‘अंतरात्मा की पीड़ित विवेक-चेतना’ के कवि को अलविदा

‘अंतरात्मा की पीड़ित विवेक-चेतना’ के कवि को अलविदा

उदय प्रकाश

‘आत्मजयी’ वह कविता संग्रह था, जिसके द्वारा मैं कुंवर नारायण जी की कविताओं के संपर्क में आया. तब मैं गाँव में था और स्कूल में पढ़ता था. ‘आत्मजयी’ की कविताओं ने उस बचपन में मृत्यु और अमरता से जुड़ी अबोध और अब तक बहुत उलझी हुई जिज्ञासाओं को जानने के लिए ‘कठोपनिषद’ पढ़ने की प्रेरणा दी. वे कवितायें एक ही भाषिक सतह पर दैनिक और दार्शनिक, वास्तविक और परि-कल्पित दोनों ही स्तरों पर सक्रिय रहती थीं.  इसके बाद तो उनके अन्य संग्रह पढ़ता गया.

और उनकी कहानियां ? वे अपनी तरह के अलग कथाकार थेरघुवीर सहाय, अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा, मुक्तिबोध, प्रसाद, निराला की कहानियों की तरह गहरे काव्यात्मक अवबोधों और अनुभवों से संपन्न कहानियां. ऐसी कहानियां हिंदी के कथा-साहित्य की अब तक उपेक्षित बहुमूल्य सम्पदाएं हैं. उनका गहरा आलोचनात्मक मूल्यांकन और उनकी प्रतिष्ठा होनी चाहिए. 

उनके विचार और चिंतन. कहीं कोई जड़ता और अतीतोन्मुख मतान्धता नहीं. आधुनिकता , तर्कशीलता और उदार प्रगतिकामी विचारों को वे निरंतर अपने समय-समय पर लिखे गए निबंधों और साक्षात्कारों में व्यक्त करते रहे.
बचपन में जब गाँव में था तब कभी सोचा भी नहीं था कि उनसे कभी मिलना भी होगा। लेकिन वह भी हुआ और वे अपनी कविताओं और विचारों की तरह ही शालीन पारदर्शिता के साथ, एक गहरी स्नेहिल विनम्रता के साथ मिले. सम्भवत: जब १९८१-८२ में ‘पूर्वग्रह’ के सह-सम्पादन से जुड़ा था, तब उनका एक साक्षात्कार लिया, डा. नामवर सिंह जी और नेमिचंद जैन जी के साथ. मुझे आज भी लगता है कि वह एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार है. 

उनकी उपस्थिति का बोध हमेशा रहा करता था. कुछ साल पहले जब ‘मोहन दास’ फिल्म का ओसियान में प्रीमियर हुआ तो जनसत्ता में कुंवर नारायण जी ने ही तुरंत उसकी समीक्षा की. वह समीक्षा इसलिए हमेशा के लिए मेरी स्मृतियों में दर्ज रह गयी है कि उसमें कुंवरनारायण जी ने पूछा था कि कहीं उदय प्रकाश के साथ वही तो नहीं किया जा रहा है, जो मोहन दास के साथ हुआ। इसी तरह ‘उर्वर प्रदेश’ में मैंने अपनी कविताओं के बारे में जो एक छोटा-सा नोट लिखा था , उसके एक अंश को उन्होंने आधार बनाकर अपनी टिप्पणी लिखी।  ‘कविता अपने लिए प्राचीन अर्थों में नैतिकता की मांग करती है’ – यही वह अंश था, जो स्वयं उनके जीवन और उनकी रचनाओं पर लागू होता है। मुक्तिबोध ने उन्हें ‘अंतरात्मा की पीड़ित विवेक-चेतना और जीवन की आलोचना’ का कवि कहा था.

इधर कुछ दिनों से उनके अस्वस्थ होने की ख़बरें मिल रहीं थीं। सोच रखा था कि इस बार जनवरी में यूरोप से लौट कर नए साल २०१८ में उनसे मिलूंगा, तब तक वे स्वस्थ हो चुके होंगे। ऐसा नहीं हुआ।  मैं इस समय जर्मनी में हूँ कल जेनेवा चला जाऊँगा लेकिन इतनी दूरी से भी उनकी अचानक अनुपस्थिति का आघात अपने भीतर अनुभव होता है। वह दर्द देता है और कुछ और अकेला कर जाता है।
उन्हें प्रणाम।
श्रद्धांजलि।