कल का लम्पट सामंत कहीं आज का सम्मानित वीसी तो नहीं?

कल का लम्पट सामंत कहीं आज का सम्मानित वीसी तो नहीं?

संदीप सिंह

फ़िल्म का पहला दृश्य उत्तर भारत के सामंती गाँवों के धूल-धुसरित रास्तों पर स्मृति की दूधिया स्याही से लिखी उन अनगिनत सच्ची घटनाओं पर आधारित हैहाँ कभी कोई तबलची, ढ़ोलकी निशाना बन जाता था। बंदूक़ और रिवाल्वर की नली में नोट डालकर ‘इनाम’ देने की ठसक कितनी पुरानी है, यह बताना मुश्किल है। ज़ाहिर है यह काम बंदूक़ और रिवाल्वर के आने के बाद ही शुरू हुआ होगा। तलवार, बर्छी और भाले के ज़माने में ये ‘इनाम’ कैसे दिए जाते थे?

गोली के चौंका देने वाले एक धक्के के साथ दशक भर की जम्प लेकर हम अपने समय में आ जाते हैं। माहौल गाँवनुमा शहर का हो चुका है। जिनके रास्तों पर आजकल सरकारी योजनाओं और पंचायतों में ग़बन के पैसे से स्कोर्पियो और सफ़ारी जैसी दबंग गाड़ियाँ गर्द-ग़ुबार उड़ाते सरपट भाग रही हैं। इसमें से एक गाड़ी वीर कुबेर सिंह विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर साहब की भी है। ये उत्तर भारत में पाए जाने वाले वाइस चांसलरों की उस महान परंपरा से आते प्रतीत होते हैं जो कैंपस और शहर में पूरे लाव-लश्कर और चार-छः गनर्स के साथ चला करते हैं। वीसियों ने ऐसा करना कब से शुरू किया, यह भी जाँच का एक विषय है।

यह जानना रुचिकर होगा कि फ़िल्म का मुख्य खलपात्र एक वीसी क्यों चुना गया? ताक़तवर राजनेता, ठेकेदार, सामंत, भ्रष्ट पुलिस-प्रशासनिक अधिकारी जैसे अब तक के पके पकाए किरदार न लेकर संभवतः पहली बार किसी हिंदी फ़िल्म में एक वाइस चांसलर को ऐसा केंद्रीय खलपात्र बनाना क्या कोई इशारा नहीं करता? ‘सत्ता, जाति और विद्वता’ का जो अदृश्य त्रिशंकु फ़िल्म में झलक दिखलाकर चला जाता है, उसमें कल का लम्पट सामंत कहीं आज का सम्मानित वाइस चांसलर तो नहीं हो गया है? फ़ोन पर CM के लिए भांडगीत गाते संजय मिश्रा के चरित्र और बहुतेरी धुन में सत्ता की बाँसुरी बजाते वास्तविक वाइस चांसलरों में फ़र्क़ डिग्री और दूरी का है या कोण का?

फ़िल्म में हमारे समाज का एक सच झलकता है। यह काफ़ी बड़ा रहस्य है कि हमारा समाज इस सच को साधता कैसे है? इसी सच को एक स्तर पर यह फ़िल्म भी साधती है। समाज का यह सच कामुकता और वासना, शरीर और सेक्स की चाहतों और उलझनों को भाषा और रूपकों की लोच में ढूँढता हुआ अपना अस्तित्व तलाशता है। ज़ाहिर है अधिकांश की यह तलाश दमित ही रह जाती है। इन दमित भावनाओं में बाज़ार ढूँढने का काम दिल्ली, बम्बई, नोयडा का है जो इसे सफलतापूर्वक कर रहे हैं।

बाज़ार ढूँढने वालों ने अपना-अपना हीरामन ढूँढ लिया है और उसे एक अच्छा सा नाम दे दिया है। त्रासदी जैसा लगता है कि अब तक ‘देस’ के हीरामनों की नियति नहीं बदली है। मीठे दिल वाले ये हीरामन अब तक अपनी क़समों के साथ जी रहे हैं और नयी-नयी क़समें खा रहे हैं। इस क्रम में सबसे नयी ‘देस की क़सम’ है। दिल्ली की हाउसिंग कालोनियों के गेट पर, बड़े-बड़े मॉल्स की पार्किंग्स में चौक़ीदार की वर्दी पहने ऐसे कई हीरामन आपको मिल जाएँगे। वक़्त मिले तो उनकी अनारकलियों की कहानी सुनिएगा।

फ़िल्म में एक मिनट के लिए हादी सरमादी को देखना कितना सुखद है। जान-पहचान और सुने-सुनाए लोगों में से इस फ़िल्म में सिर्फ़ एक वही थे जिस बारे में मुझे नहीं पता था।

याद, अनुभव या अध्ययन से बनी इस कहानी में अविनाशजी 2012 के निर्भया आंदोलन की एक राजनीतिक समझ डाल दी है जिससे यह सिर्फ़ मर्द-औरत की फ़िल्म न रहकर एक बयान हो जाती है। यह बयान आज की पीढ़ी को पसंद है। फ़िल्म में एक अंश प्रतिशोध का भी है – यह होना ही बताता है कि चरित्र को अपने ‘स्व’ का भान हो चला है। ‘रंडी हो या रंडी से कम हो या बीवी – मर्ज़ी पूछ के छूना’ यह फ़िल्म का समसामयिक मैसेज है। इस मैसेज को ढेर सारे मर्द भी पसंद करेंगे क्योंकि यह ‘मर्दों’ को गाली देते हुए नहीं आता। फ़िल्म कहती हैं जहाँ वीसी और बुलबुल पांडेय जैसे लोग हैं वहीं अनवर और हीरामन जैसे लोग भी हैं। मर्दवाद में रचे-बसे हमारे समाज का आप सर्वे करा लीजिए वहाँ आपको हीरामन और अनवरों की संख्या ज़्यादा मिलेगी।

यह भी हो सकता है कि वह वाइस चांसलर भी अपने को कहीं न कहीं ‘हीरामन’ ही समझता हो! शायद यह भी सच है इन सारे हीरामनों के भीतर एक वाइस चांसलर भी बैठा है। अनारकली की गायन-कला के चलते हीरामन तिवारी उसे देवी-तुल्य मानते हैं पर यदि वह शरीर का धंधा करने वाली एक औसत गाने वाली ही होती तो क्या तब भी हीरामन का अनारकली से वही सलूक रहता? वाइस चांसलर के आख़िरी आँसू शर्म के हैं या पश्चाताप के- यह न बताकर फ़िल्म अच्छा करती है।

फ़िल्म के मैसेज को फैलाने के लिए कहानी का प्लॉट, भाषा, संगीत और अभिनय एकदम फ़िट है। मैसेज की अपनी ऑडियंस है, कहानी की अपनी, प्लॉट की अपनी, भाषा-संगीत की अपनी। एक साझी ऑडियंस भी है। कुल मिलाकर फ़िल्म एक बड़ा वृत्त बनाती है। घटनाओं का, उतार-चढ़ाव का और ऑडियंस का भी। बिहार और पूर्वांचल फ़िल्म की USP है। मालूम नहीं वहाँ पर इसका डिस्ट्रिब्यूशन कैसा है। निश्चित ही पहले प्रयास में ही ऐसा फ़िल्मी कौशल साध लेना अविनाश दास के सुचिंतित प्रयास, तैयारी और अनुभव के साथ बेहतरीन टीमवर्क और कास्टिंग का भी नतीजा है। अब इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि स्वरा बड़े-बड़े रोल के लिए तैयार हो चुकी हैं। यह फ़िल्म उनके कैरियर में हमेशा मील का पत्थर मानी जाएगी। एक बार ज़रूर देखिए।


sandeep singhसंदीप सिंह। प्रतापगढ़, उत्तरप्रदेश के निवासी। जेेएनयूएसयू के पूर्व अध्यक्ष। राजनीतिक और सामाजिक मोर्चों पर सक्रिय। संप्रति-दिल्ली में निवास।