हाईब्रिड से पैदावार बढ़ी, लेकिन जमीन की उर्वरता पर असर

हाईब्रिड से पैदावार बढ़ी, लेकिन जमीन की उर्वरता पर असर

ब्रह्मानन्द ठाकुर

21वीं सदी का हिंदुस्तान तेजी से आगे बढ़ रहा है, लेकिन देश का किसान इस रेस में पिछड़ता जा रहा है यही नहीं किसानों के साथ-साथ जमीन की उर्वरा शक्ति भी दम तोड़ती जा रही है और इन सबके पीछे कहीं ना कहीं हाईब्रिड बीज की निर्भरता बड़ी वजह है । हमारे देश के किसान पहले परम्परागत बीजों से खेती करते थे जिसके लिए मामूली खाद और सिंचाई की जरूरत होती थी। बीज के मामले में किसान पूरी तरह से आत्म निर्भर थे। विशेष परिस्थिति में बीज एवं अन्य जरूरी कृषि उपादानों की व्यवस्था वे आपसी सहयोग से भी कर लेते थे। तब उन्हें अपनी कृषि की जरूरतों के लिए औद्योगिक संस्थानों के पास जाना नहीं पडता था। परम्परागत तरीके वाली खेती से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को मुनाफा कमाने की गुंजाइश नहीं थी। हरित क्रांति ने परम्परागत बीजों से खेती की जगह हाइब्रिड बीज से खेती को प्रोत्साहित किया। ऐसे बीजों से प्रति एकड उपज में जो आशातीत वृद्धि हुई उसने किसानों को हाइब्रिड तकनीक के प्रति आकर्षित किया। देखते-देखते किसान खेती के लिए हाइब्रिड बीज पर पूरी तरह से निर्भर हो गये जिसका खामियाजा आज देश को उठाना भी पड़ रहा है ।
हाईब्रिड बीज की शुरुआत देश में सबसे पहले 1965-70 के आसपास मक्के की फसल से की गई । इससे पहले मक्के की खेती खरीफ मौसम में ही की जाती थी।इस नई तकनीक ने शरतकालीन मक्के की शुरुआत की। उपज में आशातीत वृद्धि ( प्रति एकड़ करीब 20 से 22 क्विनटल ) होने से किसानों का झुकाव इस ओर बडी तेजी से बढ़ा। साल में मक्का की दो-दो फसले उगाई जाने लगी। शुरुआत में कुछ स्थानीय बड़े फार्मों में हाइब्रिड मक्के का बीज उत्पादन किया जाने लगा। देखते देखते बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने इस क्षेत्र में अपना पांव जमा लिया। आज हाल यह है कि बिहार में संकर मक्के की खेती पूरी तरह से इन्हीं विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उत्पादित बीज पर निर्भर हो चुकी है। इस बारे में जब मुजफ्फरपुर के लोहसरी गांव के प्रगतिशील किसान नीरज नयन से बातें की तो उन्होंने जो जानकारी दी वह हैरान करने वाली रही । नीरज नयन पिछले 17 सालों से बड़े पैमाने पर मक्के की खेती कर रहे हैं। बोचहा प्रखंड का लोहसरी इलाका संकर मक्के का हब माना जाता है।

नीरज नयन बताते हैं कि संकर मक्के की खेती पूरी तरह से डीकाल्व मानसेन्टो, पायोनियर, वायोसीड, राशि आदि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उत्पादित बीज पर निर्भर है। इन कम्पनियों का मक्का बीज 1600 से 1800 रूपये प्रति पैकेट ( वजन 4.5 किलोग्राम ) की दर से मिलता है। अब तो ये कम्पनियां मक्के के एक-एक दाने का मूल्य वसूल रही है। साढे चार किलो के एक पैकेट में 16 हजार दाने होते हैं। एक एकड़ में 32 हजार पौधे लगाने की अनुशंसा कम्पनी करती है। इस प्रकार कम्पनी किसानों से एक-एक दाने का मूल्य वसूल लेती है। जब कोई खास प्रभेद किसानो में काफी लोकप्रिय हो जाता है तब बाजार में उसका कृत्रिम अभाव पैदा कर मनमाना मूल्य वसूला जाता है। इस पर न तो राज्य सरकार का नियंत्रण है न केन्द्र सरकार का। विडम्बना तो इस बात की है कि हमारे देश के कृषि वैज्ञानिकों ने अभी तक इन बहुराष्ट्रीय कम्पनी के टक्कर का मक्का बीज का अनुसंधान ही नहीं किया है अगर किया भी होगा तो वो अभी तक लोकप्रिय नहीं हुआ। अगर ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां बीजों की आपूर्ति किसी कारण से बंद कर दें तो अपने देश के कृषि की रीढ ही टूट टूट सकती है ।
वैसे मक्का ही नहीं धान, गेहू समेत अन्य फसलों में भी हाइब्रिड बीज की लोकप्रियता किसानो में बड़ी तेजी से बढ़ी है। इसकी कीमत स्थानीय बीजों की तुलना में काफी अधिक होती है। हाइब्रिड धान का बीज तो इस साल तीन से साढे तीन सौ रूपये किलो की दर से किसानों को उपलब्ध हुआ। केवल खाद्यान्न ही नहीं, इन बीज उत्पादक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने विभिन्न सब्जियों और फलों जैसे कद्दू, करैला, टमाटर,फूलगोभी, पपीते का हाइब्रिड प्रभेद विकसित किया है। जाहिर है कि ऐसे बीज परम्परागत बीजों की तुलना में अधिक महंगे होते हैं। उपज तो इनकी अधिक होती है लेकिन इस अधिक उपज के लिए ऐसी फसलें मिट्टी से ज्यादा पोषक तत्व ग्रहण करती हैं। उर्वरक, कीटनाशक और सिंचाई की भी ज्यादा जरूरत होती है।
इससे उत्पादन लागत तो बढ़ता ही है, टिकाउ खेती पर संकट भी गहराने लगा है । हाइब्रिड तकनीक अपनाने से प्रति एकड़ उत्पादकता में भी लगातार कमी होती जा रही है। दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हाइब्रिड खेती ने विभिन्न कृषि इनपुट जैसे उर्वरक, कीटनाशक, तृण नाशक और अधिक मात्रा मंी पानी के लिए किसानों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का गुलाम बना दिया है।

आंकड़े बताते हैं कि आज से 30-35 साल पहले जहां हजारों कम्पनियां बीज उत्पादन करती थीं, आज दुनिया के चोटी की मात्र 10 कम्पनियों का कुल बीज उत्पादन के 67 फीसदी पर कब्जा है। इसी प्रकार शीर्ष 10 कम्पनियां कीटनाशकों के 90 प्रतिशत कारोबार पर नियंत्रण रखे हुए हैं। कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि जैसे-जैसे वाणिज्यिक बीज प्रणाली का आधिपत्य बढ़ रहा है, कृषि जैव विविधता खतरे में पड़ती जा रही है। इसका खामियाजा विकासशील देशों को भुगतना पड़ रहा है। बहुराष्ट्रीय कम्निपयों द्वारा जो बीज उत्पादित किया जाता है वह बड़े किसानों की जरूरत पर आधारित होता है। जबकि फसल से करोड़ो लघु और सीमांत किसानों की आजीविका जुड़ी होती है। आज ऐसे किसानों को भी इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से बीज खरीदने की बाध्यता है।

आजादी के बाद 1950 -51 में भारतीय किसान मात्र 7 लाख टन रासायनिक खाद का इस्तेमाल करते थे, आज यह मात्रा बढ़ कर 240 लाख टन हो गई है। इससे पैदावार तो बढ़ी लेकिन जमीन और पर्यावरण को काफी नुकसान उठाना पड़ा। कुछ समय पहले इन्स्टीच्युट आफ एग्रिकल्चर, पश्चिम बंगाल के कृषि वेज्ञानिक डा. बीसी राय, डा.जीएन चट्टोपाध्याय और इंग्लैंड के कृषि वैज्ञानिक डा.आर टिराडो ने रासायनिट उर्वरकों के दुष्प्रभावों का देशव्यापी अध्ययन किया था। उसमें पाया गया कि रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मिट्टी क्षारीय हो रही है और उपज लगातार घटती जा रही है। आज देश की 54 प्रतिशत मिट्टी अनुर्वर हो गई है। यूरिया और डीएपी के असंतुलित व्यवहार करने से मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म पोषक तत्वो जिंक, बोरान, लोहा, ताम्बा आदि का ह्रास हुआ है जिसकी पूर्ति अलग से करनी पड़ रही है। इससे फसल का उत्पादन लागत बढ़ी है। इससे काफी पहले 80 के दशक में राजेन्द्र कृषि विश्व विद्यालय के तत्कालीन निदेशक अनुसंधान, डाक्टर एके श्रीवास्तव ने एक सेमिनार के दौरान किसान को आगाह करते हुए कहा था कि- कृषि में हाइब्रिड तकनीक का इस्तेमाल भविष्य के लिए नुकसानदेह साबित होगा। यह तकनीक अत्याधिक रासायनिक उर्वरकों ,कीटनाशकों के इस्तेमाल और सिंचाई पर निर्भर है जिससे पर्यावरण, प्रदूषण और भूगर्भ जलस्रोतों के अविवेकपूर्ण दोहन से भारी समस्या पैदा होगी। करीब 37 साल पहले एके श्रीवास्वत की आशंका आज सही साबित हो रही है । पर्यावरण प्रदूषण का एक कारण जहरीले कीटनाशक- खरपतवार नाशक का इस्तेमाल भी है।
इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने पिछले कुछ सालों से जैविक खेती को प्रोत्साहित करने की योजना शुरू की है। यह रास्ता भी अब उतना आसान नहीं रहा। कृषि विशेषज्ञ मानते हैं कि रासायनिक खेती से जैविक खेती में पूरी तरह भूमि को परिवर्तित करने में 4 से 5 साल लगेंगे क्योंकि जैविक खाद धीरे- धीरे असर करता है। प्रारम्भ मे 2-3 साल तक जैविक पद्धति से खेती करने में उपज में 25 से 30 प्रतिशत तक कमी हो सकती है। किसान ऐसा जोखिम उठाने को फिलहाल तैयार नही हैं। परिणाम स्वरूप जैविक खेती के सरकारी अभियान को अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है। किसान हाइब्रिड तकनीक अपनाकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की जाल में बुरी तरह से फंस कर कंगाल होते जा रहे हैं।
आलम ये है कि हाईब्रिड की वजह से किसानों को कीटनाशकों पर निर्भरता बढ़ गई और जो जमीन के साथ फसलों इंसानों को भी बीमार करने लगा है । रासायनिक खादों से पैदा होने वाला अनाज आज दूषित होता जा रहा है जिससे कई बीमारियां पैदा हो रही है । शायद यही वजह है कि सरकार एक बार फिर जैविक खेती को बढ़ावा देने में जुटी है ।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।