समान शिक्षा के लिए सिर्फ नीति नहीं, नीयत होनी चाहिए

समान शिक्षा के लिए सिर्फ नीति नहीं, नीयत होनी चाहिए

फ़ाइल फोटो

ब्रह्मानंद ठाकुर

आजादी के 70 बरस बाद भी हिंदुस्तान में ना तो शिक्षा आम आदमी तक पहुंच सकी और ना ही स्वास्थ्य । ऐसा नहीं है कि हमारे देश में पैसे की कमी है बल्कि कमी है तो इच्छा शक्ति की । आजादी के वक्त एक बात जरूरत थी कि शिक्षा-व्यवस्था में थोड़ी समानता दिखती थी, लेकिन पिछले 7 दशक में बड़ी ही चालाकी से शिक्षा व्यवस्था को कारपोरेट के हाथ की कठपुतली बना दिया गया ।आजादी के 2 दशक बाद यानी 1974 से मैं शिक्षा विभाग से जुड़ा रहा और अपनी आंखों के सामने शिक्षा के गिरते स्तर और बदहाल होती व्यवस्था को देखना मेरे लिए काफी कष्टकारी रहा । बतौर उदाहरण आपके से 1977 में शिक्षा विभाग के कुछ फैसले की दास्तान बताता हूं ।

70 के दशक में बिहार में विद्यालय उपनिरीक्षक का पद समाप्त कर क्षेत्र शिक्षा पदाधिकारी का पद सृजित किया गया। पहले जहां विद्यालय उपनिरीक्षक के जिम्मे पूरे जिले की प्राथमिक शिक्षा की जिम्मेदारी होती थी, वहीं क्षेत्र शिक्षा पदाधिकारी के जिम्मे दो-तीन प्रखंड की जिम्मेदारी होती थी । हालांकि इस फैसले के पीछे शिक्षा की बेहतरी की सोच रही होगी लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं । अधिकारियों द्वारा विद्यालय का निरीक्षण और शिक्षा के स्तर में सुधार के उपाय सम्बंधी सलाह की जगह कागजी खाना पूर्ति होने लगी । तब मिडिल स्तर तक राष्ट्रीय ग्रामीण छात्र वृत्ति और मेधा छात्रवृत्ति की योजनाएं चलती थीं। उस दौर में जब मैं बोचहा मिडिल स्कूल में शिक्षक था तब वहां से प्रति बर्ष तीन चार छात्र ऐसी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो कर सरकारी खर्च पर मैट्रिक तक की पढाई पूरी करते थे। उनमें से अनेक आज ऊंचे पदों पर हैं । ठीक से याद नहीं कि यह व्यवस्था कब खत्म कर दी गयी ।

हालांकि क्षेत्र शिक्षा पदाधिकारी का पद भी साल 2006-7 में समाप्त कर उसकी जगह प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी का पद सृजित हुआ। पहले इस पद को प्रखंड शिक्षा प्रसार पदाधिकारी के नाम से जाना जाता था। पहली बार जब गुणवत्ता शिक्षा लागू हुई तो तीसरी कक्षा तक परीक्षा से बच्चों को छुटकारा मिला । फिर 5 वीं और बाद में 8वीं तक के छात्रों को बिना परीक्षा पास किए अगली कक्षा में प्रोन्नत करने की नयी व्यवस्था लागू हुई। यह सब हुआ गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देने के नाम पर। इसका हश्र आपके सामने है। अब सरकारी स्कूल के शिक्षक भी अपने बच्चों को उस स्कूल में नहीं पढ़ाते हैं जहां वे खुद शिक्षण कार्य कर रहे होते हैं। सरकार ने बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन देने वाली अनेक योजनाएं शुरू कीं। साईकिल और पोशाक दिया। मुफ्त किताबें तो पहले से ही दी जा रहीं थी। बाद में मुफ्त पुस्तकें सभी छात्र को भी दी जाने लगीं। जब तक मैं कार्यरत रहा – पहले आओ, पहले पाओ की तर्ज पर पुस्तकें लेकर बच्चों को उपलब्ध कराता रहा, लेकिन तब भी प्रखंड और जिले में सभी बच्चों को किताबें नहीं मिल पाती थीं क्योंकि आपूर्ति ही कम होती थी। फिर पहली और दूसरी कक्षा में लर्न इन फन कार्यक्रम चला। इसमें रेडियो से आधे घंटे का शिक्षण प्रोग्राम होता था। स्कूलों से रेडियो खरीदवाया गया। बच्चे रेडियो के माध्यम से अंग्रेजी सीखने लगे। साल भर बाद वह प्रोग्राम भी बंद हो गया।

इसी क्रम में एनपीईजीएल (नेशनल प्रोग्राम आफ एजुकेशन फार गर्ल्स एट एलिमेन्ट्री लेवेल ) की शुरूआत हुई। मुजफ्फरपुर जिले में यह कार्यक्रम बड़े ही प्रभावी ढंग से बिहार महिला समाख्या सोसाईटी द्वारा चलाया गया ।प्रत्येक प्रखंड के साधन समपन्न कुछ स्कूलों का चयन कर उसे आदर्श बालिका संकुल का दर्जा दे कर अगल-बगल के स्कूलों को उस संकुल से सम्बद्ध किया गया। छोटी-छोटी बच्चियों का मीना मंच बना कर शैक्षिक गतिविधियां चलाईं जाने लगी। जूडो-कराटे का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। बालिकाओं को नृत्य संगीत सिखाने के लिए संसाधन उपलब्ध कराया गया। सारा कुछ बड़ा ही फेयर और फाईन चल ही रहा था तभी सरकार ने यह कार्यक्रम महिला समाख्या सोसाईटी से लेकर बिहार शिक्षा परियोजना के हवाले कर दिया गया और ये व्यवस्था आज बुरे दौर से गुजर रही है ।

इसी दौरान कम्प्यूटर शिक्षा की महत्वाकांक्षी योजना भी शुरू की गई थी । नाम था कम्प्यूटर एडेड लर्निंग (CAL) मुजफ्फरपुर जिले में  9 और बंदरा प्रखंड के तेपरी और विष्णुपुर मेहसी में दो स्कूलों में CAL योजना के तहत तीन-तीन कम्प्यूटर, प्रोजेक्टर, जेनरेटर समेत तमाम तामझाम लाखों खर्च कर मंगाये गए । एक फैस्लिएटर (शिक्षक) को दो घंटे के लिए प्रतिमाह , दो हजार रुपये के मानदेय पर बच्चों को कम्प्यूटर सिखाने के लिए रखा गया । 6 महीने बाद वह व्यवस्था खत्म कर दी गयी। फिर साल डेढ़ साल तक प्रतिमाह एक हजार चार सौ रूपये की दर से जेनरेटर के पेट्रोल के लिए राशि मिलने लगी । यह राशि भी नियमित नहीं मिलती थी लेकिन मिल जरूर जाती थी। किसी तरह व्यवस्था कर कम्प्यूटर दो अर्द्ध प्रशिक्षित शिक्षक चलाते और बच्चों को सिखाते थे। इसके लिए छठी, 7वीं और आठवीं कक्षा के लिए रुटीन बना हुआ था। लेकिन पिछले 5 सालों से कम्फ्यूटर शो पीस बनकर रह गया है । कमोबेश यही हाल जिले के सभी सेंटर्स की है ।

मतलब ये है कि जब तक सिर्फ दिखावे के लिए कोई काम किया जाएगा तब तक ना तो शिक्षा का भला होगा और ना ही देश का । लिहाजा जरूरत है देश की शिक्षा-व्यवस्था के ढांचे को बदलने की । जब तक देश में समान शिक्षा लागू नहीं होगी तब तक ना तो देश बदलेगा और ना देश की हालत सुधरेगी ।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।