चुनावी शोर में किसानों की फिक्र कर लेना नेताजी

नीलू अग्रवाल

bihar poster warबिहार में चुनाव का शोर शुरू हो गया है। इसके साथ ही सियासी दलों के रणनीतिकार जाति के आंकड़ों को जुटाने, उसका विश्लेषण करने और जाति के वोटबैंक के आधार पर ही उम्मीदवारों की सूची जारी कर रहे हैं। ऐसे में बात उन आंकड़ों की जो थोड़ा परेशान करते हैं और हमें सोचने को विवश भी।

2011 की जनगणना के आधार पर सामाजिक, आर्थिक और जाति से जुड़े आंकड़ों में हमारे गांवों की एक अलग ही तस्वीर उभरती है। गांव में 75 फ़ीसदी आबादी की आमदनी 5000 रुपये प्रति माह से भी कम है। शहरी मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा इतना तो अपने दो बच्चों की स्कूली फ़ीस पर खर्च कर डालता है। इससे कहीं ज़्यादा चिंता की बात है कि करीब 50 फ़ीसदी आबादी भूमिहीन की श्रेणी में है। महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या को लेकर लगातार ख़बरें आ रही हैं। बिहार में इस तरह की घटनाएं नहीं होती, लेकिन इससे किसानों की समृद्धि का कोई नाता नहीं है। दरअसल, बिहार के किसानों ने अपने कटु अनुभव से यही ‘ज्ञान’ हासिल किया है कि महंगाई के इस दमघोंटू दौर में खेती उसी के बस की बात है, जिसके घर से कोई सरकारी नौकरी में हो या निजी सेक्टर में अच्छी पगार पा रहा हो।

dumaria1बदले दौर में खेती की लागत जितनी ज्यादा बढ़ी है, आमदनी कम होती चली गई है। छोटे किसानों को खेती के लिए खाद-पानी, बीज, कीटनाशक और मजदूरों की दिहाड़ी जुटाना आसान नहीं रहा है। कई बार वो महाजन के चक्कर में फंस जाता है। इससे सूद का एक और अनकहा किंतु खून चूसने वाला खर्च जुड़ जाता है। किसानों की फसल तैयार हो जाए तो न तो उसे कोल्ड स्टोरेज में जगह मिलती है और न ही आसपास कोई ऐसी फूड प्रोसेसिंग यूनिट है, जहां से उसे अच्छी कीमत मिल जाए। खड़ी फ़सल की रखवाली इतना महंगा सौदा होता है कि वो कई बार ओने-पौने दाम में अपनी ‘मेहनत’ की बोली लगा देता है।

अब गांव में लुहार, सुनार, कुम्हार और बढ़ई की गिनती कम हो गई है। इन सभी का व्यवसाय खेती के साथ ही जुड़ा रहा है। कारोबार के लिए ग्लोबल प्लेटफॉर्म की फिक्र में डूबे नीति निर्माताओं ने गांवों की सुध कम ही ली है। ऐसे में पीएम मोदी ने स्किल इंडिया का जो नया प्रोग्राम तैयार किया है, अगर उसे ईमानदारी से गांवों तक पहुंचाने की कोशिश हुई तो तस्वीर कुछ बदल ज़रूर सकती है। आईआईटी, आईटीआई और बड़े औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्रों पर करोड़ों-अरबों का खर्च होता है, अगर उसका कुछ हिस्सा गांवों में प्रशिक्षण केंद्र खोले जाने पर खर्च किया जाए तो गांवों में बेरोजगारी दूर होगी और खुशहाली आएगी। विलेज ट्रेनिंग सेंटर्स में गांवों के पारंपरिक ज्ञान और कौशल को संवारने और सहेजने की कोशिश होनी चाहिए।

आदर्श गांव योजना को लेकर शोर तो काफी हो रहा है लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं है कि गांवों में भौतिक तौर पर विकास का ढांचा तैयार किया जाए। सुंदर पार्क, अच्छी सड़कें, स्कूल के साथ ही सोच बदलने की जरूरत है। अगर गांवों में छोटे-छोटे उद्योग खुल जाएं तो गांव का कोई बेटा या बेटी क्यों शहरों में जाकर नून-रोटी का ‘संघर्ष’ करेंगे।


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नीलू अग्रवाल। नीलू ने हिंदी साहित्य से एमए और एमफिल की पढ़ाई की है। वो पटना यूनिवर्सिटी से ‘हिंदी के स्वातंत्र्योत्तर महिला उपन्यासकारों में मैत्रेयी पुष्पा का योगदान’ विषय पर शोध कर रही हैं।


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