कैसे बचाएं हम अपनी बेटियों को ?

कैसे बचाएं हम अपनी बेटियों को ?

अजीत अंजुम

बहुत हिम्मत जुटाकर आज ये लिखने बैठा हूं। अभी भी शब्द और ऊंगलियां साथ नहीं दे रही हैं। दिल्ली में दुष्कर्म की शिकार हुई सात साल और डेढ़ साल की उन मासूम बेटियों के बारे में सोचता हूं तो एक ऐसी पीड़ा के अहसास से गुजरने लगता हूं कि मेरी आंखें छलकने लगती है। खून खौलने लगता है, उन बेटियों के गुनहगारों के बारे में सोचकर। कैसे लिखूं डेढ़ साल की बेटी के साथ हुए दुष्कर्म के बारे में? कैसे लिखूं कि अ-ब-स भी नहीं समझ पाने वाली लाडो बिटिया के साथ किसी ने ऐसी हरकत कर दी कि उसके बारे में लिखना-बोलना-सुनना भी दर्द से गुजरने की तरह है। डेढ़ साल की बेटी तो अपने खिलौनों को भी ठीक से नहीं पहचानती होगी। अपने पैरों पर अभी तो उसने खड़ा होना सीखा होगा। तुतलाती आवाजों से ही तो किसी को पुकारती होगी। मम्मा…पप्पा…के अलावा तो शायद कुछ बोल भी नहीं पाती होगी .. उसके साथ कोई तैंतीस साल का आदमी ऐसी घिनौनी हरकत कैसे कर सकता है? वो मासूम तो ये भी नहीं समझ पाई होगी कि उसके साथ हुआ क्या है? वो जोर-जोर से चीखी होगी, चिल्लाई होगी, छटपटाई होगी और वो दरिंदा उस फूल सी बिटिया को .. उफ्फ…।
दिल्ली के संजय गांधी अस्पताल से इलाज के बाद डेढ़ साल की ये बेटी घर भी नहीं लौटी थी कि शनिवार को दिल्ली के ही दूसरे अस्पताल में सात साल की बेटी सामूहिक दुष्कर्म की शिकार होकर दाखिल हो गई है। अब ये भी तो नहीं लिख सकता है कि सात साल की बेटी के साथ कोई ऐसा कैसे कर सकता है। ऐसे शब्द और सवाल अब बेमानी हैं। इस समाज में हमारे आस-पास धंसे-घुसे-पैठे रेपिस्ट जब डेढ़ साल की बेटी को नहीं बख्शते तो सात साल की बेटी को कैसे छोड़ देंगे? सात साल की ये बच्ची भी तो सबको भैया, चाचा, ताऊ, अंकल की नजर से ही देखती होगी। उसे पता भी नहीं होगा कि छेड़छाड़ क्या होती है और वो दो वहशी लड़कों की हवश की शिकार हो गई। शनिवार शाम की ये घटना है। कंझावला इलाके के सवादा गांव की रहने वाली सात साल की ये बेटी अपनी बहन के साथ शौच के लिए गई थी। शौचालय के बाहर वो अपनी बहन का इंतजार कर रही थी तभी दो नाबालिग लड़के बाइक ले आए और उस बेटी को जबरन उठाकर ले गए। उसके साथ दुष्कर्म किया। लहूलुहान मासूम को सुनसान इलाके में छोड़कर फरार हो गए। अब वो बच्ची दिल्ली के अंबेडकर अस्पताल के आईसीयू में भर्ती है। घंटों इलाज के बाद अब वो होश में है लेकिन भयंकर सदमे की गिरफ्त में हैं। परिवार वाले उसके आसपास हैं। वो सिर्फ सबको देखती है। बोलती कुछ नहीं। क्या बोले वो? उसकी आंखों में सिर्फ सवाल हैं। उसके साथ उन्होंने ऐसा क्यों किया..? यही सोचती होगी वो।
सोशल मीडिया से पता चला कि दिल्ली दिल्ली महिला आयोग की मुखिया स्वाति मालीवाल सात साल की इस मासूम को देखने अस्पताल गई थीं। उन्हें उस मासूम की आंखों में छलके दर्द और सवाल को देखकर वहां से जाया नहीं गया। रात भर आईसीयू में उस बेटी का इलाज चला। स्वाति आईसीयू के बाहर उसके ठीक होने का इंतजार करती रही। स्वाति ने ट्विटर पर लिखा- ‘ मेरी जगह कोई भी बच्ची से आंख मिलाता तो उसकी हिम्मत न होती वहाँ से जाने की। हमारी बेटी के साथ हो तो क्या हमें नींद आएगी?‘. सही कहा स्वाति ने। जब मुझे अपने घर में उस बेटी के दर्द को महसूस करते हुए इतनी बेचैनी है तो उस बेटी का सामना करके कैसे कोई चैन की नींद सो सकता है।
जरा सोचिए उस बाप के बारे, उस मां के बारे में, जिनकी फूल सी गुड़िया के साथ दरिंदगी हुई है। मां-बाप भी क्यों, सोचिए उस बच्ची के बारे में.. मैं तो जितना सोच रहा हूं, उतना ही बेचैन हो रहा हूं। स्वाति मालीवाल ने कहा है कि रेप के मामलों में छह महीने के भीतर फैसला हो। रेपिस्ट के लिए सजा-ए-मौत का प्रावधान हो। तभी कुछ फर्क पड़ेगा। ऐसी बातें, ऐसी मांगें उठती रहीं हैं। निर्भया कांड या वैसी घटनाओं पर हम सब कुछ दिनों के लिए आंदोलित होते हैं। सरकारें दबाव में आती हैं, कुछ नए प्रावधानों का ऐलान हो जाता है। फिर सब सो जाते हैं। जगा रहता है तो सिर्फ वो वहशीपन, जो बेटियों को अपना शिकार समझता है।

ये कैंडिल मार्च, ये धरना-प्रदर्शन, ये बयानों का शोर सब दो-चार दिनों के होता है, बस। इससे न समाज के भीतर धंसे बैठे भेड़ियों पर कोई फर्क पड़ता है, न हमारे सड़े गले सिस्टम पर। कानून के लंबे हाथों की दुहाई अब मुहावरों के लिए ठीक हैं। मासूमों के बलात्कारियों के लिए ये हाथ जब तक फांसी के फंदे में तब्दील नहीं होंगे, तब तक हमारी बेटियां यूं ही किसी दरिंदे की शिकार होती रहेगी और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। देश के अलग -अलग हिस्सों में हर घंटे मासूम बेटियां दरिंदों का शिकार होती रहती है। किसे फर्क पड़ता है ? कानूनी शिंकंजा और सख्त हो। जांच तेजी से हो। फैसला फास्ट ट्रैक कोर्ट में हो। सजा मौत की हो। ऐसी मांगे और आवाजों हर बार उठती हैं. सत्ताधीशों के चौखट पर दम तोड़ देती है और हम सिर्फ सरकार को ही क्यों कोसें ? हमारे आसपास जो सफेदपोश दरिंदे बसते हैं, उनका क्या करें ? तमाम सर्वे और रिपोर्ट्स से हर बार ये खुलासा होता है कि अपने परिजन, पड़ोसी या परिचित का ही शिकार बनती हैं बच्चियां. कई बार तो जिस चहारदीवारी में वो सबसे महफूज हो सकती है, वहीं कोई घात लगाए बैठा होता है तो कैसे बचाएं बेटियों को ? जब भी ऐसी खबरें पढ़ता -सुनता हूं, ये सवाल मुझे बहुत मथता है. मैं भी एक बेटी का बाप हूं। उसकी तरफ लाड़ से देखते हुए उस पर फिदा होने का जी चाहता है। हर मां-बाप ऐसे ही अपनी बेटियों को देखते होंगे। कैसे बचाएं हम अपनी बेटियों को ?

निर्भया की घटना पर तो महीनों तक हंगामा मचा। सुर्खियां बनी, सिस्टम थोड़ा हिला भी, लेकिन देश के हर हिस्से में हर रोज शिकार होती बेटियों की दर्दनाक दास्तां तो हम तक और आप तक पहुंचती भी नहीं। नक्कारखाने में तूती की आवाज भी नहीं बनती उनके घर वालों की चीख। तो फिर कैसे बचाएं अपनी बेटियां? न वहां कैमरे पहुचते हैं, न रिपोर्टर, न नेता, न कोई स्वाति मालीवाल। वो तो कभी अपनी बेटी को देखते होंगे तो कभी अपनी किस्मत को रोते होंगे… कैसे बचाएं अपनी बेटियां। जरा सोचिएगा।


10570352_972098456134317_864997504139333871_nअजीत अंजुम। बिहार के बेगुसराय जिले के निवासी। पत्रकारिता जगत में अपने अल्हड़, फक्कड़ मिजाजी के साथ बड़े मीडिया हाउसेज के महारथी। बीएजी फिल्म के साथ लंबा नाता। स्टार न्यूज़ के लिए सनसनी और पोलखोल जैसे कार्यक्रमों के सूत्रधार। आज तक में छोटी सी पारी के बाद न्यूज़ 24 लॉन्च करने का श्रेय। इंडिया टीवी के पूर्व मैनेजिंग एडिटर।

One thought on “कैसे बचाएं हम अपनी बेटियों को ?

  1. अजीत अंजूम जी की यह रिपोर्ट विचलित कर गया और यह सोंचने के लिए बाध्य भी कि आखिर ये स्थितिययां पैदा क्यों हुई। क्यों आज का आदमी जानवर भन गया। ? जानवर ! नहीं , ऐसा कहकर जानवरों की तौहिनी करना है। एक समय था , जब हमारे गाऔव मे हर किसी की बेटिया हमारी बहन , बुआ होती थी। महिलाएं चाची , दादी ,भाभी। ये रिश्ते इतने प्यगाढ थे कि इनके बारे मे ऐसा वैसा सोंचना भी मुश्किल था। और आज ! हमारी बेटियां, बहने , माताएं सडकों , गलियों ,बाजारों की कौन कहे , घरो में भी महफूज नहीं रहीं। कानून तो बना हुआ ही है। यदा कदा वह काम भी कर लेता हैः आजन्म कारावास ,फांसी भी होती है दरिंदों को । मगर घटनाएं रूकती कहां है ? एसू घटनाओं की जड हमारी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में निहित है जो बेरोक टोक इंसान को हैवान बनाने पर तुली हुई है। इससे निजात पाना है तो पूंजीवाद के विरुद्ध जनान्दोलन तेज करना होगा।

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