आजादी की गौरवपूर्ण गाथा सिर्फ रस्म अदायगी से नहीं बचेगी

आजादी की गौरवपूर्ण गाथा सिर्फ रस्म अदायगी से नहीं बचेगी

ब्रह्मानंद ठाकुर

आज पूरा देश स्वतंत्रता दिवस की सालगिरह मना रहा है। सरकारी, अर्धसरकारी संस्थाओं से लेकर निजी संस्थानों तक इस अवसर पर समारोहों की धूम मची हुई है। सभी अपने अपने ढंग से इस समारोह को मनाने की पूरी तैयारी की । इन सबके बीच भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लम्बे संघर्षों, देश भक्त शहीदों के आत्म बलिदान और देश की जनता में स्वाधीनता को लेकर उत्साह की कहानी पुरानी पड़ चुकी है। बीते सात दशकों में धीरे-धीरे हम आजादी के संघर्षों को भलते जा रहे हैं । आज ना तो हमें राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत में फर्क पता है और ना ही पता लगाने की चिंता । छात्र ही नहीं बल्कि देश और राज्यों को चलाने वाले मंत्री और नेता भी संघर्षों को भूलते जा रहे हैं ।

पिछले दिनों मैं एक स्कूल के कार्यक्रम में शामिल होने गया वहां परंपरा के मुताबिक राष्ट्रगान हुआ । आखिर में मैंने छात्रों से सवाल किया, राष्ट्रगान किसने लिखा । ज्यादातर छात्र चुप रहे तभी एक छात्रा बोला- रवींद्रनाथ टैगोर । तभी एक शिक्षक बीच में बोल पड़े, नहीं बंकिमचंद चटर्जी । मैं उस शिक्षक के ज्ञान पर हैरान रह गया ।

आखिर ये स्थितियां क्यों और कैसे पैदा हुईं ? हम आजादी आंदोलन के गौरवपूर्ण अपनी विरासत को कैसे भूल गये। इसका जवाब देश की वर्तमान सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों मे खोजने की जरूरत हैं। वर्तमान व्यवस्था हर वैसे विचार और  चिंतन को आम जन से अलग थलग कर देना चाहती है जो उसे नैतिक और सांस्कृतिक रूप से सबल बनाने वाला है। आजादी आंदोलन का इतिहास एक ऐसी गौरवपूरण विरासत है कि जिसे संजोकर, उससे प्रेरणा ले कर हम अपने विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।  आज हमारी उसी चेतना को कुंद करने का प्रयास किया जा रहा है। सरकारी प्राइमरी स्कूलों में तो नियमित राष्ट्रगान की औपचारिकता पूरी की जाती है लेकिन उसमें छिपे संदेशों से नयी पीढी को वंचित किया जा रहा है।

आज का हाल देख हमें याद आने लगते हैं वे दिन जब हम स्कूल मे पढ़ते थे। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस की बड़ी बेताबी से इंतजार रहता था । तब देश को आजाद हुए 12-13 साल बीते थे। इन दोनों अवसरों पर बच्चे, जवान और बुजुर्गों में बड़ा उत्साह देखा जाता था। भोर में प्रभातफेरी के लिए हम सभी छात्र (अक्सर जो पास पड़ोस के होते थे)स्कूल में जमा हो जाते और सीनियर छात्र के नेतृत्व में पंक्तिबद्ध, अनुशासित तरीके से प्रभातफेरी के लिए निकल पडते थे। दो-तीन मील तक प्रभातफेरी करने के बाद पुन:स्कूल मे आते। फिर अपने शिक्षक से जरूरी निर्देश पाकर दौड़ते हुए घर आते, स्नान, नाश्ता के बाद फिर स्कूल मे हमारी जुटान होती। उस दिन का हमारा ड्रेस खाकी हाफ पैन्ट, सफेद शर्ट और सिर पर गांधी टोपी थी।  तिरंगा फहराने के बाद   सांस्कृतिक कार्यक्रम होता। छात्र उस दिन तरह-तरह के राष्ट्रीय गीत, कविता, चुटकुले और कहानियां सुनाते। शिक्षक अपने छात्रों को आजादी आंदोलन का इतिहास बताते। इस अवसर पर हमे देश के आजादी आंदोलन के बारे में बहुत कुछ जानने का मौका मिला ।

श्यामलाल गुप्त पार्षद का प्रसिद्ध झंडा गीत विजयी विश्व तिरंगा प्यारा ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा… हमलोगों से याद कराया गया। वंकिम बाबू का वंदे मातरम् और रवीन्द्रनाथ टैगोर रचित राष्ट्रगान तो स्कूल में नियमित गाने की परम्परा थी। आखिर क्यों हम अपने गौरवपूरण विरासत से खुद को अलग करते जा रहे हैं। ऐसे ही अनेक सवाल हैं जो स्वाधीनता दिवस की सालगिरह पर जवाब मांग रहे हैं।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।