विद्रोही, तुम्हारी दया का पात्र नहीं है महानुभावों

संदीप सिंह

विद्रोहीजी।
विद्रोहीजी।

इरादा विद्रोही की कविता पर, जीवन पर लिखने का था पर कुछ दिन बाद, वह लिखूंगा। पर ‘अपनी समझ’ से यह तात्कालिक हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। जिस तरह से उनकी मृत्यु को आत्महत्या बताकर, उन्हें ‘हारा’, ‘बेचारा’ टाइप ‘इस्तेमाल कर लिया जाने वाला निरीह’, जेएनयू के चिड़ियाघर में वामपंथियों का पाला ‘अजूबा’ बताकर, कैम्पस और छात्र-आन्दोलन को कोसकर मुदित हो रहे हैं, यह कहना जरूरी लगा। जाहिर है, विद्रोही को महान, आदर्श इत्यादि वगैरह मानने में भी मेरी दिलचस्पी नहीं है। जाने कहाँ से वे इस क्रूर समय में अपनी फक्कड़ता कंधे पर कम्बल की तरह लादे लदर-फदर करते आ पहुंचे। कोई और समय या जगह होती तो शायद फक्कड़, अभंगी, औघड़ साधू होते और काफी पहले मर चुके होते। जेएनयू ने उन्हें इतने दिन जिन्दा रखा।

हैरत इसलिए होती है कि कुछ लोग उन्हें दीन-हीन, बेचारा, समय और खुद से भी हारा मानकर ‘संवेदनाएं’ जाहिर कर रहे हैं। संभवतः ऐसा कर वे अपनी ही आत्म-पीड़ा को सहलाते होंगे। आप से यही गुजारिश है कि ऐसा न करें। किसान जीवन, मिथक, इतिहास और भूगोल का मिश्रित रसायन उनकी कविता की तासीर है, जिससे वे हर किस्म के अन्याय का प्रतिकार करते रहे थे। “वह तो देवयानी का ही मर्तबा था/ कि सह ली सांच की आंच/ वर्ना बहुत लम्बी नाक थी ययाति की”।
sandeep + vidrohiउन्हीं के शब्दों में ‘grand-some’ ‘handsome’ होना उनकी वृत्ति है। कविता में उन्होंने अपने को हमेशा कमोबेश एक महायोद्धा (भले ही पराजित) जैसा ही देखा और दिखाया, जिसकी कमीज की जेबों में बैठकर बाघ बीड़ी पीते हैं और जिसकी नानी एवरेस्ट के खूंटे से अपनी गाय बांधकर मोहनजोदड़ो के तालाब में नहाती है। उनकी कविता विराट बिम्बों की कविता है, जीवन भले ही दिखने में ‘छुद्र’ और ‘दयनीय’ लगता रहा हो। संभवतः यह भी जीवन और काव्य में पैदा हुई, मौजूद रह गयी फांक के चलते ही था। पर उनको इसका क्लेश नहीं था। इतना तो तय है कि उनमें आत्म-दैन्य न था और उनकी कविता गजब के स्वाभिमान से भरी हुई थी। हाँ, प्रचार बहुत अच्छा लगता था और आत्म-प्रचार करते भी थे पर वह भी उन्हीं के बीच जो उनके पास आता था। खुद वह सिर्फ आत्मीय-अनात्मीय ‘मित्रों’ के पास ही जाते थे जिसके कारण भौतिक थे।
जेएनयू छोड़ने के लिए वे तैयार न थे। शांतिजी यह स्वीकार कर चुकी थी और हर महीने दिल्ली आने पर एक दिन उनकी खाने में पसंद की चीजें लेकर कैम्पस आती थीं। रिटायरमेंट के बाद वे अब ज्यादातर सुल्तानपुर में ही रह रही थीं और बदरपुर में अपने मकान के किराये पर उठे पांच कमरों का किराया और घर की देखभाल के लिए उन्हें दिल्ली आना होता था। बेटा-बेटी सुरक्षित जीवन जी रहे हैं, यह बताते हुए विद्रोही करुणा से भर जाते थे। आदमी खरे थे और मित्रों के जीवन-प्रसंगों का ख्याल रखते थे। प्यार की देह-भाषा समझते थे। वैसे ही मरे जैसा चाहते थे!
vidrohiji-2समाज की नजर में अराजक जीवन, उनका खुद का चुना हुआ था। 12 बरस पहले जब मैं जेएनयू आया था। छात्र-संघ पर एसएफआई काबिज दिखता था। उस दौर में उन्हें कभी छात्र-संघ के कार्यक्रमों इत्यादि में बोलते न सुना। वह तो सिर्फ आइसा के कुछ कार्यक्रमों और ज्यादातर जुलूसों में कविता कहते देखे जाते थे। हकीकत यह है कि सन 2004-05 के उस दौर में कैम्पस के बड़े हिस्से के लिए वे कौतूहल और जुगुप्त्सा का विषय थे और विश्वविद्यालय के ‘हिंदी समाज’, कुछ पुराने छात्र और वामपंथी कार्यकर्ताओं के एक हिस्से के अलावा, कैम्पस में उन्हें कोई उस अर्थ में नहीं जानता था जिस अर्थ में पिछले कुछ वर्षों में वे मशहूर हुए थे। जेएनयू, डीयू और राजधानी के विश्विद्यालयों में खासकर महिला-छात्रों में उनकी अपार लोकप्रियता बनी। मुझे याद है कि 2006 में जेएनयू के प्रशासनिक भवन पर छात्र-संघ के एक विरोध-प्रदर्शन के दौरान जब मैंने उन्हें कविता पढने के लिए बुलाया तब एसएफआई और पीएसयू (अब exist नहीं करता) के लोगों ने यह कहकर उनके कविता-पाठ का विरोध किया कि ‘विद्रोही महिला-विरोधी हैं और मां-बहन की गालियाँ देते हैं’।
हर चीज का शुल्क मांगने वाले समाज को वे बेइन्तहा नापसंद करते थे, और उस अर्थ में विद्रोही एक ड्रापआउट थे। जैसा कि अति-संवेदनशील और गुरूर वाले लोगों के साथ कई बार होता है। इस ‘बास्टर्ड सोसायटी’ से अपनी लड़ाई वे बहुत पहले हार चुके थे, पर यह हार उन्हें स्वीकार नहीं थी और जेएनयू ने उन्हें सहारा दिया और उनका सपना जिन्दा रहा। कम से कम अपने तईं वे ऐसा ही मानते थे। इसलिए अलक्षित सी छोटी जीतों को व्यवस्था पर करारी चोट मानते थे और अपने ऊपर हुए हर हमले यथा ग्रुप-4 के सुरक्षाकर्मियों का व्यवहार, जिसे वे कभी-कभी तो साम्राज्यवाद की साजिश तक मानते थे। जेएनयू सिक्योरिटी और प्रॉक्टर से वे प्रचंड घृणा करते थे और छात्र-संघ में मेरे कार्यकाल के दौरान मुलाकातों में यह एक तयशुदा प्रसंग और शिकायत होती थी।
जाहिर है कैम्पस में सिमटा था उनका जीवन और वे कैम्पस के कवि थे। गर्चे जानने-मानने वाले कुछ लोग बाहर भी थे। 2007-08 में परियार हॉस्टल में उदय और दिग्विजय के कमरे पर बैठकर उन्हें रिकॉर्ड करने की संजीदा कोशिशें शुरू हुई जिसमें मार्तंड, शेफालिका, रवि, ब्रजेश जी व कुछ और साथी भी आ जुड़े। अन्ततः यह प्रयास कुछ वर्षों बाद जसम से ‘नयी खेती’ के रूप में सामने आया। इसी दौर में उन्हें बीबीसी ने छापा जिसकी प्रतियाँ लिए वे कई दिन घूमते-दिखाते रहे। प्रकाश भाई ने फिल्म के लिए रिकार्ड किया, पर बना न पाए। अनसुइया ने फिल्म बनाई। बाद में पल्लवी पौल ने भी फिल्म बनाई। जसम के कार्यक्रमों और प्रतिरोध के सिनेमा के उत्सवों के सिलसिले में अलग-अलग शहरों में जाने का सिलसिला शुरू हुआ। मतलब ये कि थोड़ा चर्चा में आना शुरू हुए और बहुतों के न चाहते हुए भी आज उस मुकाम पर पहुँच गए जहाँ कुछ लोग ‘अहा जिन्दगी!’ जीते हुए पहुँचने की इच्छा रखते हैं।
vidrohiji-3गाली-गलौज को लेकर कुछ छात्रों की शिकायत पर 2010 में जेएनयू से ‘आउट ऑफ़ बाउंड’ किये गए। खूब विरोध हुआ। डेढ़-महीने चन्दन के घर पर मुनिरका और बेरसराय में रहे। अपने घर जाने के लिए तैयार न थे। फेसबुक पर साथियों ने पेज बनाया जो हिट हुआ। नितिन ने फिल्म बनानी शुरू की। अंततः प्रशासन ने अपना निर्णय वापस लिया। फिर कैम्पस वापस आये। उसके बाद सुचेता डे के छात्र-संघ अध्यक्ष रहते हुए, संभवतः 2011-12 से छात्र-संघ भवन में उनके रहने की परमानेंट व्यवस्था की गयी जहाँ वे अंत तक रहे। दर्जनों बार बीमार पड़े। मौसम और जरूरत के हिसाब से कपड़े लगे। नशे-पत्ती और खाने का रोज का खर्चा हुआ जिसका चाहने वालों ने कभी कम, कभी ज्यादा, पर ख्याल रखा। अनगिनत छात्र-छात्राएं, कुछ अध्यापक एवं शुभचिंतक इसमें अदृश्य तरीके से शामिल थे। कैम्पस और मित्र यह सब करते रहे। उनकी ‘इतनी’ मकबूलियत और प्रसिद्धि मूलतः पिछले दस-बारह वर्षों की है। इसका कतई ये मतलब नहीं है कि पहले उनके गहरे दोस्त और हितैषी न थे और उन्हें कोई जानता न था।
युवाओं को वे बहुत पसंद हैं। लड़कियों को वे बहुत पसंद हैं। न जाने कितनी बार उनके कविता-पाठ के दौरान मैंने लड़कियों की आँख में आंसू छलकते देखे हैं। उनकी कविता ‘कुएं में कूदकर, जलकर मरी औरतों’ को फिर से जिंदाकर उनके बयानों को कलमबंद करती है, पूछती है बताओ कुछ छूट तो नहीं गया? नानी, दादी पर उनकी कविताओं से ग्रामीण-किसान परिवेश से आये युवक-युवतियां associate करते हैं, जहाँ एक औरत ‘अपनी सात बित्ते की देह को एक बित्ते के आँगन में ताजिंदगी समोए रहती है और ‘उनके ख्यालों में एक अंधेरी कोठरी में एक बूढ़ी औरत रातों-दिन चिराग की तरह जलती रहती है’। इतिहास और मिथकों की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले उनके बिम्बों से, प्रतीकों के इस्तेमाल और तोड़मरोड़ से विस्मृत होते हैं। भारतीय समाज की कोढ़ जाति-व्यवस्था और धार्मिक जकड़न और शोषण के चक्र में किस तरह ‘बेटे से छिपाया घी, उधार का गुड़, मेहमानों का अरवा, शंकर जी के लिंग पर चढ़ता रहा है, यदि देखना है तो पढ़िए विद्रोही को। ‘पामीर के पठार जैसी पीठ’ की सुन्दरता और ‘बाल्कन की झील में झुकी काकेशश की पहाड़ी’ जैसी पुष्ट मांसलता और कविता में दुनिया का भूगोल, बद्दू चरवाहे, आस्ट्रेलिया के गड़रिये, दुनिया भर में किस्म-किस्म के तरीकों से बिकते ग़ुलाम, और सभ्यताओं के मुहाने पर बिखरी सच्चाइयाँ देखनी हों तो पढ़ें विद्रोही को।
vidrohiji-4‘रोम’ पर धावा बोलने के लिए यह ‘स्पार्टकस का वंशज’ पूरी जिन्दगी ‘दुनिया भर के ग़ुलामों और ‘कलजुगहे मजूरों’ को इकठ्ठा करता रहा और ‘रजिया सुल्तानों’ और ‘बलबनों’ के विरुद गाता रहा। उनके शब्दों में ‘मैं रोज सेना सजाता हूँ, रणनीति बनाता हूँ और युद्ध के मैदान की गाथाएँ गाता हूँ’। दुनिया भर के गुलामों की विजयी सेनाओं को रोम लौटते, सीनेट को ध्वस्त होते देखना हो तो चलें विद्रोही की ‘हल्दीघाटी’ में। मेरी समझ में उनकी कविता ‘जीत के जज्बे’ के ‘onward march’ की कविता है। कविता कहने की उनकी कला परम्परा से आ रही थी। आल्हा, वीरगाथा, चनैनी व हिन्दी-अवधी इलाके की कई अन्य लगभग विलुप्त लोक-कलाएं उनके काव्य में पुनर्जीवित हुईं। मेरा दावा है कि पिछले तीस-चालीस साल में हिन्दी में लोककलाओं को साधकर कविता लिखने वाला विद्रोही जैसा कोई न हुआ।
विद्रोही कोई ‘काम या नौकरी’ नहीं करना चाहते थे। कर भी नहीं सकते थे। कविता उनके लिए काम थी। अब इससे पेट तो नहीं भरता। तो क्या किया जाता? भूखे मरने के लिए छोड़ देते? क्या जो व्यक्ति ‘काम’ नहीं करेगा, वह भूखा मार दिया जायेगा? ज्ञान और तकनीक वैसे भी बहुत अच्छी चीज नहीं है। इसने आज दुनिया को विध्वंश के कगार पर खड़ा कर दिया है। विद्रोही अपने फक्कडपन में, लक्षित ‘पागलपन’, अलक्षित ‘चिंतन’ में, जाने-अनजाने इस मकड़जाल से बाहर थे। जिसमें फंसे हुए पढ़े-लिखों का त्रासद घमंड (Arrogance of Educated) तो देखिये!
निश्चय ही वे उस रूप में जन-कवि वगैरह नहीं थे जिस रूप में हमें अब तक जन-कवियों के बारे में बताया-दिखाया-समझाया गया है। उनकी कविता में जन थे और कविता की दिशा उधर ही थी जिधर नागार्जुन, गिर्दा, और गोरख जैसों की थी। हाँ, उनकी कविता का मिजाज अलग था। इतने विराट बिम्ब गोरख, नागार्जुन किसी के पास न थे। पर न वे बाबा की तरह ‘दुनियावी’ थे, न गोरख की तरह गेय, न ही खेत-मजदूरों के जीवन-संघर्ष में पूरी तरह उतरे हुए। उनकी गेती छात्र थे और जेएनयू उनका मोर्चा जहाँ वे अंतिम दम तक डटे रहे। उनकी अपनी समझ में ‘लड़ते हुए’। भले ‘महानुभावों’ को लगे ‘हाय! बेचारा विद्रोही’! यह भी कि वे जितने विद्रोही और अराजक थे उतने ही ‘यादव’ थे और ‘यादव-फादव कविता कब से लिखने लगे साहब’! उनके ज्यादातर चाहने वाले बड़े-बड़े साहित्यिक गिरोहों, संस्थानों, अकादमियों की जद से बाहर के लोग और छात्र-युवा थे। जैसा और जितना भी वे सामने आ सके और इसमें जो इतनी देर लगी उसका कारण ज्यादातर यही था।
मेरे समझ में विद्रोही अपना रचनात्मक जीवन जी चुके थे। पिछले पंद्रह-सोलह वर्षों से उन्होंने एक भी नयी कविता नहीं लिखी थी। इस बात पर मेरा उनसे झगडा हुआ था और मैं इस एवज में मां-बहन की गालियाँ भी सुन चुका था। कुछ सर्दियों में कुछ दिन वे लोहित हॉस्टल के मेरे कमरे में भी रहे और समझ में आ गया कि गन्दगी में रहना कितना मुश्किल है। पर यही उनका चुना हुआ जीवन था जिसमें जेएनयू की जगह कविता से कम न थी। उनके भीतर कवि के अलावा एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भी था जिसे वे बहुत तवज्जो से सहेजते थे। धरना-प्रदर्शनों के वे होलटाइमर थे और संघ व ब्राह्मणवाद से गहरी नफरत करते थे। यही कार्यकर्ता बार-बार कविताओं का पाठ करता था, जुलूसों में तख्ती उठाये रहता था, हुल्कारता था, बड़बड़ाता था, अलबलाता था, गाता था, अभुआता था और जिन्दा रहता था।

उनका जीवन क्रांतिकारी रहा हो या न हो पर बेचारगी का नहीं था। ‘वे अपनी शर्तों पर जिए’ पूरे गुरूर के साथ। जो लोग आज उन्हें सर-माथे पर बैठाकर पता नहीं क्या से क्या बनाने में लगे हुए हैं और जो लोग उन्हें दीन-हीन, लुटा-पिटा, बेचारा मानकर आंसू टपकाते हुए उनके इर्द-गिर्द की राजनीति, लोगों और कैम्पस को कोस रहे हैं- ये दोनों किस्म के लोग वहीं हैं जिनके ‘जबड़ों से खाते वक़्त आवाज नहीं आती’ या फिर मासूम हैं। विद्रोही को न sanitize कीजिये, न idolize कीजिये, न ही दया दिखाइए। विद्रूप समय और ‘बास्टर्ड समाज’ से बाहर खड़े एक फक्कड़ कवि और कार्यकर्ता के प्रति एक कैम्पस के प्यार, तकरार, सहानुभूति और सहनशीलता को अपनी आत्मपीड़ा या राजनीतिक शुचिता के चलते विकृत मत कीजिये। न उनके नाम पर भवन बनाइये न मूर्ति बनाइये। हो सके तो छात्र-संघ भवन में उनकी एक तस्वीर लगा दीजिये जिससे उन्हें असीम प्यार था, संस्था से भी, बिल्डिंग से भी। वह तो क्या ‘तगड़ा कवि था, जो सब बड़े-बड़ों को मारकर मरा’।


sandeep singhसंदीप सिंह। प्रतापगढ़, उत्तरप्रदेश के निवासी। जेेएनयूएसयू के पूर्व अध्यक्ष। संप्रति-दिल्ली में निवास।