ग़रीबी के जाल में मछली से तड़फड़ा रहे हैं मछुआरे

पुष्यमित्र

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मचान पर बिछा जाल, अब जाल का यही इस्तेमाल रह गया है। फोटो -पुष्यमित्र

जातियों के नाम पर लड़े जा रहे इस चुनाव में निषाद जाति की बड़ी चर्चा है। दोनों बड़े गठबंधन राज्य में बसी 14 फीसदी निषाद जाति को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहे हैं, इनके नाम पर कुछ छोटी पार्टियां भी खड़ी हो गयी हैं। मगर वोट बैंक की इस राजनीति करने वाले सियासतदानों को शायद ही पता हो कि खुद निषाद जाति के लोग किस हाल में जी रहे हैं। जहां एक ओर नदियों पर तटबंध बन जाने से इनकी आजीविका छिन गयी है, वहीं मत्स्य समितियों की राजनीति की वजह से ज्यादातर मछुआरे बेरोजगार हो गये हैं। इनकी बहू-बेटियां आज भी सामंती जाति के लोग के दुर्व्यवहार का शिकार बन जाती हैं। कहने को ये अति पिछड़ी जातियां हैं, मगर हाल के बरसों में इनकी हालत राज्य की सबसे दरिद्र कही जाने वाली जाति मुसहरों से भी बदतर हो गयी है। दरभंगा-मुजफ्फरपुर की सीमा पर स्थित गयाघाट प्रखंड के धनौर में बागमती नदी के तटबंध पर बसी मछुआरों की बस्ती से आंखों देखी एक रिपोर्ट।

चुनावी ज़मीन पर मुद्दों की पड़ताल-7

“धनौर मतलब धन भी और उर(हृदय) भी। मतलब यहां के लोगों के पास धन भी था और वे दिलवाले भी थे।” गांव की शुरुआत में ही मिले विनोद जी हमें इस गांव के नाम का मतलब बता रहे थे। उनके बीमार पिता ने कहा कि यह जमींदारों की बस्ती है। इस गांव में कई लोग ऐसे हुए, जिनकी जमीन 50-50 गांवों में थी। बीस-बीस हजार, पचास-पचास हजार बीघा तक। एक सज्जन तो ऐसे हुए, जिन्होंने तय कर लिया कि वे पूजा करने जनकपुर तक अपनी ही जमीन पर बने रास्ते से जायेंगे। जनकपुर यहां से 100 किमी दूर है। उन्होंने यहां से जनकपुर के बीच बसे सभी गांव में थोड़ी-थोड़ी जमीन खरीदी और उस पर बने रास्ते पर चल कर जनकपुर तक गये। मगर यह सब पहले की कहानियां हैं। जमींदारी खत्म होने पर ऐसे सारे लोग जमीन पर आ गये हैं।

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इन महिलाओं की दुख भरी दास्तां का कोई ओर छोर नहीं, बस सुनते रहिए, वो बोलती रहेंगी। फोटो-पुष्यमित्र

विनोद जी और उनके पिता की कहानियां इस गांव के बारे में जो सुखद भाव जगाती हैं, इस गांव के मल्लाहों की हालत देख कर वे भाव हवा होते देर भी नहीं लगती। गांव में 1200 से अधिक मल्लाहों के घर हैं। मगर इनमें से एक के पास भी अपनी जमीन नहीं हैं। जिस जमीन पर वे बसे हैं, उसका बासगीत परचा भी अधिकतर लोगों के पास नहीं है। ज्यादातर घर आधा डिसमिल से लेकर एक डिसमिल तक की जमीन पर बने हैं। छोटा सा आंगन, फूस की दो कोठरियां, बस खत्म। सब के सब भीषण गरीबी का शिकार हैं, मगर एक तिहाई लोगों के पास ही बीपीएल कार्ड है। 60-65 लोगों को ही इंदिरा आवास मिला है। बच्चे स्कूल तो जाते हैं मगर बस कहने को। शौचालय की कौन पूछे, घरों में नहाने-धोने की भी व्यवस्था नहीं। आखिर यह हाल क्यों है? धनौर का धन इनके हिस्से में क्यों नहीं, उर(हृदय) वाले धनियों का हृदय इनके लिए ही क्यों छोटा पड़ गया?

 चार सौ से अधिक परिवार हाल ही में बागमती नदी पर बने तटबंध के किनारे बसे हैं। पहले यह गांव तटबंध के अंदर आने वाला था। मगर गांव के पावरफुल लोगों ने पैरवी करके किसी तरह इस गांव को बचा लिया। गांव के पास रिंग बांध बन गया। मगर गरीब मछुआरों के घर तटबंध के अंदर ही समा गये, लिहाजा इन्हें तटबंध के किनारे की सरकारी जमीन पर बसना पड़ा। वहां मिले 42 साल के उपेंद्र सहनी, कहने लगे हमारा सबसे अधिक नुकसान इस तटबंध ने किया है। पहले बरसात में नदी का पानी आसपास फैलता था तो गांव के तालाब और गड्ढे भर जाते थे। हमलोग वे गड्ढे जमीन मालिकों से मोल ले लेते थे और फिर वहां मछलियां पकड़ते थे। अब जब से ये तटबंध बना हैं, हमलोगों को भात-रोटी भी आफत है। उपेंद्र सहनी अपने गांव के मछुआरों की बदहाली की जो वजह बताते हैं, वह राज्य के तकरीबन सभी मछुआरों पर लागू होती है। आजादी के बाद से राज्य की सभी नदियों को तटबंध बना कर घेर दिया गया। इन तटबंधों ने बाढ़ से लोगों की सुरक्षा की या नहीं यह तो पता नहीं, मगर वरुण के बेटे, मल्लाह और मछुआरे जो नदी की धाराओं के साथ खेलते-कूदते थोड़ा खुशहाल जीवन जी रहे थे, एक झटके में कंगाल हो गये। अब न नावें चलती हैं, न बाढ़ के पानी से इलाके के गड्ढ़ों में पानी भरता है, जहां वे मछलियां पकड़ सकें।

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तटबंध पर बसा धनौर गांव। फोटो -पुष्यमित्र

राज्य में जल कर की नीलामी के लिए यह नियम बना दिया गया है कि यह उसी समिति को दिया जायेगा जिसका अध्यक्ष मल्लाह होगा। इस बात को लेकर दूसरे समुदायों में भी रोष का माहौल है। लोगों का कहना है कि आखिर सामाजिक स्वामित्व वाले जल संसाधनों पर मल्लाहों का ही कब्जा क्यों हो? मगर खुद मल्लाहों के बीच इस कानून और मत्स्य समिति को लेकर अच्छी राय नहीं है। 60 साल के राम सागर सहनी कहते हैं, समिति में भ्रष्टाचार काफी बढ़ गया है। वे लोग पैसे लेकर एक-एक पोखरा का ठेका तीन-तीन, चार-चार मल्लाह को दे देते हैं। फिर शुरू होता है, मारा-पीटी, केस-मोकदमा। गरीब आदमी इसमें कहां फंसने जाये। 30 साल का युवक नागेश सहनी जो चाकलेट-बिस्कुट की छोटी सी दुकान चलाता है, कहता है-बेकार है समिति। दूसरे जाति का पैसा वाला लोग किसी मल्लाह को पकड़ लेता है और जलकर खरीद लेता है।

गांव के ज्यादातर मल्लाह अब खेतिहर मजदूर हो गये हैं। उनके जाल यहां-वहां फेंके नजर आते हैं। गिरजा देवी कहती हैं, कि अब क्या है इस जाल का काम। एक जगह मछली पकड़ने वाले जाल से आधा डिसमिल जमीन को घेरा गया है, वहां साग-सब्जी उगाने की कोशिश की जा रही है। एक जगह मचान पर जाल बिछा है। अब वह बिछावन के तौर पर इस्तेमाल हो रहा है। एक जगह प्लास्टिक के जाल में भूसा भरा हुआ है। उपेंद्र सहनी बताते हैं, यह सब पिछले चार-पांच साल से हो रहा है, जब से यह तटबंध बना है।

dhanaur pushya-2मगर क्या इनको इस चुनाव से कुछ उम्मीद है। इनकी जाति के कुछ लोग पहले से राजनीति में हैं, कुछ नये-नये आ रहे हैं। एक तो पार्टी ही मल्लाहों के नाम पर बनी है, जिसका चुनाव चिह्न है नाव छाप। नारा है, अबकी बार, नैया पार। तो क्या अबकी बार, नैया पार होगी? यह सवाल सुन कर एक भी मछुआरे के चेहरे पर रौनक नहीं नजर आती। नागेश सहनी कहते हैं, सब पैसे वाला का खेल है। इ लोग नेता बनेगा तो अपना घर भरेगा, हमलोग ऐसे भीख मांगते रहेंगे। उपेंद्र सहनी कहते हैं, एक बार उनकी विधायक इस इलाके से गुजर रही थीं। लोगों ने उन्हें अपनी समस्या बतायी तो उन्होंने कहा, वे उन लोगों का वोट पैसा देकर खरीदी हैं, काम करने का वादा करके नहीं। वे कहते हैं, अब किसने उनका भोट बेच दिया उन्हें नहीं पता। उस बार भी बिक गया इस बार भी बिक ही जायेगा। कोई अपने समाज का आदमी ही बेच देगा।

जब से ये लोग खेतिहर मजदूर बने हैं। स्थानीय भू-स्वामियों का दबाव भी इन पर बढ़ गया है। इस दबाव ने कई दूसरी किस्म की परेशानियों को जन्म दिया है। उनमें से एक है महिलाओं का उत्पीड़न। हाल के दिनों में इस जाति की महिलाओं के साथ ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं। हालांकि लोग खुल कर बात नहीं करते, बस दबी जुबान में स्वीकार करते हैं। एक महिला कहती हैं- 32 दांत के बीच में जीभ की तरह फंसे हैं, क्या करें? घर में शौचालय नहीं है, नाव से नदी पार करके जाना पड़ता है। दूसरी महिला कहती हैं, भूखा पेट मानता नहीं है, साग तोड़ने ही किसी खेत में घुस गये तो उसका बदला भुगतना पड़ता है। मगर विरोध भी नहीं कर पाते। साल भर की मजदूरी तो उन्हीं के खेत से मिलती है। बखत पड़ने पर कर्जा भी तो वहीं से मिलता है।

इसी गांव की एक महिला मीरा साहनी के बारे में कहा जाता है कि उसने इस अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की थी। मगर गैंग-रेप के बाद उसकी हत्या हो गयी। कुछ साल पहले घटी इस घटना पर काफी बवाल हुआ था। स्थानीय समाजसेवियों ने इसे आंदोलन का रूप देने की भी कोशिश की थी। मगर इसका कोई नतीजा नहीं निकला। अब गांव में कोई इस बारे में बात नहीं करना चाहता। उंची जाति के लोग कहते हैं, प्रेम प्रसंग का मामला था। वहीं मल्लाह कहते हैं, दूसरे टाइप की औरत थी, नेता बनना चाहती थी। कुछ बाहरी लोग कहते हैं, उस कांड के बाद केस मुकदमा हुआ, बाद में कुछ ले-देकर समझौता हो गया। पंचायत चुनाव में भी इस समझौते का पालन हुआ। इस चुनाव में भी पूरा गांव एक नजर आता है। कोई यह नहीं कहता, कि अच्छी महिला थी।

 (पुष्यमित्र की ये रिपोर्ट साभार- प्रभात खबर से)

PUSHYA PROFILE-1


पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।


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One thought on “ग़रीबी के जाल में मछली से तड़फड़ा रहे हैं मछुआरे

  1. Om Parkash -Inke liye kuchch karegi SARKAR. Desh mei aisi tasveere croro hongi. Achcha kerna hai toe in jaise nagriko ke liye kuchch kijiye, ye dharmik anddhta se desh khushaal nhi banta. Mandir banwana usme kamjor logo na jaane dene se desh khushaal nhi hoga.

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