अजीत, सलाखों में कैसे गुन लेते हो हसीन सपने?

रविकांत चंदन

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बनारस के कैदी अजीत कुमार सरोज ने इग्नू के एक डिप्लोमा कोर्स में टॉप स्थान हासिल किया।

प्रतिशोध, नफरत और ना उम्मीदी के बीच आयी एक अच्छी खबर ने नई रोशनी दी है। बनारस के केंद्रीय कारागार में कैद अजीत कुमार सरोज ने इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के तहत पढ़ाई करते हुए देश भर में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। दलित समुदाय के अजीत अपने पड़ोसी की गैर-इरादतन हत्या के आरोप में दस वर्ष की सजा काट रहे हैं। युवावस्था में कथित अपराध के दौरान अजीत बीएससी की पढ़ाई कर रहे थे। जाहिर है, यह पढ़ाई बीच में ही छूट गई। अलबत्ता, अजीत ने जज़्बा नहीं छोड़ा और जेल में रहकर पर्यटन के कोर्स में स्वर्ण पदक प्राप्त किया।

तालीम से बदलेगी तकदीर-एक

इस ख़बर के संदर्भ में अपराध की प्रवृत्ति और दण्ड की प्रक्रिया का विश्लेषण करना जरूरी लगता है। पहली बात तो यह है कि अपराधी जन्मजात नहीं होते। कई बार परिस्थितियाँ किसी व्यक्ति को अपराधी बनाती हैं। क्षणिक आवेश में अपराध करने वाले किसी व्यक्ति का, क्या सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार समाप्त हो जाता है? क्या अपराधी की इस प्रवृत्ति को दूर नहीं किया जा सकता? दुर्भाग्य से, ऐसा मानने और करने का प्रयास नहीं किया जाता। भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के कमोबेश हालात एक जैसे हैं।

दुनिया भर की तमाम लोकतांत्रिक सरकारें अपराधियों के मामले में बहुत कम उदार दिखाई देती हैं। हालांकि कई देशों ने मृत्युदण्ड जैसी सजा का प्रावधान खत्म कर दिया है लेकिन अधिकांश बड़े देशों में यह सज़ा मौजूद है। मृत्युदण्ड देने के पीछे क्या विचार है? क्या मृत्युदण्ड बदले की भावना से दिया जाता है अथवा यह मान लिया जाता है कि अपराधी समाज के लिए ख़तरा है और उसमें सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं है? याकूब मेमन केस में इस तरह की बहस बेमतलब साबित हुई। नतीजा सिफर रहा। दरअसल, दुनिया भर के राष्ट्र-राज्य और उनकी सरकारें ऐसे आदर्श सिद्धांतों में बहुत कम विश्वास रखती हैं कि जेलों को सुधारगृहों में बदलकर अपराधियों को एक सम्मानजनक और सार्थक जीवन जीने का मौका दिया जाए।jail

भारतीय कानून व्यवस्था और जेलों की दशा से अपराधियों के सुधरने की गुंजाइश ढूंढे नहीं मिलती। उल्टे कई बार होता यह है कि जेलों से बाहर आया कैदी पहले से कहीं ज्यादा निराशा और नफरत से भरा होता है। लेकिन अजीत कुमार ने इस धारणा पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित किया है। वास्तव में, कानून, न्याय और दण्ड प्रक्रिया का उद्देश्य यही होना चाहिए कि समाज से अपराधी प्रवृत्ति दूर हो। इसके लिए ज़रूरी है कि ऐसे दण्ड का प्रावधान हो जो अपराधी को बेहतर इंसान बनने का मौका दे।

क्या अपराध रहित समाज की कल्पना की जा सकती है?

दरअसल, अपराध का संबंध असमानता, अन्याय और अत्याचार से होता है। एक सवाल ये भी कि क्या समाज से असमानता, अन्याय और अत्याचार को समूल नष्ट किया जा सकता है। ये परस्पर निर्भर मुद्दे हैं। भारतीय राज्यव्यवस्था की एक विडंबना यह भी है कि अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून और अपराध संहिता को हम आज भी ढो रहे हैं। अंग्रेजों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को स्थापित करने और कायम रखने के लिए दमनकारी कानून व्यवस्था का सहारा लिया। किसान, कामगार, मजदूर, आदिवासी आदि समुदायों के शोषण और उत्पीड़न से संबंधित कानून, धर्म, जाति पर आधारित दुराग्रहों के कारण अंग्रेजी व्यवस्था के दुष्चक्र में भारतीय जनमानस पिसता रहा।

स्वतंत्रता के बाद इस कानून व्यवस्था का न तो विवेकसम्मत परीक्षण किया गया और न ही आलोचनात्मक मूल्यांकन करने की जरूरत महसूस की गई। ब्रिटिश साम्राज्यवादी आचार और अपराध संहिता के कारण हमारी न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़े होते रहे। कमोबेश आज भी शासन-प्रशासन तंत्र के पूर्वाग्रह बने हुए हैं। इसीलिए भारतीय जेलों में बहुत बड़ी संख्या में बेकसूर कैद हैं और अपराधी इसी कानून का बेजा इस्तेमाल करके समाज में आज़ाद घूम रहे हैं। जेलों में क्षमता से कई गुना अधिक कैदी हैं। उनमें अधिकांश विचाराधीन हैं। क़ानूनी पेचीदगियों की वजह से सालों तक केस का निपटारा नहीं हो पाता। दुर्भाग्य से, जब बेकसूर जेल से रिहा होते हैं तो कुंठित होकर बाहर आते हैं। उसके बाद वे समाज में सामान्य जीवन नहीं जी पाते हैं। तब या तो वे पेशेवर अपराधी बन जाते हैं अथवा टूटकर बदहाल हो जाते हैं।

आज़ादी के समय राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता-अखण्डता की दृष्टि से बने ‘इस्पाती’ प्रशासन का बदस्तूर जारी रहना हानिकारक सिद्ध हुआ। समय के साथ धीरे-धीरे स्वाधीनता आंदोलन के मूल्य बिला गए। नैतिकता, आदर्श और सेवाभाव का लोप हो गया। प्रशासनिक तंत्र भ्रष्टाचार का शिकार हो गया। उसमें सामंती प्रभुत्व की सोच का अधिक विकास हुआ। पुलिस व्यवस्था पहले से भी कहीं ज्यादा बर्बर और शोषणकारी सिद्ध हुई। धर्म, जाति और वर्ग-संप्रदायों के दुराग्रहों ने इस व्यवस्था को और भी अधिक कलंकित किया।

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सलाखों के पीछे से अजीत ने जो काम कर दिया, उस जज्बे को शाबाशी दे रहे हैं लोग।

यही वजह है कि आतंकवाद से लेकर चोरी, बलवा और बलात्कार तक की घटनाओं में किसी खास समुदाय या वर्ग को शक की नजर से देखा जाता है। खास समुदाय से लेकर दो जून की रोटी के लिए मशक्कत करने वाला गरीब तबका वर्तमान पुलिसतंत्र और कानून व्यवस्था का आसान शिकार बनता है। इसीलिए एक बृहद संविधान तथा मजबूत और सक्रिय न्याय व्यवस्था के बावजूद दण्ड प्रक्रिया पर लगातार सवाल खड़े होते रहे हैं। वास्तव में, आज कानून व्यवस्था और पुलिसतंत्र में बुनियादी सुधार की जरूरत है। इसके लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है। इसका फिलहाल अभाव दिखता है।

एक राज्य कानून द्वारा अपराध पर अंकुश लगाता है। दण्ड के माध्यम से अपराधियों को नियंत्रित करता है। आधुनिक राज्य का स्वरूप कल्याणकारी है। इसलिए जनमानस में क़ानून के प्रति विश्वास होना चाहिए, भय नहीं। वर्तमान व्यवस्था में दिक्कत यह है कि सामान्य व्यक्ति में कानून के प्रति अधिकांशतः भय व्याप्त है। कानून द्वारा भय पैदा करके अपराध पर अंकुश लगाया जाना संभव नहीं है। दरअसल, दण्ड के प्रावधानों में भय या प्रतिशोध का सिद्धांत सर्वोपरि रहा है। दण्ड का यह सिद्धांत मूलतः मध्ययुगीन है। इसका स्वरूप बर्बरतापूर्ण रहा है।

आज दण्ड के सुधारात्मक सिद्धांत की जरूरत है। इसमें यह माना जाता है कि अपराधी किसी मानसिक रोग का शिकार होता है। इसलिए जेल के भीतर उसे सुधारने का प्रयास करना चाहिए। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक बेंथम ने ‘पेनाप्टी काॅन’ योजना बनाकर जेल को सुधार गृह में बदलने की बात कही थी। हालांकि इग्लैण्ड की सरकार ने उनकी इस योजना को स्वीकार नहीं किया। स्वतंत्र भारत में दण्ड प्रक्रिया पर गाँधी जी के विचार गौरतलब हैं। गाँधी जी मानते थे कि कैदियों को नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि उनका चरित्र निर्माण हो। उन्हें जेल में कोई कला, या काम सिखाया जाना चाहिए ताकि जेल से बाहर जाकर कैदी स्वतंत्र रूप से जीवनयापन करने में सक्षम हों। इसे ‘ओपन जेल स्कीम’ कहा गया। भारतीय जेलों में सिद्धांत रूप में इसी को मान्यता दी गई है, लेकिन व्यवहार में बहुत कम इसका पालन होता है।

प्रसिद्ध रूसी उपन्यासकार दास्तायोवस्की ने अपने उपन्यास ‘अपराध और दण्ड’ में स्थापित किया है कि ‘अपराध से कभी लाभ नहीं होता’। इसलिए अपराधी के मस्तिष्क में यह बात बिठा दी जानी चाहिए कि अपराध एक हानिकारक कृत्य है। जयप्रकाश नारायण कृत ‘जेल डायरी’ और प्रसिद्ध निर्देशक मधुर भण्डारकर की फिल्म ‘जेल’ में जेल के भीतर के गंदे वातावरण को दिखाया गया है। लेकिन बनारस की केन्द्रीय कारागार के जेल प्रशासन ने इस बात को साबित किया है कि अजीत कुमार जैसे कैदियों की ज़िंदगी को सँवारा जा सकता है। वास्तव में, हमें जेल प्रशासन के इस मानवीय चेहरे और अजीत कुमार के हौसले की दाद देनी चाहिए। आज के बेबस माहौल में उन्होंने उम्मीद को कायम रखा है।

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जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी के शोधार्थी रहे रविकान्त इन दिनों लखनऊ विश्यविद्यालय में सहायक प्रोफेसर (हिन्दी विभाग) हैं। उनसे E-Mail : [email protected] या मोबाइल- 09451945847 पर संपर्क किया जा सकता है। 


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3 thoughts on “अजीत, सलाखों में कैसे गुन लेते हो हसीन सपने?

  1. Keshav Dev Patel- गुरुजी ये अजीत होनहार लेकिन परिस्थिति का मारा …बेचारे से कोई गुनाह हुआ फिर भी पढ़ने की ललक हम सब के लिये प्रेणनादायक हैं ! …बदलाव जेल की लड़ाई से प्रारम्भ हुआ !इसके लिऎ आप निश्चित बधाई के पात्र हैं !

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