे पर पढ़ाई लिखाई की लेकिन संघर्षों के बीच से निकलकर बेनीपुरी आज हम सभी के दिलों पर राज करते हैं । तो चलिए आज आपको बताते हैं बेनीपुरी के संघर्षों की कहानी उन्हीं की जुबानी जो उन्होंने आकाशवाणी पटना से  बच्चों को सुनाई  थी।

 प्यारे बच्चो ! एक दिन मैं तुम्हारे ही समान बच्चा था। स्कूल में पढ़ता था, काफी नटखट था, खेलता-कूदता था। आज भी उन दिनों की याद भावुक कर देती है। जब चार साल का था, मां मर गई। नौ वर्ष का था तो पिताजी स्वर्ग सिधारे। फलत: मेरी पढ़ाई बहुत देर से शुरू हुई । मुझे याद है, जब सोलह साल का हो चला था, तब कहीं मैं मिडल पास कर सका था।क-ख-ग मैंने अपने गांव बेनीपुर में शुरू किया और लोअर प्राइमरी की पढ़ाई अपने ननिहाल , वंशीपचड़ा में खत्म की। पिताजी की मृत्यु के बाद मैं अपने ननिहाल वंशीपचड़ा में ही रहता था। मेरे मामा जी मुझे अपने लड़के की तरह मानते थे और उन्हीं की कृपा से मैं आगे पढ़ सका।

फ़ाइल फोटो

लोअर प्राइमरी में मेरे जो शिक्षक थे, वह उर्दू-फारसी भी कुछ जानते थे, लोअर की पढ़ाई खत्म कर मैं उर्दू-फारसी की तरफ झुका। साथ ही, ज्यों-ज्यों मेरी उम्र बढ़ती गई, मेरा नटखटपन दूर होता गया, मैं कुछ धार्मिक प्रवृति का हो गया। उसी समय तुलसीदास की रामायण से मेरा संबंध जुडा और मैं कह सकता हूं, आज मुझमें जो साहित्यिक प्रवृति और योग्यता है, उसका प्रधान कारण तुलसीदास जी हैं। उनकी रामायण ही नहीं, पीछे उनकी विनयपत्रिका भी मेरे लिए गलहार बन गई। रामायण और विनयपत्रिका के कितने ही पद मुझे कंठस्त थे  और उन्हें गाते-दुहराते मैं थकता नहीं था। इसी समय मेरे मामाजी के दामाद मेरी बहन को बुलाने वंशीपचड़ा आए और वह मुझे स्कूल में पढ़ने के लिए अपने साथ  ले गए। यदि उनसे भेंट नहीं होती तो मैं शायद देहात में ही रह गया होता। खूबसूरत नौजवान थे, छोटे भाइयों को पढ़ाने के लिए स्कूल में नाम लिखवाने गये तो यह देखकर कि  उनकी उम्र के लोग भी पढ़ रहे हैं, उन्होंने स्वयं भी पढ़ना शुरू कर दिया और पीछे मुझे भी अपने साथ कर लिया। उनकी असामयिक मृत्यु हो गई  और तब से मुझे अपनी नाव  अकेले ही खेना पड़ा।

स्कूल में मेधावी और सदाचारी लड़कों में मेरी गिनती होती। मैं वर्ग में सदा प्रथम आता और साथी सभी मेरे चरित्र की प्रशंसा करते। सिगरेट-बीडी मैं छूता तक नहीं था। बाल सीधे मुड़वाता था । बाजार की मिठाइयां नहीं खाता। पान से भी परहेज रखता। कुर्ता-धोती बस यही मेरी पोशाक थी। न पैर में जूते न सिर पर टोपी। शिक्षकों की आज्ञा का पालन करना अपना कर्तव्य समझता। धीरे-धीरे खेल-कूद से मेरी विरक्ति हो गई ।अपना सारा समय पढ़ने-लिखने में  ही लगता ।स्कूली किताबों से ही मेरा संतोष नहीं  था। पुस्तकें पत्र-पत्रिकाएं मैं ढूढ कर पढ़ता। उन दिनों पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं की संख्या बहुत कम थी। किंतु हां जो थीं वे अच्छी चीजें ही थीं। आज इनकी संख्या बढ गई है तो बहुत-सी अंटसंट चीजें भी बाजार में आ गई है जिन्हें पढ़ कर  लड़के बनने की वनिस्बत बिगड़ते ही हैं। उस समय ऐसी बात नहीं थी  अत: पुस्तकों और पत्रिकाओं ने योग्यता बढ़ाने में बड़ी मदद की।

मेरी साहित्यिक योग्यता इतनी अच्छी हो गई थी कि जब मैं नौंवी कक्षा में ही था, तभी साहित्य की मध्यमा परीक्षा पास कर विशारद की उपाधि प्राप्त की। मेरे ही साथ कितने बी.ए. के छात्रों ने भी यह परीक्षा दी थी और वे प्राय: मुझसे सहायता लेते थे। यों ही जब मैं मडल में था, तभी से  कविताएं करता था। धीरे-धीरे मेरी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी थीं। फुटकर कविताओं के साथ  मैंने उन्हीं दिनों एक काव्य लिखना  प्रारम्भ किया था और एक पूरा नाटक लिख डाला था। स्कूल में पढ़ते समय ही सार्वजनिक कार्यों में रुचि लेने लगा था। विद्यार्थियों की एक छोटी सी संस्था मैंने संगठित की थी। उन दिनों बिहारी छात्र सम्मेलन की धूम थी, उनके जलसों में भाग लेता। मुजफ्फरपुर सेवा समितियों  का केन्द्र था। मैं स्वयंसेवक का भी काम करता। जब बिहार प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का गठन हुआ, मैं जी जान से उसके काम करता।

 मैं एक साधारण किसान के घर का लड़का था। जब मिडल पास करने के बाद मुजफ्फरपुर पढ़ने गया, तब देखा, बड़े-बड़े लोगों के लड़के मेरे साथ पढ़ रहे हैं। वे अपने धनीपन का धौंस मुझ पर जमाना चाहते थे और कुछ मुझ पर अपनी कृपा  लादना चाहते। मैं सदा दोनों से बचने की कोशिश करता। मुझमें बचपन से ही स्वाभिमान की भावना थी । उन लड़कों की लकदक देख कर मैं सोंचा करता, ऐंठ लो, जब परीक्षा में प्रथम आऊंगा तो तुम्हारा मुंह अपना-सा बन जाएगा।किंतु कभी कभी अपनी गरीबी बहुत खलती। वर्ग में प्रथम आने के बाद मेरी फीस तो माफ थी, कम खर्च के लिहाज से एक प्राइवेट होस्टल की झोपड़ी में रहता था। किंतु वहां पर भी समय पर पैसे नहीं देने के कारण कभी कभी   ‘सीधा’ ( खाद्य सामग्री ) बंद कर दी जाती। तब चावल भुनवा कर या फुला कर फांकना पडता।

इतने पर भी पढ़ने की इतनी प्रबल इच्छा थी कि  ज्यों ही पैसे आए, उनसे पत्र-पत्रिकाएं खरीद लेता। याद है, जब मैं दसवें वर्ग में था तभी साढ़े चार रुपये भेजकर एक अंग्रेजी पत्रिका का ग्राहक बन गया था।आगे पढ़ने के बड़े-बड़े अरमान थे, शिक्षक भी मुझे प्रोत्साहित करते साथियों का भी सम्मान मिलता। सोंचता  यह बनूंगा वह बनूंगा कि इतने में 1921 का असहयोग आंदोलन आया। पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने से देशभक्ति का बीज हृदय में अंकुर ले चुका था। जब गांधी जी चम्पारण आए थे,  उनके दर्शन भी हो चुके थे।अब क्या था ! शिक्षकों के मना करने पर भी उनकी ( महात्मागांधी की) पुकार पर मैंने स्कूल छोड़ दिया और जब एक बार छोड़ा तो  फिर लौटकर  उसका मुंह नहीं देखा।किंतु अब भी जबकि जीवन में बहुत कुछ सफलता प्राप्त हो चुकी है, अपनी अधूरी पढ़ाई की कसक नहीं भूल पाया।

बच्चो, मेरा स्कूली जीवन बताता है, खूब पढ़ो मन से पढ़ो पढ़ाई के साथ चरित्र पर ध्यान रखो तो फिर लाख विघ्न-बाधाएं आएं तो भी जीवन में सफलता मिलकर रहेगी मिलकर रहेगी।

20 अगस्त, 1958 को आकाशवाणी के पटना केन्द्र से प्रसारित।  (बेनीपुरी ग्रंथावली भाग 4  से साभार)

ब्रह्मानंद ठाकुर।बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।