क़लम से ही क़ातिलों के सर क़लम करें लेखक

sahitya bahas abp sarvesh

कुमार सर्वेश

तेंदुआ गुर्राता है, तुम मशाल जलाओ।
क्योंकि तेंदुआ गुर्रा सकता है, मशाल नहीं जला सकता।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ये पंक्तियां मुझे कुछ विशेष कारणों से याद आ रही है। एक नेशनल न्यूज़ चैनल पर ‘साहित्यकार Vs सरकार’ बहस में कुछ ऐसा नज़ारा बन गया कि इस पर कुछ कहने से मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। आज लेखकों और साहित्यकारों की वैचारिक निष्ठा और उनकी मंशा पर मीडिया और राजनीतिक गलियारों में सवाल उठाए जा रहे हैं। मैं इस बहस में फिलहाल नहीं जाना चाहता कि साहित्यकारों का पक्ष सही है या सरकार का रुख। लेकिन क्या लेखक और साहित्यकार का किसी विचारधारा से जुड़ा होना गलत है? लेखक घटनाओं के प्रति खामोशी ओढ़ ले और तटस्थ हो जाए तो कोई रामधारी सिंह दिनकर पैदा नहीं होगा। जो लेखक होगा उसे यह कुदरती तौर पर अहसास होगा ही कि ”जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध…”। तटस्थ रहने वाला लेखक कभी अवतार सिंह पाश नहीं हो सकता, जो कह सके ”सबसे ख़तरनाक होता है आदमी के सपनों का मर जाना….सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना”।
sahitya-acadamyलेखक खामोश नहीं रह सकता। उसकी चुप्पी उसकी वैचारिक उर्वरता पर सवाल खड़े करती है। कहना और बोलना उसका मौलिक धर्म है।

साहित्य, सम्मान और सियासत-1

लेखक का किसी विचारधारा से जुड़ाव होना कतई गलत नहीं है। बल्कि सच तो यह है कि लेखक और साहित्यकार का रचना कर्म ही तो बाद में एक विचारधारा बन जाता है। अगर ये सच नहीं होता तो रूस में वैचारिक प्रतिबद्धता को आगे बढ़ाने वाले टॉल्सटॉय, दोस्तोवस्की, चेखव या गोर्की, फ्रांस में रूसो और वोल्तेयर और अमेरिका में बेंजामिन फ्रैंकलिन, थोरो, इमर्सन, वाल्ट ह्विटमैन के साहित्य का व्यापक प्रभाव इन देशों में हुई क्रांति या बाद के पुनर्जागरण पर नहीं पड़ता। बीसवीं सदी में भाषा-शैली के जादूगर कहे जाने वाले गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़ भी राजनीतिक रूप से बेहद प्रतिबद्ध रहते हुए ही ‘एकांत के सौ वर्ष’ को रच सके। चीन में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले साहित्यकारों में से एक मो-यान अगर अपने लेखन के जरिए चीन में हुई व्यापक हिंसा की मुख़ालफ़त को आवाज़ देने से डर गए होते तो उन्हें 2012 का नोबल पुरस्कार शायद ही मिलता। ‘टिन ड्रम’ के जरिए अत्याचार का प्रतिरोध करने वाले गुंटर ग्रास और नादिन गार्डिमर से लेकर इस साल की नोबेल पुरस्कार विजेता स्वेतलाना अलेक्सिएविच सबकी अपनी वैचारिक-राजनीतिक प्रतिबद्धता रही है।

इंडिया टुडे की कवर स्टोरी में नरेंद्र सैनी ने बौद्धिकों की बग़ावत के तमाम पहलुओं को खंगाला है।
इंडिया टुडे की कवर स्टोरी में नरेंद्र सैनी ने बौद्धिकों की बग़ावत के तमाम पहलुओं को खंगाला है।

बिना वैचारिक प्रतिबद्धता के कोई सामाजिक बदलाव कैसे संभव है? हां, इसके लिए वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ सामाजिक प्रतिबद्धता का भी होना उतना ही जरूरी है। ज्यादातर भारतीय साहित्यकार इन दोनों भूमिकाओं को बखूबी निभाते रहे हैं। इसे लेकर उन पर सवाल किया जाना बेईमानी होगी। आज के संदर्भ में (अखलाक़ की घटना के बाद) असली सवाल साहित्यकारों के राजनीतिक हितों और संबद्धता पर उठ रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि ज्यादातर साहित्यकारों का प्रतिरोध राजनीतिक है या राजनीति से प्रेरित है। भेड़िया आया… भेड़िया आया, जैसा माहौल देश भर में बनाया जा रहा है। आप ईमानदारी से देखें तो देश का सामाजिक माहौल उतना बुरा नहीं है जितना हमारे विद्वान साहित्यकार हो-हल्ला मचा रहे हैं। साहित्यकारों का असली सम्मान किसी सरकार और सत्ता प्रतिष्ठानों के बूते की बात नहीं है। साहित्यकारों का सम्मान जनमानस से है। कालिदास, भवभूति, टैगोर, प्रेमचंद, शरतचंद्र, निराला, भारतेंदु, दिनकर और दुष्यंत को सरकारें भूला भी दें तो क्या जनता के मन में उनका सम्मान कम हो जाएगा? यदि साहित्यकार घटनाओं पर प्रतिक्रिया के मामले में सेलेक्टिव अप्रोच अपनाएंगे और किसी मुद्दे को राजनीतिक रंग देंगे तो निश्चित ही जनता के मन से भी उनका सम्मान जाता रहेगा। घटनाओं को लेकर राजनीति करना , साहित्य के लिए भी घातक है। जरूरत है कि आज का साहित्यकार अपनी वैचारिक-राजनीतिक निष्ठा और प्रतिबद्धताओं के बावजूद निष्पक्ष, निष्कलंकित और गैर-राजनीतिक रहे, लेकिन घटनाओं के प्रति मौन न रहे। आखिर साहित्यकार ही तो यह कहने का साहस करता है-

है नहीं शमशीर अपने हाथ में तो क्या हुआ,
हम क़लम से ही करेंगे क़ातिलों के सर क़लम।


 

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वरिष्ठ टीवी पत्रकार कुमार सर्वेश का अपनी भूमि चकिया से कसक भरा नाता है। राजधानी में लंबे अरसे से पत्रकारिता कर रहे सर्वेश ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की है। साहित्य से गहरा लगाव उनकी पत्रकारिता को खुद-ब-खुद संवेदना का नया धरातल दे जाता है।


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