मजदूरों की क्रांति से बदला रूस का इतिहास

मजदूरों की क्रांति से बदला रूस का इतिहास

फोटो- साभार विकीपीडिया

ब्रह्मानंद ठाकुर

नवंबर क्रांति के पहले अंक में आप ने पढ़ा कि कैसे फरवरी 1917 से लेकर नवंबर 1917 के बीच रूस में किसानों और मजदूरों की एकता ने एक ऐसे आंदोलन को जन्म दिया, जिसने रूस का इतिहास बदलकर रख दिया। यह समाजवाद की क्रांति थी। पहली बार ऐसा हुआ था जब किसी देश में किसान और मजदूर वर्ग अपने हक के लिए एक साथ एक मंच पर आया और उसने निरंकुश सत्ता को उखाड़ फेंका और रूस में समाजवादी सरकार का गठन हुआ। समाजवादी सरकार के गठन से कई बड़े बदलाव हुए तो आगे निरंकुशता के लक्षण भी नजर आने लगे। हम इन सभी पहलुओं से आपको रूबरू कराने की कोशिश करेंगे, लेकिन आज के अंक में बात रूस में समाजवाद के उदय के साथ आई चुनौतियों की।

नवंबर क्रांति के 100 बरस- दो

नवंबर क्रांति के बाद करेन्सकी के नेतृत्व वाली पूंजीवादी सरकार को हटाकर रूस में समाजवादी व्यवस्था का गठन हुआ। पेत्रोगाद में क्रांति की जीत होने के बाबजूद तबतक रूस में सारी जगहों पर सत्ता सोवियतों के कब्जे में नहीं आयी थी। शुरुआती दिनों में पेत्रोगाद समेत कुछ दूसरे इलाके में सोवियत सत्ता को उखाड़ फेंकने का प्रयास किया गया। करेन्सकी के इशारे पर सेनापति क्रासनोव ने विद्रोह कर दिया। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने सफलता पूर्वक इस विद्रोह का सामने किया और कुचल दिया।

पूंजीवादी सरकार के खात्मे के साथ ही 8 नवंबर 1917 को रूस की नई समाजवादी सरकार ने सोवियतों की दूसरी कांग्रेस में दो आज्ञा पत्र जारी किया। जिसमें पहला था शांति का आज्ञा पत्र और दूसरा था भूमि सम्बंधी आज्ञा पत्र। नई बोल्शेविक सरकार ने साम्राज्यवादी युद्ध से बाहर निकल कर युद्ध में बर्बाद हो चुके रूस में शांति स्थापित करने का काम शुरू कर दिया। भू-स्वामियों से जमीन छीन कर किसानों को दिया जाने लगा। लेनिन ने घोषणा कहा कि अब किसानों के कब्जे से जमीन छीनने की जुर्रत कोई नहीं कर सकेगा।

8 नवम्बर,1917 को शांति का आज्ञा पत्र तो जारी कर दिया गया लेकिन युद्ध पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ। इस लड़ाई में टिके रहने के लिए बोल्शेविको को तत्काल युद्ध से बाहर आने की जरूरत थी। 24 जनवरी 1918 को बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की बैठक में लेनिन ने कहा कि युद्ध में हमारी फौज थक कर चूर-चूर हो गई है। वाल्टिक द्वीप में जर्मनी ऐसी सुविधाजनक स्थिति में खड़ा है कि अगर वह हमला कर दें तो वे बड़ी आसानी से (निहत्थे भी) रेवेल और पेत्रोग्राद पर कब्जा कर सकता है। इस स्थिति में युद्ध जारी रखने का परिणाम होगा जर्मन साम्राज्यवाद को मजबूत करना। उन्होंने नारा दिया- ‘एक कदम आगे, दो कदम पीछे।’ लेनिन मानते थे कि शांति स्थापित करने में यदि थोड़ी भी देर हुई तो रूस को बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। तब किसान और मजदूर सभी बोल्शेविक पार्टी का समर्थन कर रहे थे। लेनिन को इस बात की भी आशंका थी कि यदि अगर युद्ध चलता रहा तो वे सभी भी उनका साथ छोड़ सकते हैं। इसलिए अपने आपको मजबूत करने के लिए युद्ध से कुछ मोहलत जरूरी है। हालांकि लेनिन के शांति संबंधी इस विचार से त्रात्सकी, बुखारिन, रादेक और पियाताकोव जैसे नेता पूरी तरह से असहमत थे। वे सभी युद्ध जारी रखने के पक्ष में थे। लेनिन ने समझा कि ये नेता जाने-अनजाने जर्मन साम्राज्यवाद को ही मजबूत करना चाहते हैं। जाहिर है कि जिस नवोदित सोवियत की उस समय कोई खास फौजी ताकत नहीं थी, उसे युद्ध में झोंक देना बड़ा ही नुकसान देह कदम साबित हो सकता था। लेनिन इस स्थिति को अच्छी तरह समझ रहे थे।

लेनिन ने 10 फरवरी, 1918 को पार्टी की केन्द्रीय कमेटी के नाम एक संदेश भेजकर जर्मनी से शांति संधि करने का निर्देश दिया। ब्रेस्ट लिटोवस्ट में पार्टी के प्रतिनिधि दल के नेता थे त्रात्सकी। उन्होंने इस संधि को नामंजूर करते हुए जर्मनी को बता दिया कि रूस उनकी शर्तें नहीं मानता है और वह युद्ध भी नहीं चाहता है । इस तरह त्रात्सकी ने रूस के नवजात समाजवाद को जर्मन साम्राज्यवाद के मुंह में झोंक दिया। संधि वार्ता टूटने के बाद जर्मनी ने 18 फरवरी को फिर रूस पर हमला कर दिया। उसने पेसकोव और मिन्स्क पर कब्जा कर लिया। जिसके बाद रूस में समाजवाद को बचाने के लिए जर्मनी की शर्तों को मानने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचा । युद्ध खत्म करने के लिए रूस को अपने सबसे विकसित प्रांतों का 3 लाख वर्ग किलोमीटर का इलाका जर्मनी को देना पड़ा । इसके अलावा 73 फीसदी लौह सम्पदा, 59 प्रतिशत कोयला, 1000 इंजीनियरिंग कारखाने, 900 कपड़ा मिलें जर्मनी को देनी पड़ी । 3 मार्च 1918 को यह संधि हुई। इस पर लेनिन ने बड़े दुखी मन से कहा था- ‘संधि की शर्तें बड़ी कड़ी हैं, असह्य हैं, फिर भी इतिहास अपने हक की मांग करेगा। आइए हम संगठन के काम में मन लगाएं। भविष्य हमारा ही है। ‘

फोटो साभार- फाइन आर्ट ऑफ अमेरिका

सही मायने में देखा जाए तो भविष्य सोवियत संघ का ही हुआ। 1939 से 1945 का दौर द्वितीय विश्व युद्ध का दौर था। हिटलर ने पहले रूस पर आक्रमण नहीं किया था। उसने रूस के साथ अनाक्रमण संधि भी की। स्टालिन हिटलर के छिपे इरादे को अच्छी तरह से समझ रहे थे। अनाक्रमण संधि के बाद के ढाई-तीन बरस में महान स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत रूस ने काफी शक्ति संचय कर ली। सामरिक रूप से भी वह काफी ताकतवर हो चुका था। रूस ने तब फ्रांस, इंग्लैंड और अमरीका से जर्मनी के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाने का प्रस्ताव दिया ताकि हिटलर को रोका जा सके। स्टालिन ने कहा था कि ‘’जनवाद की रक्षा और मुक्ति संग्राम की सफलता के लिए ऐसा करना जरूरी है।‘’ तब उन देशों ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। 22 जून, 1941 को जर्मनी ने अनाक्रमण संधि तोड़ते हुए रूस पर हमला कर दिया। हमले के शुरुआती दौर में जर्मन फौज ने भारी सफलता प्राप्त कर ली। उसने सोवियत संघ के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों ने यह मान लिया कि हिटलर की फौज सोवियत संघ को नेश्तनाबुत कर देगी ।

युद्ध शुरू होने के 12 दिन बाद 3 जुलाई, 1941को स्टालिन का रेडियो पर राष्ट्र के नाम पहला संदेश प्रसारित हुआ। उसमें स्टालिन ने सोवियत संघ की जनता से अपनी जान की बाजी लगाकर अपने देश, अपनी इज्जत, अपनी आजादी की रक्षा करने का आह्वान किया। नतीजा ये हुआ कि रूस की जनता ने युद्ध में अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया। भयंकर खाद्य संकट के बाबजूद लेनिनग्राद का कोई भी खाद्य भंडार लूटा नहीं गया। लेखकों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों ने भी इस मुक्तियुद्ध में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक हजार से ज्यादा सोवियत लेखक फौज में शामिल हुए, जिसमें 275 शहीद हो गये। इस लडाई के शुरूआत में सोवियत रूस की लाल फौज हारती हुई पीछे हटने लगी, लेकिन इस हार में भी एक रणनीति के तहत हिटलर की फौज को भारी क्षति उठानी पड़ रही थी। अंत मे स्टालिनग्राद की लड़ाई ने युद्ध का मोड़ ही बदल दिया। जर्मन फौज पीछे हटने लगी। हालात यह हो गया कि जिन प्रांतों को जर्मनी ने जीत लिया था, उसे भी छोडकर पीछे हटना पडा। 9 मई, 1945 को इस लाल फौज के हाथों बर्लिन का पतन हो गया। लेनिन का सपना सच हुआ और फासीवाद को परास्त कर सोवियत समाजवाद ने मानव सभ्यता की रक्षा की।

हालांकि इस लड़ाई में रूसी जनता को भारी कीमत चुकानी पड़ी। इस युद्ध में रूस के 2 करोड़ लोग मारे गये। 1710 शहर तबाह हो गये, 70 हजार से ज्यादा गांव उजड़ गये। 2 करोड़ 50 लाख लोग बेघर हो गये। 31 हजार 850 कल-कारखाने ध्वस्त हो गये। 65 हजार किमीं रेल लाईन टूट गयी। 4,100 रेलवे स्टेशन, 98 हजार सामूहिक फार्म, 1876 राजकीय फार्म, 2821 मशीन-ट्रैक्टर धराशायी हो गये। 70 लाख घोड़े और करोड़ों पालतू पशुओं को जर्मनी हांक ले जाया गया। बड़ी संख्या मे पार्टी के काबिल कार्यकर्ता मारे गये। इस तरह 1918 में हुई लज्जाजनक संधि के कारण जर्मनी को रूस ने ब्रेस्ट लिटोवस्क का जो इलाका सौप दिया था उसे वापस लेकर समाजवादी रूस ने अपने नेता स्टालिन के नेतृत्व में लेनिन का सपना सच कर दिखाया।

अगले अंक में महान नवम्बर क्रांति के बाद सोवियत रूस में कृषि और किसानों की दशा में हुए परिवर्तन पर बात होगी, जिसने पूरी दुनिया को एक नई दिशा दी ।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।