गांव वालों ने लौटाईं अस्पताल की ‘सांसें’

पुष्यमित्र

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गांव के लोगों के बीच नीली शर्ट में अविनाश कुमार सिंह. जिन्होंने अस्पताल को खुलवाने के लिए उच्च न्यायालय में मुकदमा किया था। फोटो-पुष्यमित्र

यह उन हौसले वाले ग्रामीणों की कथा है, जिन्होंने हाईकोर्ट से लड़ कर अपने गांव के बंद पड़े अस्पताल को फिर से खुलवाया है। 30 बेड के रेफरल अस्पताल को 2010 में माओवादी ख़तरे की वजह से जिला प्रशासन ने बंद करा दिया था। ग्रामीणों ने पहले तो जिला प्रशासन से गुहार लगा कर इसे फिर से खुलवाने की कोशिश की, लेकिन जब इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली तो वे उच्च न्यायालय, पटना चले गये। वहां फ़ैसला उनके पक्ष में आया। अब फिर से इस गांव में डॉक्टर आने लगे हैं। जीर्ण-शीर्ण हो चुके अस्पताल भवन के जीर्णोद्धार की कोशिशें भी चल रही हैं।

कहानी शिवहर जिले के तरियानी छपड़ा गांव की है। स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों के गांव में 1992 में एक रेफरल अस्पताल खुला था। 30 बेड के इस अस्पताल से आस-पास के पूरे इलाके को फायदा होता था। मगर बहुत जल्द यह इलाका माओवादी दबिश का शिकार हो गया और डॉक्टरों ने यहां आना बंद कर दिया। ऐसे में साल 2010 में तत्कालीन डीएम सुरेश प्रसाद ने अस्पताल को बंद करवा दिया। जिला प्रशासन का कहना था कि इलाके में बढ़ रही माओवादी घटनाओं की वजह से यहां अस्पताल चलाना संभव नहीं है, हालांकि ग्रामीण गांव में किसी तरह के ख़तरे की बात से इनकार करते हैं। एक रिटायर फौजी मुन्ना जी कहते हैं, कि माओवादी ख़तरे की बात झूठ है। यहां कभी किसी अस्पताल के स्टाफ के साथ कोई बदसलूकी तक नहीं हुई। हालांकि माओवाद से डर को साफ़ तौर पर इनकार भी नहीं किया जा सकता। ग्रामीण यह भी बताते हैं कि 9-10 साल चलने के बाद अस्पताल में डॉक्टरों ने आना बंद कर दिया था। वे प्रमुख के घर महीने में एक बार आते और हाजिरी बनाकर चले जाते।

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जर्जर रेफरल अस्पताल का भवन। बताया जा रहा है कि 50 लाख में भी इसका जीर्णोद्धार मुमकिन नहीं हो पा रहा। फोटो-पुष्यमित्र

खैर, सच्चाई जो भी हो, मगर अस्पताल बंद होने के बाद गांव के सभी लोग एकजुट हो गये और अस्पताल को खुलवाने की कोशिश शुरू की। लोग दो साल तक गांव के लोग अस्पताल खुलवाने के लिए यहां-वहां गुहार लगाते रहे। जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि गुहार लगाने से उनकी बात कोई सुन नहीं रहा। फिर उन्होंने पटना उच्च न्यायालय में शरण ली। गांव के ही एक युवक अविनाश कुमार सिंह ने अस्पताल को खुलवाने के लिए 2013 में पीआईएल दायर किया, जिस पर उसी साल फ़ैसला आ गया। अविनाश बताते हैं कि अदालत का फैसला उत्साहित करने वाला था। फ़ैसले में कहा गया था कि इस अस्पताल को 24 घंटे चालू रखना है। ऐसी सारी सुविधाएं उपलब्ध करानी है जो एक रेफरल अस्पताल को मिलती है। हालांकि इस फैसले के बाद भी कई दिनों तक अस्पताल शुरू नहीं हुआ। ग्रामीणों ने फैसले की प्रति को लेकर मौजूदा डीएम राज कुमार से संपर्क किया। उनके हस्तक्षेप के बाद गांव में डॉक्टरों का आना शुरू हो गया।

समस्या यह है कि सालों से बंद पड़ा अस्पताल भवन जर्जर हो चुका था। अब वहां काम करना मुमकिन नहीं था। ऐसे में डॉक्टरों ने अनुरोध किया कि उन्हें पंचायत भवन से ही ओपीडी चलाने दिया जाये। अविनाश बताते हैं कि ग्रामीण तात्कालिक तौर पर मान गये, मगर अस्पताल को पुरानी व्यवस्था में चालू करने की लड़ाई लड़ते रहे। अविनाश का कहना है कि उनके दबाव के बाद 50 लाख रुपये की राशि अस्पताल के जीर्णोद्धार के लिए आयी। मगर एक्जीक्यूटिव इंजीनियर ने अस्पताल का निरीक्षण करने के बाद रिपोर्ट दी कि इस काम में 50 लाख की राशि कम पड़ेगी। इसी वजह से जीर्णोद्धार का काम अटका पड़ा है। हालांकि वे लोग जिला प्रशासन पर लगातार दबाव बनाये हुए हैं कि उच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप अस्पताल को 30 बेड की क्षमता के साथ 24 घंटे चालू रखने वाली स्थिति में लायें।

(साभार-प्रभात ख़बर)

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पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।


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2 thoughts on “गांव वालों ने लौटाईं अस्पताल की ‘सांसें’

  1. पुष्यमित्र जी की अस्पताल वाली रिपोर्ट यह साबित करने के लिए काफी है किहमारी सरकार स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र मे निजी निवेशकों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी अस्पतालो को बीमार बना चुकी है।

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