प्रकृति से उत्पादन और भरोसे का व्रत है अक्षय नवमी

प्रकृति से उत्पादन और भरोसे का व्रत है अक्षय नवमी

ब्रहमानन्द ठाकुर

अक्षय नवमी का व्रत पौराणिक कथाओं पर आधारित है। इसकी कथा नारद मुनि शौनक ऋषि से कहते हैं। कथा की शुरुआत भगवान विष्णु की स्तुति से होती है। इस पूजा में भतुआ (सिसकोंहरा ) में सोना, चांदी या द्रव्य छिपा कर ब्राह्मणों को दान करने की परम्परा है। यह व्रत कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को किया जाता है। कथा में दो ब्राह्मण भाइयों मे से एक को यमलोक के देवता चित्रगुप्त भगवान के आदेश से स्वर्ग मिलता है और दूसरे को नरक। स्वर्ग गये भाई से वहां की अप्सराएं शादी करने के लिए व्यग्र हो जाती हैं। उसे वहां सारी सुख-सुविधाएं उपलब्ध हैं। वह चाहता है कि उसका भाई भी स्वर्ग आ जाए। कथा के अनुसार ऐसा होता भी है।

अक्षय नवमी पर विशेष

इस पर्व से जुड़ी दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार देवी महालक्ष्मी जब तीर्थ यात्रा पर निकलीं तो उनके हृदय में भगवान विष्णु और शिव की एक साथ पूजा करने की इच्छा पैदा हुई। उन्होंने सोचा कि वह कौन सी चीज है, जो भगवान विष्णु और शिव दोनों को पसंद हैं। उसे ही प्रतीक मान कर दोनों की पूजा की जाए। बहुत विचार करने पर उनके ध्यान में यह बात आई कि धात्री (आंवला ) ही ऐसा वृक्ष है जिसमें तुलसी और बेल दोनों के गुण हैं और ये विष्णु और शिव को एक समान प्रिय है। देवी लक्ष्मी ने तब आंवले के वृक्ष की पूजा की और प्रसाद ग्रहण किया। ऐसी मान्यता है कि अक्षय नवमी के दिन जो भी पुण्य और उत्तम कर्म किए जाते हैं, उसका कभी क्षय नहीं होता है। इसलिए इसे अक्षय नवमी कहा गया है। इस तिथि को पूजा, दान,यज्ञ और तप करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है। व्रत में आंवला के वृक्ष को नमन करने का भी विधान है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन आंवला के नीचे भोजन बनाकर खाने से सारे पापों का नाश हो जाता है। यह व्रत आंवले के पेड़ के नीचे किया जाता है। महिलाएं आंवले के वृक्ष में कई फेरे डाल कर धागे बांधती है। आंवले के वृक्ष के नीचे लौंग, जीरा, नारियल डालकर स्वादिष्ट खिचड़ी बनाई जाती है। अनेक जगहों पर खीर बनाकर ब्राह्मणों को भोजन कराने की भी परम्परा है। कई जगहों पर कुमारी कन्याओं को भोजन कराकर उनकी पूजा की जाती है। अक्षय नवमी के दिन सुबह से ही महिलाएं आंवले के वृक्ष के नीचे साफ-सफाई में जुट जाती हैं।बदलते समय के प्रभाव से कुष्मां में द्रव्य दान करने की परम्परा समाप्त हो चुकी है।

बिहार में हर ऋतु और माह में कोई न कोई व्रत-त्योहार होते ही रहते हैं, लेकिन कार्तिक मास में ऐसे व्रत, त्योहारों की भरमार होती है। इसके अलावा भी लोग एकादशी, चतुर्दशी, रविवार, मंगलवार, वृहस्पतिवार और शुक्रवार का व्रत रखते हैं। पौराणिक कथाओं पर आधारित व्रत-त्योहारों पर सूरज, चांद, अग्नि, जल, वृक्ष,पशु आदि प्राकृतिक उपादानों की पूजा लोग करते आ रहे हैं। क्षिति, जल,पावक,गगन,समीर से निर्मित वस्तु जगत में सिर्फ आदमी ही अपने प्राणों की रक्षा के लिए इन प्राकृतिक उपादानों की पूजा करता है। शास्त्र, पुराणों में प्राण को वायु का रूप कहा गया है। इसलिए वायु की पूजा नहीं होती है। पूजा की यह परम्परा आदिम समाज में तब शुरु हुई थी, जब पशुवत जीवन जीने वाला मानव समाज के पास न कोई भाषा थी, न ज्ञान और न भाषा के अभाव में सोंच-विचार करने की क्षमता थी। तब सूरज, चांद, सितारे , ग्रह,नक्षत्र, वर्षा,गरमी,जाड़ा ,धूप, हिमपात, बाढ,जंगली जीवों आदि से ही आदिम समाज अपना क्रिया-कलाप संचालित करता था। भाषा के अभाव में तब वह अपने विभिन्न अंगों के संचालन से ही अपने संकल्प-विकल्प और विचारों को व्यक्त करता था। प्राकृतिक उपादानों के कार्य कलाप तब उसकी समझ के परे थे। इसलिए उनके सामने नतमस्तक होने के सिवा कोई दूसरा विकल्प ही नहीं था। कालांतर में भाषा के आविष्कार के बाद सोचने, विचार करने और चिंतन- मनन का सिलसिला शुरु हुआ।
पौराणिक कथाओं पर आधारित व्रत-त्योहारों में किसी न किसी तरह का पारिलौकिण सुख प्राप्त करने की आकांक्षा होती है। लौकिक जीवन में इन व्रत-त्योहारों का रूप लगातार बदलते रहे हैं। अंध आस्था के साथ-साथ इनमें युगानुरूप विकृतियां बढ़ती जा रही हैं। स्वर्गिक सुख का संदेश अक्षय नवमी व्रत कथा में भी है। आंवले के पेड़ के नीचे इस व्रत का विधान कर एक तरह से यह भी संदेश दिया गया है कि आंवले के सेवन से स्वास्थ्य की सुरक्षा और प्राणों की रक्षा होती है। वैसे पुरुष प्रधान समाज की महिलाएं आम तौर पर संस्कारवश अपनी संतान, पति,भाई आदि के दीर्घायु होने की कामना से ही अक्षय नवमी का व्रत करती है।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।