‘दिव्यांग’ स्कूली बच्चों को शारीरिक श्रम का ‘पाठ’

कूर्सी ले जाते हुए दिव्यांग बच्चे
कुर्सी ले जाते दिव्यांग बच्चे

सुनीता 

यूपी के सीएम अखिलेश की नज़र अगर इन तस्वीरों पर पड़े तो उन्हें पता चले कि प्रदेश में शिक्षक क्या कर रहे हैं? कैसे वो अपनी जिम्मेदारियों को निभा रहे हैं? बांदा में शिक्षा विभाग की जो कारस्तानी सामने आयी है उससे हर कोई यह सोचने पर जरूर मजबूर होगा कि आखिर बच्चों का भविष्य संवारने की जिम्मेदारी किन कन्धों पर है?

बांदा के पुलिस लाइन ग्राउंड में चल रही मंडल खेलकूद प्रतियोगिता समापन के अवसर पर दिव्यांग स्कूली बच्चों से शारीरिक काम लिया गया। शिक्षा अधिकारियों की मौजूदगी में जिन छोटे-छोटे बच्चों के सिर पर कुर्सियां और बाकि सामान लादकर ढुलाई करवाई गयी, वह 8 से 10 साल की उम्र के हैं। कोई जन्म से सुन नहीं सकता तो कोई बोल नहीं सकता। बच्चे बांदा पुलिस लाइन में सर्व शिक्षा अभियान के तहत बने समेकित शिक्षा केंद्र में रहकर पढाई करते हैं।

सर्व शिक्षा अभियान की तस्वीर !
सर्व शिक्षा अभियान की तस्वीर !

एक तो ये बच्चे शारीरिक चुनौतियों के बावजूद पढने आते हैं। हम नार्मल लोगों से इन्हें ज्यादा संघर्ष करना पड़ता है। दो से तीन सौ रुपए खर्च कर ये काम मजदूरों से कराया जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। बच्चों को ही मजदूर बना कर काम लिया गया। तस्वीरें हमें और आपको परेशान कर सकती हैं। दिव्यांग बच्चों को सहारे की जरूरत होती है। जिस यूपी शिक्षा विभाग ने बच्चों की प्रतिभा तराशने के लिए मंडल खेलकूद प्रतियोगिता का आयोजन किया था,  उसी के अधिकारियों ने कार्यक्रम के समापन पर छोटे-छोटे दिव्यांग बच्चों के साथ जो सुलूक किया वह हर किसी का सिर शर्म से झुका देने वाला है। पहले तो यह समझा गया कि स्कूली यूनिफार्म पहने मजदूरी के काम में लगे यह बच्चे नार्मल हैं लेकिन जब हमने उनसे बात करने की कोशिश की तब पता चला कि बच्चे बोल और सुन भी नहीं सकते। कार्यक्रम स्थल पर मौजूद अपर शिक्षा निदेशक जीएस राजपूत से जब इस बारे में बात की गयी तो पहले तो उन्होंने बच्चों को टेंट मजदूर बताकर अपना पल्ला झाड़ा। लेकिन यूनिफार्म देखने के बाद उन्होंने जांच कर कार्रवाई का आश्वासन दिया।

banda handicap students1पुलिस लाइन ग्राउंड से हैंडीकैप्ड बच्चों के लिए सर्वशिक्षा अभियान के तहत बने समेकित शिक्षा केंद्र  की दूरी 300 मीटर की है। कार्यक्रम स्थल से सामान समेटकर यहीं रखा जाना था, जिसमें मजदूरी करने के काम में इन्हीं मासूम बच्चों को लगा दिया गया। ये प्रवृत्ति नई नहीं है। स्कूलों में बच्चों से श्रम कराया जाता रहा है, लेकिन उसका मकसद क्या है? बच्चों को स्वावलंबी बनाना या चंद पैसों की बचत करना? इसका जवाब तो वो शिक्षा अधिकारी ही दे सकते हैं, जो मौके पर मौजूद थे।


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सुनीता द्विवेदी। उत्तरप्रदेश के बांदा की निवासी हैं। हिंदी से एमए और बीएड की डिग्री लेने के बाद इन दिनों सामाजिक बदलाव की चेतना जगा रही हैं। सार्थकता की संभावनाएं तलाशने और लोगों में उम्मीद जगाने में सुनीता यकीन रखती हैं।


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