सिमटती खेती, बढ़ती परेशानियां

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सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

दोआबा… यानि दो बहते दरिया के बीच का इलाक़ा। यह ‘दो’ और ‘आब’ शब्दों के जोड़ से बना है। आब फारसी का लफ्ज़ है जिसका मतलब है पानी। दुनियाँ में कई इलाक़े हैं जिन्हें दोआब कहा जाता है लेकिन हिंदुस्तान में गंगा और जमुना नदी के बीच पड़ने वाले इलाक़े को इस नाम से पुकारा जाता है। गंगा-जमुना का दोआब उत्तराखंड से शुरू होता है और इलाहाबाद तक फैला है। उत्तराखंड के हरिद्वार जैसे मैदानी ज़िले के अलावा इस दोआब में सहारनपुर, बाग़पत, मुज़फ्फरनगर, मेरठ, ग़ाज़ियाबाद, नोएडा, बुलन्दशहर, अलीगढ़, हाथरस ज़िलों के साथ-साथ मथुरा, आगरा, एटा, मैनपुरी इटावा, फर्रुख़ाबाद, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद ज़िलों के ज़्यादातर हिस्से शामिल हैं। इस इलाक़े की मिट्टी बेहद उपजाऊ है और आबो हवा खेती के लिए बेहद मुफीद।

शायद यही वजह है कि सल्तनत काल से लेकर अंग्रेज़ शासकों ने यहां खेती के लिए न सिर्फ कई इंतज़ाम किए बल्कि किसानों को कई मौक़ों पर रियाअतें भी दीं। गंगा और जमुना नदी का पानी लोगों के खेतों तक पहुंचे इसके लिए इस इलाक़े से ऊपरी गंगा नहर, निचली गंगा नहर, पूर्वी यमुना नहर, आगरा कनाल सिस्टम का विकास तत्कालीन शासकों ने किया। इस इलाक़े में गेहूँ की अच्छी फसल होती थी और यहां पैदा हुआ अनाज मुल्क के दूसरे हिस्सों में भी ज़रूरतें पूरी करता था। खेती के साथ साथ इस इलाक़े में व्यापार और कृषि आधारित उद्योग भी ख़ूब फले-फूले। तक़रीबन हर क़स्बे में एक बड़ी मंडी का विकास हुआ जिससे लोगों को रोज़गार की कभी कोई समस्या नहीं हुई। स्थानीय ग्राम स्वराज का ज़िक्र हम अकसर सुनते हैं। ग्राम स्वराज और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का का सफल मॉजल था गंगा जमुना का दोआब। सरकार को भी ख़ूब आमदनी थी। शासक कोई भी रहा हो, दोआब की खेती पर सबसे ज़्यादा कर वसूले गए लेकिन कभी किसी कोई शिकायत न हुई।

zai2क़रीब बीस-तीस साल पहले तक यहां कोई परेशानी न थी। लोग सीधे और मेहनती थे और अपने अपने काम धंधों में लगे थे। अचानक विकास की तथाकथित काली आंधी ने पूरे इलाक़े को अपनी चपेट में ले लिया। खूब उद्योग धंधे लगे और इतने कि शायद क्षेत्रफल के हिसाब से ये दुनिया का सबसे बड़ा इंडस्ट्रियल एरिया है। खेती सिमटती गई और फैक्ट्रियों का दायरा बढ़ता गया।

ज़मीनों का अधिग्रहण होता रहा। खेती की क़ीमत पर बिल्डर औऱ उद्योगपति फलते फूलते रहे। आज इस इलाक़े में खेती की ज़मीन या तो उद्योगपतियों के पास है या फिर बिल्डरों के। जो बची है वो प्रदूषण की चपेट में हैं। जो नहरें कभी खेतों की सिंचाई करती थी वों फैक्ट्रियों को पानी पहुंचा रही हैं। जो नदियां इलाक़े को ज़िंदगी देती थीं अब ज़हरीले नाले हैं। अर्थव्यवस्था से लेकर आबो हवा तक, सबकुछ उद्योगपतियों और औद्योगिक प्रदूषण की भेंट चढ़ चुकी है।

इस इलाक़े के लोग विकास की क़ीमत चुका रहे हैं। मिल लगती हैं और जब तक मुनाफा मिलता है चलती हैं। जिस दिन मुनाफा कम होने लगता है तालाबंदी होती है और ज़मीन अनुपयोगी हो जाती है। खेती मर चुकी है। बेरोज़गारी और अपराध बढ़ रहे हैं दुनिया जहान के लोगों को यहां रोज़गार मिलता है लेकिन स्थानीय लोगों को कोई मिल मालिक नहीं रखना चाहता। सहारनपुर से इलाहाबाद के बीच या तो बंद फैक्ट्रिया हैं या फिर ईंट भट्ठे। हर तरफ खेतों में प्लाटिंग होना आम है। कुल मिलाकर खेती और उस से जुड़े कारोबार ख़त्म हो चुके है। कारख़ानो में न अनाज पैदा होता है और न कोई दूसरी फसल। ज़ाहिर है जब मुल्क का पेट पालने वाले इस इलाक़े में ज़मीने ही न बचेंगी तो लोग खाएंगे क्या? औद्योगिक कचरा और नदियों का ज़हरीला पानी पीकर ज़िंदा तो रहा नहीं जा सकता।

Zaigum murtaza

 

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा, प्रोडयूसर, राज्यसभा टीवी, 12 A, गुरूद्वारा रकाबगंज रोड, नई दिल्ली ।

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