संकटों से जो सभ्यता नहीं सीखतीं, वो मिट जाती हैं

प्रोफेसर अनिंद्य सरकार
प्रोफेसर अनिंद्य सरकार

भारतीय भूगर्भशास्त्रियों और पुरातत्वविदों को हाल में हड़प्पा सभ्यता को पुनर्परिभाषित करने में महत्वपूर्ण कामयाबी मिली। हरियाणा के भिड़ाना और राखीगढ़ी में हुई खुदाई में जो प्रमाण मिले, उसने पूरी दुनिया को चौंका दिया है। अब तक जो हड़प्पा सभ्यता 5700-3000 वर्ष पूर्व की मानी जा रही थी, उसके 8000 वर्ष से अधिक पुराने होने के प्रमाण सामने हैं। हमारे भू वैज्ञानिकों ने ना सिर्फ हड़प्पा सभ्यता के काल क्रम को दुनिया की सबसे पुरानी ज्ञात सभ्यता के तौर पर बड़ी मजबूती से स्थापित किया बल्कि यह पहली बार हुआ जब सभ्यता के विकास और विनाश के साथ-साथ उस दौरान मौसम में हो रहे बदलावों और उसका सभ्यता पर पड़ रहे असर को समझा जा सका। भू वैज्ञानिकों की यह अध्ययन रिपोर्ट प्रतिष्ठित जरनल ‘नेचर’ के मई के अंक में प्रकाशित हुई है। इस अध्ययन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें हड़प्पा सभ्यता के दौरान मानसून में आये उतार-चढ़ाव से उस समय के लोगों के संघर्ष का उल्लेख करते हुए वर्तमान संकटों की ओर संकेत किये गये हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, हड़प्पा सभ्यता मानसून संकट के बावजूद अगले करीब 3500 वर्षों तक जीवित रह सकी, लेकिन वर्तमान आधुनिक सभ्यता जिसे औद्योगिक सभ्यता भी कहा जा सकता है, जो अभी सिर्फ 200 से अधिक वर्ष पुरानी है, उसे क्या हम अगले 1000 साल के लिए भी बचा पायेंगे? आखिर क्या है वर्तमान सभ्यता के सामने संकट, उसके संकेत क्या हैं और हम हड़प्पा सभ्यता के समय आये संकट से क्या कुछ सीख सकते हैं, इन सभी सवालों के जवाब जानने के लिए इस खुदाई और अध्ययन का नेतृत्व कर रहे प्रोफेसर अनिंदय सरकार (IIT खड़गपुर में भूगर्भशास्त्र व भू भौतिकी विभाग के प्रमुख) से बातचीत की रंजीत प्रसाद सिंह और अखिलेश्वर पांडेय ने।

haddapaसवाल : हड़प्पा सभ्यता को लेकर आपकी और आपकी टीम का हालिया अध्ययन क्या है, जिसने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है?

प्रो अनिंदय : किसी भी पुरातात्विक अध्ययन का मूल आधार यह पता लगाना होता है कि वह सभ्यता कितनी पुरानी है। हरियाणा के पुरातात्विक साइट भिड़ाना में जब हम काम कर रहे थे तो हम हड़प्पा सभ्यता के काल निर्धारण के साथ-साथ यह भी देखना चाह रहे थे कि उस समय के मौसम का असर इस सभ्यता पर क्या-क्या हुआ। यह तभी संभव था, जब उस सभ्यता के पूरे काल खंड से संबंधित प्रमाण एक ही जगह पर मिल सकें। हम भाग्यशाली थे कि भिड़ाना में यह संभव हो सका। एक ही जगह हमें हड़प्पा संस्कृति के प्रारंभिक काल से लेकर, प्रौढ़ हड़प्पन और फिर अतिकालीन हड़प्पन तक के प्रमाण मिले। यह काम चार संगठनों ने मिलकर किया। IIT खड़गपुर ने इसका नेतृत्व किया, डेक्कन कॉलेज पुणे का इंस्टीट्यूट ऑफ ऑर्कियोलॉजी, ऑर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ASI) और वर्ष निर्धारण के लिए फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी, अहमदाबाद ने सहयोग किया।

साक्षात्कार

सवाल : आपके अध्ययन के आधार क्या-क्या रहे?

anindya-2प्रो अनिंदय : हम यह मान कर अध्ययन कर रहे थे कि इंडस वैली सिविलाइजेशन (सिंधु घाटी सभ्यता) की शुरुआत आठ हजार वर्ष पुरानी है। हम देखना चाहते थे कि ऊपर का वर्ष हमें मिलेगा या नहीं। भिड़ाना की साइट पर हमें एक पॉटरी (मिट्टी का बर्तन) मिला। पुरातत्व के हिसाब से सिंधु घाटी सभ्यता को प्रारंभिक हड़प्पन, प्रौढ़ हड़प्पन, अतिकालीन हड़प्पन में बांटा गया है। मतलब इस दौरान विभिन्न संस्कृतियां पनपती हैं। आप देखेंगे, इस सभ्यता के शुरू होने के पहले संस्कृति इतनी विकसित नहीं थी, जैसे-जैसे संस्कृति आगे बढ़ती गयी, इसका विकास होता गया। सभ्यता के प्रारंभ में आपको मकान बने नहीं मिलेंगे, उस समय लोग मिट्टी खोद उसे गुफानुमा बनाकर उसमें रहते थे। जब सिंधु घाटी सभ्यता आयी तो धीरे-धीरे लोगों ने मकान बनाना शुरू किया, पहले मिट्टी के और फिर ईंट के। धीरे-धीरे उन्होंने शहर बसा लिया।

हमें मिली पॉटरी प्रारंभिक प्रौढ़ हड़प्पन के समय की थी। ऑप्टीकली स्टीमुलेटेड ल्यूमनिसेंस (ओएसएल) तकनीक के जरिये हमने इसका वर्ष निर्धारण किया जो 6000 वर्ष पूर्व निकला, जो अब तक कि मिली सबसे पुरानी पॉटरी है। इस लिहाज से प्री-हड़प्पन हाकड़ा फेज कम से कम 8000 वर्ष पुरानी तो जरूर है। प्रौढ़ हड़प्पन सभ्यता 5500 वर्ष पुरानी हुई। इस आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सके कि भारत के हिस्से में प्री हड़प्पन संस्कृति ने जन्म लिया और इधर ही यह अपने प्रारंभिक काल में विकसित हुई, प्रौढ़ हुई और फिर खत्म भी हुई।

सवाल : सभ्यता के साथ मौसम के अध्ययन की जटिलता को कैसे दूर किया?

Well-And-Bathing-Platforms-Harappaप्रो अनिंदय : हमारे पुणे कॉलेज के जो सहयोगी हैं, उन्हें पशु की हड्डियां, दांत आदि मिले। हड्डियों का केमिकल कंपोजिशन होता है फॉस्फेट। फॉस्फेट के अंदर ऑक्सीजन है। हमने अपनी लेबोरेटरी में ऑक्सीजन का आइसोटोप निर्धारण किया। इसके जरिये हम उस स्थान का पानी कैसा रहा होगा, इसके गुण-दोष का पता लगा सकते हैं। हमने कुछ दिन पहले डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी से प्रोग्राम लेकर पूरे देश के पानी की मैपिंग में भी सफलता पायी है।

आइसोटोप के अध्ययन से हमें पता चला कि सिंधु घाटी सभ्यता जब शुरू हो रही थी, उसी समय मानसून बहुत मजबूत हो गया (9000 से 7000 वर्ष पहले)। यानी 8000 वर्ष पहले जब मानसून मजबूत हो रहा था, तो इंडस वैली सभ्यता भी मजबूत हो रही थी। किसी भी सभ्यता को पनपने के लिए अनुकूल परिवेश की जरूरत होती है। यही उस समय हुआ। यह सभ्यता कृषि आधारित थी। इसलिए हड़प्पा के सभी साइट्स पर जार में पुराने चावल रखे मिलते हैं। कृषि के लिए योग्य भूमि चाहिए, जो नदियों के बेसिन से ही संभव है। इसलिए यह संभव है कि सरस्वती नदी जो कि बाद में गुम हो गयी, उस समय जब मानसून का प्रभाव बढ़ा, तो इसका प्रवाह बहुत रहा होगा। उसका अपना फ्लड प्लेन (बाढ़ क्षेत्र) भी होगा। इसके कारण वहां सभ्यता का विकास शुरू हो सका। लेकिन फिर धीरे-धीरे यह सभ्यता खत्म होने लगी।

एक थ्योरी यह भी है कि एक बड़ा सूखा भी आया। जबकि हकीकत यह है कि यह सभ्यता 3800 वर्ष पूर्व ही खत्म हो गयी थी। हमारी स्टडी के अनुसार, 7000 वर्ष पूर्व से ही मानसून कमजोर पड़ने लगा। लगभग सभी पुरातत्वविद मानते हैं कि यह सोलर सिस्टम के कारण हुआ होगा। जब चक्कर लगाते-लगाते पृथ्वी सूर्य के काफी करीब तक पहुंच जाती है, तब तापमान बढ़ जाता है और मानसून घटने लगता है। लेकिन हमें अब तक यह पता नहीं था कि मानसून में कमी के साथ सभ्यता का क्या हुआ। हमारे काम की खासियत यही है कि हमने सभ्यता और मानसून को एक साथ देखा। मतलब जिधर हम सभ्यता देख रहे हैं, उधर क्लाइमेट में भी बदलाव दिखा। हमने देखा कि 7000 वर्ष पूर्व जब मानसून कमजोर पड़ने लगा तो सभ्यता खत्म नहीं हुई। यह अगले 3500 साल तक जीवित रही। यह बहुत ताज्जुब की बात है।

सवाल : मानसून घटने के बावजूद कैसे हड़प्पा संस्कृति अगले 3500 वर्षों तक जीवित रही?

dholi wara sindhuप्रो अनिंदय : एएसआई ने भिड़ाना के पास जो काम किया इससे पता चलता है कि प्रारंभिक हड़प्पन में जो फसलें मिले उसमें गेहूं, जौ थे। मतलब, उस समय ऐसी फसलें उगायी जा रही थीं, जिसमें बहुत पानी की जरूरत थी। बाद में हड़प्पन सभ्यता के अंत में देखने को मिलता है कि लोग ज्वार, बाजरा और चावल उगाने लगे, जिसमें कि पानी काफी कम लगता। यानी मानसून में कमी के साथ उन्होंने क्रॉप पैटर्न को बदला। लेकिन जो फसलें उगायी जाने लगीं, उसकी उत्पादन क्षमता में कमी देखने को मिली। पानी में कमी के साथ उसकी उर्वरता भी घटते गयी। इसलिए प्रारंभिक व प्रौढ़ हड़प्पन में हमें जहां सामूहिक स्तर पर बड़े-बड़े भंडार गृह देखने को मिलते हैं, जिसमें पैदा हुई फसलों को सुरक्षित रखा जाता। अतिकालीन हड़प्पन में जब फसलें कम होने लगीं तो भंडारण घरों के छोटे-छोटे भंडार पात्र में सिमट गये। इसका सोसाइटी पर बहुत असर पड़ा। यानी उन्होंने जो उपाय किये वे बहुत स्थायी नहीं थे। जिसके कारण पलायन होने लगा। बड़ी शहरी सभ्यताएं खत्म होने लगीं। बड़े शहरों के लिए जितने अनाज के उत्पादन की जरूरत थी, वह पूरी नहीं हो पा रही थीं। बाहर सप्लाई करना तो दूर की बात। इसलिए यह सभ्यता पलायन के साथ-साथ छोटे-छोटे कस्बों में बंट गयी।
हड़प्पन सभ्यता के अंतकाल में हम ‘डीअर्बनाइजेशन’ देखते हैं। यानी रिसोर्स कम हो गया। इस दौरान एक-दूसरे के प्रति हिंसा बढ़ गयी। इसके प्रमाण भी हमें मिले। उस सभ्यता के कई नर कंकाल मिले, जिनके सिर दो हिस्सों में बंटे थे, इन पर तेज हथियारों से हमले हुए थे। आज भी कमोबेश कई जगह वैसी स्थिति दिखती है, लोग हंसते हैं पर मैं उदाहरण देता हूं बंगाल का, यहां रोजगार नहीं है, नौकरी नहीं है, लोग राजनीति में घुस गये हैं, एक-दूसरे को मार रहे हैं।

खैर, लेटर हड़प्पन में संक्रमण रोग भी तेजी से बढ़े। कुछ स्टडी में लेप्रोसी जैसी बीमारी फैलने की बात सामने आयी है। एक तो सूखा हो गया था, बारिश नहीं थी, दूसरा, रिसोर्स कम हो गये थे। नदियां पहले सीजनल हुईं और फिर खत्म ही हो गयीं। हमारी मान्यताओं में जो सरस्वती नदी है, शायद उसके विलुप्त हो जाने का काल भी यही रहा होगा, जो थार रेगिस्तान में घघर नदी का विस्तार माना जाता है।

सवाल : हड़प्पन सभ्यता में आप और क्या ऐसा देखते हैं, जिससे घटते मानसून के अनुसार उनके द्वारा खुद को बदलने के संकेत मिलते हैं?

प्रो अनिंदय : हड़प्पा सभ्यता में लोगों के घरों में तालाब की बात भी अतिकालीन हड़प्पा काल में ही देखने को मिलती है, प्रारंभिक काल में ऐसा नहीं था। धौलावीरा में पानी संग्रह के लिए बनाये गये विशेष स्थानों के भी प्रमाण मिले हैं। ये उपाय उन्होंने तब किया जब पानी का संकट होने लगा। यह एक दिन में भी नहीं हुआ होगा, ये संरचनाएं मानसून घटने के साथ-साथ नियमित प्रक्रिया के तहत विकसित हुई होंगी। वे अपने संकटों से सीख रहे थे, और उसे अवसर में बदल रहे थे। पर हम ऐसा नहीं कर रहे।

सवाल : हड़प्पा संस्कृति में आये संकट का हमारे लिए क्या संकेत हैं?

Drought-1प्रो अनिंदय : हमारी जो आधुनिक सभ्यता है वह औद्योगिक सभ्यता है, जिसके 200 साल हुए हैं। लेकिन यह सभ्यता बदलते समय के साथ बदलने को तैयार नहीं दिखती, जिसके कारण हम 1000 या 2000 वर्ष तक अपनी सभ्यता चला पायेंगे या नहीं यह कहना मुश्किल है। हमें हड़प्पन सभ्यता से सीखने की जरूरत है। भिड़ाना ने हमें बताया कि कैसे उस समय के लोगों ने किसी आधुनिक तकनीक के बिना बदलते मौसम से समन्वय बैठाने की कोशिश की। एक बात दावे के साथ कही जा सकती है, कि उस समय लोग हमारी तरह लोभी नहीं थे। कुछ क्लासिफाइड जरूर थे, जैसे धौलावीरा में लोअर टाउन, अपर टाउन के प्रमाण मिलते हैं। इतनी खराब हालत नहीं थी। जैसे कि आप आज महाराष्ट्र का उदाहरण लीजिये, आप जानते हैं कि गन्ने की खेती के लिए बहुत पानी की जरूरत है, लेकिन वहां पानी नहीं है। करें क्या? इसके साथ सोसियो-पॉलिटिकल इशू जुड़े हुए हैं। सुगरकेन की जो लॉबी है, उनकी फैक्ट्रियां हैं, वे उसे बंद नहीं करना चाहते, वर्कर्स की लॉबी इससे जुड़ी हुई है।

हमें एक बार फिर गांवों की ओर लौटने की जरूरत है। ग्रामीण लोग इन समस्याओं के प्रति ज्यादा संवेदनशील हैं। उदाहरण के तौर पर जो आदिवासी हैं, वे जंगल का महत्व जानते हैं, जंगल काटते हैं शहर वाले। इन्हें पेपर इंडस्ट्री चाहिए, यह चाहिए, वह चाहिए। हड़प्पन सभ्यता लंबे समय तक बची रही तो उसके पीछे किसान ही थे, उन्होंने आपस में सलाह कर, सीख कर क्रॉप पैटर्न में बदलाव लाया।

नासा के स्टडी के अनुसार उत्तरी पश्चिम भारत का भू जल स्तर तेजी से घटा है। देश की जो स्थिति है वह बेहद अलार्मिंग है। मान लीजिये बुंदेलखंड के जो हालात हैं, विदर्भ की जो स्थिति है, तापमान 52 डिग्री सेल्सियस को भी पार कर जा रहा है। केरल जो कि मानसून की जगह है, देश का सबसे ज्यादा हरियाली वाला सूबा है। वहां तापमान 49 डिग्री चला गया है। ग्राउंड वाटर कई जगह खत्म हो गया है। इसे हम रिचार्ज नहीं कर रहे। कंक्रीटों के जंगल खड़े हो रहे हैं, और बारीश का पानी सीधे नदियों से होते हुए समुद्र में चला जा रहा है।

सवाल : मानसून के रूठने को रोका नहीं जा सकता?

प्रो अनिंदय :देखिये, मौसम परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण पर्यावरण प्रदूषण है। सेटेलाइट तसवीरों में एशिया के आसमान के ऊपर एक भूरे रंग के बादलों की परत की तरह दिखायी देती है, यह प्रदूषण के कारण ही है, जो कार्बन डाइ आक्साइड के उत्सर्जन के कारण होता है। यह बहुत जटिल मुद्दा है। अभी मोदीजी ने घोषणा की कि कार्बन डाइ ऑक्साइड कम करने के लिए हम ज्यादा से ज्यादा सोलर पैनल लगायेंगे। भारत में कॉमन मैन बिजली का उपयोग कर पा रहा है, वह सिर्फ कोयले के कारण। कोयला ऊर्जा उत्पादन का सबसे सस्ता माध्यम है। यदि हम इसे न्यूक्लियर या सोलर एनर्जी में शिफ्ट करेंगे तो यह बहुत महंगा है। इसलिए यह कहना तो आसान है कि कार्बन डाइ ऑक्साइड घटायेंगे, लेकिन उसे व्यावहारिक तौर पर कैसे लागू करेंगे, यह कहना बहुत मुश्किल है, क्योंकि लोगों की लाइफ स्टाइल चेंज करनी होगी।


रंजीत सिंह
रंजीत सिंह
अखिलेश्वर पांडेय
अखिलेश्वर पांडेय

ये साक्षात्कार रंजीत कुमार सिंह और अखिलेश्वर पांडेय ने लिया है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। मेरठ में शुरुआती पत्रकारिता के बाद दोनों लंबे वक्त से जमशेदपुर, प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय पदों पर कार्यरत हैं।


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