लड़की खोजो अभियान में दर-दर भटका रंगकर्मी

लड़की खोजो अभियान में दर-दर भटका रंगकर्मी

अनिल तिवारी

छोटे शहरों में नाटकों के लिये महिला कलाकारों की हरदम कमी रही है। इस भीषण कमी का सामना एक समय बीआईसी को भी करना पड़ा। यह बीआईसी के लिये वैसे, एक इत्तफाक था पर परेशानी आई, तो उससे निपटना भी जरुरी था। नाटक ‘अपनी कमाई’ की रिहर्सल प्रारम्भ होनी थी पर मुख्य महिला पात्र नाटक के लिये उपलब्ध नहीं थी। मीटिंग में यह निर्णय लिया गया कि, महिला पात्र का प्रबन्ध अनिल तिवारी करेंगे।

मेरे रंग अनुभव के 50 वर्ष –12,13

इस समय तक मुझे नाटक की लत लग चुकी थी, फिर भी मैं कई बार काबू के बाहर हो जाता था। मुझे कन्ट्रोल करना मुश्किल हो जाया करता था। यह निर्णय मीटिंग में लिये जाने के पीछे मुझे कन्ट्रोल करने की एक साजिश भी थी, ताकि मुझे जिम्मेदारी का एहसास हो और मै विध्वंसक गतिविधियों से अपने आपको दूर कर सकूं। मैंने यह कठिन भार लेने से पहले तो साफ मना कर दिया, पर जब सभी ने कहा कि यदि तुम यह कार्य नहीं करोगे तो नाटक में भी अभिनय नहीं कर पाओगे। काफी अकड़-बकड़ दिखाने के बाद मैं हार गया और यह जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को तैयार हो गया। यह सब मेरे पूर्व के अभिनयों में लगातार मिल रहीं तालियों और वाह-वाही का ही परिणाम था कि मैं इस कठिन कार्य की ओर बढने को राजी हो गया था।

तो शुरु हुआ नाटक के लिये लड़की खोजो अभियान। एक तो अपनी इमेज़ ऐसी थी। किसके माँ बाप अपनी लड़की को नाटक में भेजने का रिस्क मेरे कहने पर लेते। फिर मुझे उस समय तक ठीक से बात करने की तमीज़ भी नही थी। तो समस्या यह थी कि मैं लड़की के माँ-बाप से बात कैसे करूं? इस समस्या को मैंने स्वीकारा और अपनी टीम के सामने स्पष्ट कर दिया। सभी ने इस ओर मेरी सहायता करना प्रारम्भ की और मेरी ट्रेनिंग शुरू हो गई। जिसमें अश्वनी शर्मा (गायिका ममता शर्मा के पिता, जो उस समय अविवाहित थे) ने मेरा भरपूर साथ दिया। 10-15 दिन की ट्रेनिंग के बाद मैं लड़की खोजो अभियान पर निकल गया।

मंघाराम की शान में कुछ शब्द

मेरे कुछ मित्रों की चाह है कि मैं जे बी मंघाराम के विषय में और जानकारी दूं। तो उस समय ग्वालियर की तीन ही शान हुआ करतीं थीं- पहला सिंधिया परिवार, दूसरा ग्वालियर रेयन और तीसरा जे बी मंघाराम। जे बी मंघाराम बिस्कुट्स और गोलियाँ बनाती थी। खाने की मीठी गोलियों पर जीबी लिखा होता था और बिस्कुटस् पर मंघाराम लिखा होता था।

मंघाराम परिवार 1940 में ग्वालियर आकर बसा था और 1951 में इन्होंने फैक्टरी शुरू की। ग्वालियर में जो सिन्धी लोग आ कर बसे वो जेबी मंघाराम के कारण बसे थे। मंघाराम सिन्धी थे और अपनी कम्युनिटी को साथ लेकर आये थे, जिनमें से अधिकतर जे बी मंघाराम के कर्मचारी थे। वाकई में इस कम्पनी की स्थापना 1919 में वर्तमान के पाकिस्तान के शुक्कूर शहर में हुई थी। यह तब ग्लूकोज बिस्कुट्स ब्रिटिश सैनिकों के लिये बनाया करती थी और 1937 से इसने बच्चों के लिये वैफर्स बनाना प्रारम्भ कर दिया था। यह फैक्टरी पाकिस्तान में वर्तमान में भी है जो याकूब बिस्कुट्स बनाती है पर अब मंघाराम ग्रुप पर इस का कोई हक नहीं है। बंटवारे के बाद पाकिस्तान ने इसे हथिया लिया था।

एक बात विशेष है कि जेबी मंघाराम सिन्धी मालिकाना हक वाली विश्व की दूसरी सबसे बड़ी कम्पनी थी। पहली कम्पनी मोटवानी शिकागो रेडियो थी। मंघाराम भारतीय संस्कृति को बनाये रखने के लिये अपने टिन्स के ऊपर राधा कृष्ण की तस्वीरों के अलावा मक्खन खाते कन्हैया, मुरली बजाते कन्हैया, गोवर्धन उठाये कन्हैया की छाप लगाया करते थे। 1969-77 और 1983 में इस कम्पनी का कायाकल्प किया गया और जे बी मंघाराम कम्पनी ब्रिटानिया कम्पनी का हिस्सा बन गई। एक बात और कि जे बी मंघाराम कम्पनी, बम्बई के विलेपार्ले में स्थित पार्ले जी से भी 10 साल पुरानी कम्पनी है।

जिस भी व्यक्ति से अपनी बात कहता या तो वो हंस देता या फिर समझाने लगता कि मैं किन चक्करों में फंस रहा हूँ। पर मैंने हिम्मत नहीं हारी और निर्णय लिया कि लड़कों से बात करने से अच्छा है अंकल-आन्टियों के पास चलूं और यह सिलसिला शुरू कर दिया। पर इमेज यहां भी आड़े आती रही। जिसके भी घर जाता वो बेचारे सहम से जाते और मेरी हाँ में हाँ मिलाने लगते। पर अपनी लड़की के लिये कोई न कोई बहाना बना कर मुझे चलता कर देते। मैं दिल ही दिल अपनी भूल मान कर टका सा मुँह लिये वापस दूसरा ठिकाना ढूँढता।

इसी तरह लगभग दो माह गुजर गये और मैं खाली हाथ ही रहा। उधर सभी ठाने बेठे थे कि जब तक मैं महिला पात्र का इन्तज़ाम नहीं करुँगा, तब तक नाटक शुरू नहीं होगा। मेरी बेचैनी दिन पर दिन बढती ही जा रही थी, कि एक दिन मैं अपने दूसरे ग्रुप से मिलने ग्वालियर की रेलवे कॉलोनी पहुँचा। अपने अभिन्न मित्र जगदीश तिवारी से अपने दिल का रोना रोया। जगदीश पहले तो बहुत हँसा फिर उसने भी मुझे समझाना शुरू कर दिया कि मैं किन नचकैयों की टीम में शामिल हो गया हूँ। उसने मेरे सब्र की इन्तहां तक मुझे जलील भी किया।

मैं चुपचाप सब सुनता रहा, पर आखिर में उसे मुझ पर दया आ ही गई। उसने एक क्वाटर की ओर इशारा किया और बोला इसमें एक लड़की रहती है, जिसका नाम सरोज शर्मा है। रेलवे कॉलोनी गर्ल्स स्कूल की दसवीं कक्षा में पढती है और स्कूल के विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ-चढ कर हिस्सा लेती है। अच्छी डान्सर है,चाहो तो इससे बात करो। पर तुम्हें अकेले ही जाना होगा। क्योंकि उसकी माँ बहुत खडूस है। जगदीश की सलाह मान कर मैं बहुत उत्साहित हुआ, एक बार क्वाटर को गोर से देखा, और मेरे कदम अपने आप सरोज शर्मा के उस क्वाटर की ओर बढ गये।


अनिल तिवारी। आगरा उत्तर प्रदेश के मूल निवासी। फिलहाल ग्वालियर में निवास। राष्ट्रीय नाट्य परिषद में संरक्षक। राजा मानसिंह तोमर संगीत व कला विश्वविद्यालय में एचओडी रहे। आपका जीवन रंगकर्म को समर्पित रहा।


One thought on “लड़की खोजो अभियान में दर-दर भटका रंगकर्मी

  1. आधी शताब्दी बीत गई। मैअपने ही गांव की घटना बताता हूं। हमारे गाव मे एक नाटक का मंचन हो रहा था। गांव के रिश्ते मे एट बडे भाई थे। नाटक मे महिला की भूमिका में एक दृश्य के दौरान मंच पर आए। उनके पिता जी भी संयोग से दर्शट दीर्घा मे बैठे थे। दो बडा शामियाना भरा हुआ था। बाहर भी लोगखडे या बैठे थे। अपने बेटे को महिला की भूमिका मे मंच पर देख हमारे वे चाचाश्री आगबबूला हो गये। खडे होकर बेटे को गलियानेलगे। कुलबोरन ,कपूत न जाने क्याक्या कहा। दर्शक वह दृश्य देख हतप्रभ हो गये। चाचा यह कहते हुए वहां सेबिन नाटक देखेचले गये कि अब तुमको घर में घुसने नहीं देंगे। लोग कहते हैं हमारे वह चाचा तब के मिडिल पास थे और धाराप्रवाह अऔग्रेजीबोलते थे।

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