चमकी बुखार की रिपोर्ट- नौनिहालों की मौत रोकने की एक कोशिश

चमकी बुखार की रिपोर्ट- नौनिहालों की मौत रोकने की एक कोशिश

ब्रह्मानंद ठाकुर

मुजफ्फरपुर और इसके आस- पास के  जिले वैशाली, सीतामढी, समस्तीपुर, शिवहर आदि प्रति वर्ष अप्रैल और मई महीने में चमकी बुखार के प्रकोप से प्रभावित होते रहे हैं। इस साल सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस बीमारी से 180 से अधिक बच्चों की मौत हो गई। इस परिस्थिति में बिहार के कुछ युवाओं ने निश्चय किया कि वे अपने स्तर से जागरुकता अभियान चलाएंगे।  चार- पांच उत्साही युवाओं से शुरू हुए इस जागरुकता अभियान में और भी युवक जुड़ने लगे। इस तरह उनकी संख्या बढकर 200 तक पहुंच गई। उन्हें अलग-अलग टीम बनाकर प्रभावित गांवों में भेजा गया। इस टीम ने 70-80  प्रभावित गांवों में जाकर चमकी बुखार के लक्षण और बुखार आने पर क्या करना चाहिए, इसके बारे में जानकारी दी, थर्मामीटर और ओआरएस वितरण शुरू किया। इन युवाओं ने स्वास्थ्य विभाग एसओपी को पढकर ही लोगों को जागरुक किया।

इस दौरान पूरे देश में चमकी बुखार से होने वाली मौतें बहस के केन्द्र में आ गयीं। इस टीम को देश भर से आर्थिक सहायता मिलने लगी जिससे इनके काम का विस्तार हुआ। मानसून उतरने के बाद जब इस बीमारी का कहर कम हुआ तो इस टीम ने चमकी बुखार के कारणों का पता लगाने के लिए शोध करने का फैसला किया। दरअसल, जागरुकता अभियान के दौरान टीम के सदस्यों के सामने ऐसे कई वाकये आए जो उनको इस बीमारी के कारणों को जानने के लिए बेचैन कर रहे थे।

पुन: मुजफ्फरपुर में 10 जुलाई को यह टीम जुटी और तय हुआ कि उन सभी पीड़ित परिवारों के बीच पहुंचा जाए  जिनके बच्चे इस साल चमकी बुखार के शिकार हुए हैं। सर्वेक्षण के लिए एक विस्तृत प्रश्नावली तैयार की गई जिसमें पीड़ित बच्चों के परिवार की आर्थिक -सामाजिक स्थिति , आंगनवाड़ी केन्द्र, आशा कार्यकर्ता, स्वास्थ्यकर्मी की वास्तविक स्थिति, रोग से बचाव के लिए उनके स्तर से किए गये प्रयास , परिवहन सुविधा आदि बिन्दुओं को शामिल किया गया। बाल दिवस से एक दिन पूर्व 14 नवम्बर को मुजफ्फरपुर में पर्यावरणविद अनिल प्रकाश, पत्रकार पुष्यमित्र, मनीष शांडिल्य और सर्वेक्षण टीम के सदस्य सोनू आनन्द ने इस सर्वे रिपोर्ट को जारी किया।

फाइल फोटो

जागरुकता के अभाव में किस तरह एक मां की कोख सूनी हो गई, इसका हृदय विदारक चित्रण सर्वेक्षण पुस्तिका में किया गया है।  यह वैशाली जिले के कोल्हुआ निवासी रानी खातून के जीवन की दारुण गाथा है। रानी खातून के पति मोहम्मद ऐनुल पेशे से मजदूर हैं और बमुश्किल महीने में 5000 रूपये कमा पाते हैं। काफी मन्नतों के बाद 3 साल पहले इनके घर में बेटे शहजाद का जन्म हुआ था , इसके अलावा तीन बेटियां और हैं। एक दिन अचानक सुबह शहजाद के शरीर में ऐंठन और बुखार होने लगी। ऐनुल घर पर नहीं थेः रानी अकेले अपने कलेजे के टुकड़े को ले कर एसकेएमसीएच भागी , वहां गेट के सामने ही एम्बुलेंस ड्राइवर ने उससे पैसे ठगने के लिए कहा , यहां इलाज नहीं होगा , सीट नहीं है ,पटना ले के चलो। 4000 रूपये में बात तय हुई , पीएमसीएच पहुंचने के बाद ड्राइवर उसे रुकने को कहा और 15 मिनट बाद बाहर आकर बोला  ‘ यहां भी इलाज सम्भव नहीं है। मेरी नजर में एक प्राइवेट क्लीनिक  है , वहां इलाज करवाओ तो बच्चे की जान बच सकती है, नहीं तो बच्चे की जान बचाना मुश्किल है ।’ इतना सुनते ही उसका कलेजा छलनी हो गया ,कोई मां ऐसा सुन नहीं सकती। अंतत: वह तैयार हो गई। उस निजी अस्पताल में बच्चे को 24 घंटा रखा गया और रानी को अंदर जाने भी नहीं दिया गया। वह गांव वालों से उधार लेकर 40 हजार का बिल भी चुका चुकी थी। जब वह बच्चे से मिलने के लिए जिद करते हुए जबरदस्ती अंदर गयी तो देखा कि बच्चे का शरीर ठंडा पर चुका था , मानो कि जैसे उसकी मौत काफी पहले हो चुकी  हो। काफी बवाल के बाद जब शव को ले जाने दिया गया तो उसके डेथ सर्टिफिकेट में चमकी बुखार का उल्लेख नहीं किया गया। वह मुआवजे से भी वंचित हो गयी। अगर सही जागरुकता होती तो उसे दलालों के चक्कर में फंस कर अपना लाल खोना नहीं पड़ता।

सदर अस्पताल  मुजफ्फरपुर, केजरीवाल अस्पताल और एसकेएमसीएच से इस बीमारी के शिकार बच्चों की सूची प्राप्त कर सर्वेक्षण टीम निकल पड़ी अपने मिशन पर। सूची में 615 बच्चों का जिक्र था। 11 जुलाई से  19 जुलाई तक सर्वेक्षण कार्य  किया गया ।  दो  -दो युवाओं की टीम बनी जिसमें एक प्रश्न पूछ कर फार्म को आनलाइन भरता था और दूसरा उस बातचीत का वीडियो तैयार करता था। इस अवधि में यह टीम 227 परिवारों तक पहुंची जिसमे 69 परिवार ऐसे थे जिनके बच्चे की इस साल चमकी बुखार से मौत हुई थी। इस टीम  ने मुजफ्फरपुर और वैशाली जिले के सभी प्रभावित प्रखंडों  तक पहुंचने का प्रयास किया। सर्वेक्षण में पाया गया कि  चमकी बुखार से प्रभावित होने वाले परिवारों में मुख्यत: दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं। 27.8 फीसदी बच्चे महादलित, 10.1फीसदी  बच्चे दलित , 32.2 फीसदी बच्चे पिछड़े समुदाय , 16.3 फीसदी बच्चे अति पिछड़े समुदाय और 10.1  फीसदी बच्चे अल्पसंख्यक समुदाय से थे। सामान्य श्रेणी के बच्चों की संख्या महज 3.5 प्रतिशत थी।

चमकी बुखार से पीडित ज्यादातर बच्चों के परिवार की मासिक आमदनी 10,000 रूपये से कम थी। 2.2 फीसदी  बच्चों के परिवार की मासिक आमदनी 10 हजार रूपये से अधिक थी। 45.4 परिवारों की मासिक आमदनी 5 हजार रूपये से भी कम पायी गई। यानि इस बुखार का असर अमूमन गरीब , दलित, पिछड़ी जाति के परिवारों पर ही रहा। इसमें 22 प्रतिशत परिवारों के नाम बीपीएल सूची में दर्ज नहीं थे।पीड़ित बच्चों  के 76.2 प्रतिशत परिवार वालों को चमकी बुखार के बारे में पहले से कोई जानकारी नहीं थी। बीमार बच्चों में सिर्फ 15.2 फीसदी बच्चे स्कूल जाते थे, 29.5 फीसदी बच्चे आंगनवाड़ी जाते थे , 25.2 फीसदी बच्चे घर में रह कर मां का हाथ बंटाते थे , 30 फीसदी बच्चे अकेले या अपने हम उम्र के साथ दिन भर बाहर भटकते रहते थे। बीमार बच्चों में सिर्फ 58.1 फीसदी को ही जेई का टीका लगा था। 59 फीसदी बच्चों के घर में टीकाकरण का कार्ड था। शेष बच्चों के घर में यह कार्ड नहीं था। 

सर्वेक्षण  में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि सिर्फ 57.6 फीसदी आंगनवाड़ी केन्द्रों  में ही नियमित पोषाहार का वितरण होता है। सिर्फ 34.1 प्रतिशत आंगनवाड़ी केन्द्रों में बच्चों का नियमित वजन लिया जाता है और फीते से बांह मापा जाता है। 15.7 फीसदी केन्द्रों में सिर्फ वजन लिया जाता है। सर्वेक्षण टीम के समक्ष 70.5 फीसदी परिवारों ने इस बात से साफ इन्कार किया कि उन्हें किसी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता या आशा या अन्य सरकारी कर्मचारी ने चमकी बुखार के बारे में पूर्व में कोई जानकारी दी थी। 53.3 फीसदी बीमार बच्चों ने बुखार आने से 24 घंटे पहले लीची खायी थी और 70.9 फीसदी बच्चे इस दौरान देर तक धूप में खेले या घूमे थे। इस बीमारी से पीड़ित 53.3 प्रतिशत बच्चों के अभिभावक उन्हें लेकर सीधे अस्पताल गये , 17.2 फीसदी बच्चों को निकट के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र ले जाया गया , 4.8 फीसदी बच्चों को झाड़-फूंक कराया गया, 15 फीसदी बच्चों का पहला इलाज गांव के डाक्टर ने किया और 11 फीसदी बच्चे प्राइवेट डाक्टर की शरण में गये।

बीमारी की स्थिति में अस्पताल  पहुंचने में केवल 9.7 फीसदी परिवारों ने ही सरकारी एम्बुलेंस की सुविधा प्राप्त की और लौटते वक्त 27.8 फीसदी बच्चों को ही यह सुविधा मिल सकी। बीमार बच्चों को अस्पताल की तरफ से नियमानुसार 400 रुपये वाहन किराया दिया जाना है मगर यह लाभ सिर्फ 10.6 फीसदी  परिवार को ही मिल पाया।  सर्वेक्षण के दौरान यह भी पाया गया कि बीमार बच्चों के 81.5 फीसदी परिवार के पास आयुष्यमान कार्ड उपलब्ध नहीं था। किसी भी परिवार ने इस बीमारी में इस कार्ड की सुविधा का इस्तेमाल नहीं किया। इस सर्वेक्षण के आधार पर यह पाया गया है  कि गरीबी और सामाजिक पिछड़ेपन से इस बीमारी का सीधा सम्बंध है। 10 हजार से अधिक मासिक आमदनी वाले परिवारों में इस बीमारी से मौत का नहीं होना इसका सबसे बड़ा सबूत है।

सर्वेक्षण रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया है कि जनवितरण प्रणाली को चुस्त दुरुस्त  और आंगनवाड़ी कार्यक्रम को प्रभावी बनाकर इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है क्योंकि पौष्टिकता से इस बीमारी का सीधा सम्बंध है। सभी बच्चों को स्कूल और मध्याह्न भोजन कार्यक्रम से जोड़ने से इस बीमारी और इसके बुरे प्रभावों को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। वंचित तबकों में इस बीमारी के प्रति जागरुकता की कमी एक बड़ी समस्या है। इसलिए इस बीमारी से बचने के लिए प्रभावी ढंग से जागरुकता अभियान चलाने की जरूरत है। सर्वेक्षण रिपोर्ट में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि हर साल फरवरी महीने में इस बीमारी की रोकथाम के लिए सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं, संगठनों द्वारा विशेष जागरुकता अभियान चलाया जाए।        

ब्रह्मानंद ठाकुर।बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।