अंबेडकर, संविधान और अनकहा सच !

सैंड आर्टिस्ट सुदर्शन ने बाबासाहेब को इस तरह श्रद्धांजलि दी। फोटो- पीआईबी
सैंड आर्टिस्ट सुदर्शन ने बाबासाहेब को इस तरह श्रद्धांजलि दी। फोटो- पीआईबी

हरिगोविंद विश्वकर्मा

क्या आप जानते हैं कि बाबासाहेब के नाम से लोकप्रिय दुनिया के सबसे बड़े संविधान के निर्माता डॉ भीमराव रामजी अंबेडकर संविधान जला देना चाहते थे। संभवतः उसी समय उन्हें आभास हो गया था कि देश का पांच फ़ीसदी से भी कम आबादी वाला संभ्रांत तबका संविधान ही नहीं देश के लोकतंत्र को भी को हाईजैक कर लेगा और 95 फ़ीसदी तबके को उसका लाभ नहीं मिलेगा। आज़ादी के बाद ही देश में जिस तरह पॉलिटिकल फ़ैमिलीज़ पैदा हो गईं और पूरी सत्ता उन्हें के आसपास घूम रही है। संविधान से जिस तरह उन्हीं की हित पूर्ति हो रही है और उनके परिवार या उनसे ताल्लुक रखने वाले ही लाभ ले रहे हैं, उससे साफ लगता है अंबेडकर की आशंका कतई ग़लत नहीं थी।

दरअसल, अंबेडकर ने दो सितंबर 1953 को राज्यसभा में चर्चा के दौरान कहा था, “श्रीमान, मेरे मित्र कहते हैं कि मैंने संविधान बनाया है। परंतु मैं यह कहने के लिए पूरी तरह तैयार हूं कि संविधान को जलाने वाला मैं पहला व्यक्ति होऊंगा। मुझे इसकी ज़रूरत नहीं। यह किसी के लिए अच्छा नहीं है।” दो साल बाद, 19 मार्च 1955 को पंजाब से राज्यसभा सदस्य डॉ अनूप सिंह ने सदन में चर्चा के दौरान अंबेडकर के याद दिलाते हुए कहा था, “पिछली बार आपने संविधान जलाने की बात कही थी।” अंबेडकर ने कहा, “मेरे मित्र अनूपजी ने कहा कि मैंने कहा था कि मैं संविधान को जलाना चाहता हूं। पिछली बार मैं जल्दी में इसका कारण नहीं बता पाया था। अब मौक़ा मिला है तो बताता हूं। हमने भगवान के रहने के लिए संविधान रूपी मंदिर बनाया है, परंतु भगवान आकर उसमें रहते, उससे पहले राक्षस आकर उसमें रहने लगा। ऐसे में मंदिर को तोड़ देने के अलावा चारा ही क्या है? हमने इसे असुरों के लिए तो नहीं, देवताओं के लिए बनाया है। मैं नहीं चाहता कि इस पर असुरों का आधिपत्य हो। हम चाहते हैं इस पर देवों का अधिकार हो। यही कारण है कि मैंने कहा था कि मैं संविधान को जलाना पसंद करूंगा।“ इस पर दूसरे सदस्य वीकेपी सिन्हा ने कहा, “मंदिर क्यों ध्वंस करते हैं,  आप असुरों को क्यों नहीं निकालते?” इस पर शतपथ से देवासुर संग्राम की घटना का जिक्र करते हुए बाबासाहेब ने कहा,  “आप ऐसा नहीं कर सकते। हमारे में वह शक्ति नहीं आई है कि असुरों को भगा सकें।“

स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क में अर्थशास्त्र की सह-प्राध्यापिका श्रुति राजगोपालन संविधान में 1950-78 के दौरान संशोधनों पर बात करते हुए डॉ अंबेडकर की नाराजगी के बारे में भी बताती हैं। उनके मुताबिक़, “वैसे तो भारतीय संविधान पर हज़ारों समाचार और विचार प्रकाशित हो चुके हैं, लेकिन किसी भी राजनेता ने आज तक यह जानने की ज़रूरत नहीं समझी कि आखिर संविधान निर्माता ने संविधान के बारे में ऐसा क्यों कहा था।” जो भी हो अंबेडकर जैसी जहीन शखिसयत ने ऐसी बात क्यों कही, उसे जानने के लिए उनके पूरे जीवनकाल पर नज़र डालनी होगी।

bदरअसल, 14 अप्रैल 1891 को केंद्रीय प्रांत (अब मध्यप्रदेश) के छोटे से गांव में अछूत महार परिवार में रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की चौदहवीं संतान के रूप में जन्मे अंबेडकर ने बचपन से अपने परिवार के साथ घनघोर सामाजिक भेदभाव देखा। बाल्यकाल में रामजी सकपाल कहलाने वाले अंबेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में नौकरी में रहे। आर्मी की मऊ कैंप में पोस्टेड पिता सदा बच्चों की शिक्षा पर ज़ोर देते थे। 1894 में पिता रिटायर होने के दो साल बाद मां की निधन हो गया। बच्चों की परवरिश चाची ने कठिन हालात में की। अंबेडकर के दो भाई बलराम एवं आनंद और दो बेटियां मंजुला एवं तुलासा ही जीवित बचीं। पांच भाइयों और बहनों मे केवल अंबेडकर ही स्कूली शिक्षा ले सके। शुरू में मराठी फिर अंग्रेज़ी में शिक्षा लेने वाले अंबेडकर अछूत बच्चों के साथ सतारा के स्कूल मे अलग बिठाए जाते थे। उन्हें कक्षा में बैठने की अनुमति न थी। प्यास लगने प‍र ऊंची जाति का व्यक्ति ऊंचाई से पानी उनके हाथों पर पानी डालता था, क्योंकि उन्हें न पानी, न ही पात्र छूने की इजाज़त थी। इसी भेदभाव के चलते संभवतः बड़े स्कूल में ब्राह्मण शिक्षक के आग्रह पर उन्होंने अपना सरनेम सकपाल से अंबेडकर कर लिया जो उनके गांव अंबावडे के नाम पर था।

अंबेडकर बाद में सपरिवार बंबई आ गए और एल्फिंस्टन रोड में गवर्न्मेंट हाईस्कूल के पहले अछूत छात्र बने। पढ़ाई में तेज़ होने के बावजूद भेदभाव से व्यथित रहे। 1907 में मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद बंबई विश्वविद्यालय में दाखिला लेकर कॉलेज में प्रवेश लेने वाले पहले अछूत बने। उनकी इस सफलता से महार समाज मे खुशी की लहर दौड़ गयी और सार्वजनिक तौर पर उनका सम्मान किया गया। इसी बीच उनकी सगाई हिंदू रीति से दापोली की नौ वर्षीय रमाबाई से हुई। प्रतिभाशाली छात्र होने से उन्हें बड़ौदा के गायकवाड़ राजा सहयाजी राव से स्कॉलरशिप मिलने लगी और 1912 में राजनीति विज्ञान एवं अर्थशास्त्र की डिग्री हासिल की और बड़ौदा सरकार की नौकरी स्वीकार कर ली। वह सपरिवार बड़ौदा चले गए, लेकिन पिता की बीमारी से निधन से फरवरी 1913 में वापस लौटना पड़ा। 1915 में उन्होंने समाजशास्त्र के साथ अर्थशास्त्र, इतिहास दर्शन, मानवकी और राजनीति शास्त्र से एमए किया और बड़ौदा के महाराजा से मिलने वाले 25 रुपए की स्कॉलरशिप पर पढ़ाई के लिए अमेरिका (न्यूयॉर्क) गए। 1917 में कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उनके शोध ‘इवोल्यूशन ऑफ़ प्रोविन्शिअल फाइनान्स इन ब्रिटिश इंडिया’ (ब्रिटिश भारत में क्षेत्रीय वित्त का उदय) के लिए उन्हें पीएचडी की डिग्री दी।

डाक्टरेट की डिग्री हासिल करने के बाद अंबेडकर वित्तीय मदद की बदौलत पढ़ाई करने लंदन चले गए। उन्होने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में क़ानून का अध्ययन और अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट शोध के लिए नाम लिखवा लिया। 1920 में बैरिस्टर की डिग्री मिली और 1922-23 में कुछ समय वह जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ़ बॉन में अर्थशास्त्र का अध्ययन करते रहे। 1923 में लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स ने ‘द प्रॉब्लम ऑफ़ रूपी’ पर डीएससी की डिग्री दी। अगले साल स्कॉलरशिप ख़त्म होने से उन्हें मजबूरन देश वापस लौटना पडा़। वापस लौटकर बड़ौदा सेना सचिव पद पर काम करते हुए उन्हें फिर से भेदभाव का सामना करना पड़ा और नौकरी छोड़कर वह निजी ट्यूटर और अकाउंटेंट के रूप में काम करने लगे। बाद में सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर की नौकरी मिल गई।

घनघोर पक्षपात और उपेक्षा से दुखी अंबेडकर 1920 के दशक के अंत तक दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिए अलग निर्वाचिका और आरक्षण की पैरवी करने लगे। 1920 में साप्ताहिक ‘मूकनायक’ शुरू किया, जो बहुत लोकप्रिय हुआ। उन्होंने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू नेताओं और जातीय भेदभाव से लड़ने के लिए किया। दलितों के एक सम्मेलन में उनके भाषण से प्रभावित होकर कोल्हापुर के राजा शाहू चतुर्थ ने उनके साथ भोजन किया, जिससे रूढ़िवादी समाज में हलचल मच गई। बहरहाल, इस बीच अंबेडकर वकालत में जम गए और बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की, जिसका उद्देश्य दलितों में शिक्षा का प्रसार और उनका सामाजिक-आर्थिक उत्थान था। 1926 में, वह बंबई विधान परिषद सदस्य मनोनीत किए गए। 1927 में छूआछूत के खिलाफ बड़ा आंदोलन शुरू किया। 1926 में महाड और 1930 में नासिक के कालाराम मंदिर को सभी के लिए खोलने का सत्याग्रह सफल रहा। उन्होंने यह भी कहा, “दलितों के लिए अलग मंदिर बनवाने की व्यवस्था का कठोर विरोधी हूं। हां, सभी मंदिरों में अछूतों का प्रवेश न्यायोचित और नैतिक मानता हूं।“ उन्होंने पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिए खोलने की भी मांग की। अब अंबेडकर सबसे बड़े दलित नेता बन चुके थे। वह कांग्रेस और गांधी की आलोचना करने लगे। उन्होने गांधी पर दलितों को दया की वस्तु के रूप मे पेश करने का आरोप लगाया। उन्होंने ‘व्हाट द कांग्रेस एंड गांधी हेव डन टू द अनटचेवल्स’ शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी।

फोटो- पीआईबी
फोटो- पीआईबी

आठ अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग सम्मेलन में अंबेडकर ने अपना राजनीतिक विज़न दुनिया के सामने पेश किया, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से आज़ाद होने में ही है। उन्होंने कहा, “हमें अपना रास्ता ख़ुद बनाना होगा, क्योंकि मौजूदा लीडरशिप शोषितों की समस्याएं हल नहीं कर सकती। उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने में ही है। उनको अपने रहने का तरीक़ा बदलना होगा और शिक्षित होना पड़ेगा।” इससे रूढ़िवादी हिंदुओं और कांग्रेस में उनकी इमेज खलनायक की बन गई। बहरहाल, अछूत समाज मे बढ़ती लोकप्रियता एवं जनसमर्थन के चलते उन्हें 1931 मे लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए बुलाया गया। उन्होंने तीनों गोलमेज सम्मेलनों में अछूतों के मुद्दे उठाए। अंग्रेजों को चेतावनी देते हुए कहा भी था कि देश की कुल आबादी का 20 फ़ीसदी अछूत हैं, परंतु 150 साल के शासन में अंग्रेजों ने भी दलितों के लिए कुछ नहीं किया। यहां उनकी अछूतों को अलग निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई कि यह हिंदू समाज की भावी पीढी़ को हमेशा के लिए विभाजित कर देगी। इससे देश में खलबली मच गई, क्योंकि मोहम्मद अली जिन्ना पहले ही अलग रास्ता अख्तियार कर चुके थे।

बहरहाल, 1932 में जब ब्रिटिशों ने अंबेडकर से सहमति जताते हुए अछूतों के लिए अलग निर्वाचिका की घोषणा की, तब गांधी ने इसके विरोध मे पुणे की यरवदा जेल में आमरण अनशन पर बैठ गए, जिसे उच्च वर्ग के हिंदुओं का भारी समर्थन मिला। गांधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव ख़त्म करने को कहा। अनशन से गांधी की हालत ख़राब हो गई। उऩकी मृत्यु होने से संभावित सामाजिक प्रतिशोध और अछूतों की हत्याओं के डर से अंबेडकर ने अनिच्छा से अपनी पृथक निर्वाचिका की मांग वापस ले ली। इसके बदले अछूतों को आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश और छूआछूत ख़त्म करने का आश्वासन मिला, जिसे पूना पैक्ट कहा गया।

b91948 में भारत में अंतरिम सरकार का गठन होने के बाद संविधान निर्माण परिषद बनी। कहा जाता है कि जवाहरलाल नेहरू और सरोजनी नायडू गांधी से मिलने गये थे। नेहरू के चिंतित नज़र आने पर गांधी ने वजह पूछा तो नेहरू ने बताया कि संविधान बनाने के लिए एशियार्इ देशों के संविधान विशेषज्ञ आयुस जेनिस को बुलाने की सोच रहे हैं। तब गांधी ने कहा कि आपके पास संविधान विशेषज्ञ अंबेडकर हैं। इस तरह अंबेडकर 29 अगस्त 1947 को संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद बनाए गए। यह भी कहा जाता है कि संविधान बनाने में वह आज़ाद नहीं थे। उन पर नेहरू और पटेल का भारी दबाव रहता था। कई क़ानूनों के पक्ष में वह बिलकुल नहीं थे, पर मानना पड़ा। अलग विषय पर अलग कमेटियां पहले ही बना दी गई थीं। मौलिक अधिकारों की कमेटी के अध्यक्ष ख़ुद नेहरू थे, उसमे अंबेडकर को सदस्य भी नहीं बनाया गया। हर जगह वही हुआ जो नेहरू और पटेल चाहते थे। इस तरह संविधान समझौते का एक दस्तावेज भर है। यहां तक कि आज़ादी के बाद गांधी ने भी कहा था, मेरी कहां चलती है कौन बात मानता है। इसीलिए अंबेडकर को मजबूर होकर संविधान जलाने की बात कहनी पड़ी थी।

26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान स्वीकार कर अपना लिया। अंबेडकर के शब्दों में ”किसी देश का संविधान मूल दस्तावेज होता है। जिसमें तीनों अंगों कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा विधायिका की शक्तियों एवं अधिकारों का स्पष्ट रूप से उल्लेख रहता है।“ संविधान सभा में डिबेट समाप्‍त करते हुए उन्होंने कहा, ”26 जनवरी, 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करेंगे। राजनीति में समानता होगी परंतु सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी। राजनीति में ‘एक व्‍यक्‍ति एक मत’ और ‘एक मत एक आदर्श’ के सिद्धांत को मानेंगे। मगर सामाजिक-आर्थिक संरचना के कारण हम सामाजिक-आर्थिक जीवन में एक व्‍यक्‍ति एक आदर्श के सिद्धांत को नहीं मानेंगे। आख़िर कब तक हम अंतर्विरोधों के साथ जिएंगे? कब तक सामाजिक-आर्थिक समानता को नकारते रहेंगे? अगर लंबे समय तक ऐसा किया गया तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। इसलिए, हमें यथाशीघ्र यह अंतर्विरोध ख़त्म करना होगा वरना असमानता से पीड़ित लोग उस राजनैतिक लोकतंत्र की संरचना को ध्‍वस्‍त कर देंगे. जिसे बहुत मुश्किल से तैयार किया गया है।”

डॉ भीमराव अंबेडकर जयंती पर सभा को संबोधित करते हुए पीएम मोदी।
डॉ भीमराव अंबेडकर जयंती पर महू में सभा को संबोधित करते पीएम मोदी।

विवादास्पद विचारों के बावजूद अंबेडकर की प्रतिष्ठा असाधारण विद्वान और क़ानून विशेषज्ञ की थी। इसीलिए आज़ाद भारत की पहली सरकार में उन्हें कानून मंत्री बनाया गया। वह अर्थशास्त्री थे और बिजली पैदा करने और सिंचाई की सुविधा की पहली नदी घाटी परियोजना तैयार की थी। संविधान में उन्‍होंने महिलाओं को बड़ी संख्‍या में स्‍वाधीन बनाने के लिए हिंदू संहिता विधेयक भी तैयार किया था और जब संसद में यह बिल पास नहीं किया गया, तब उन्‍होंने कैबिनेट से इस्‍तीफा दे दिया। उन्होंने नेहरू की कश्मीर, तिब्बत और चीन नीति की कटु आलोचना की थी। उन्होंने चीन के भविष्य के रवैये पर भी प्रश्न उठाये थे। अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘थॉट ऑन पाकिस्तान’ और ‘पाकिस्तान, ऑर, पार्टीशन ऑफ इंडिया’ में मुसलमानों के बारे अपने विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने मुस्लिम समस्या को भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक बताते हुए मुसलमानों के तीन लक्षणों के संदर्भ में लिखा। पहला, मुसलमान मानववाद या मानवता को नहीं मानता है, वह केवल मुस्लिम भाईचारे तक सीमित है। दूसरा, वह राष्ट्रवाद को नहीं मानता, वह देशभक्ति, लोकतंत्र या धर्मनिरपेक्ष नहीं है। तीसरा, वह बुद्धिवाद नहीं मानता, किसी प्रकार के सुधार- ख़ासकर महिलाओं की हालत, निकाह के नियम, तलाक, संपत्ति के हक़ के संबंध में बेहद पिछड़ा हुआ है।

बहरहाल, अंत में उन्हें आभास हो गया था कि कुछ मठाधीशों के चलते हंदू धर्म में उनके लिए कोई गुंजाइश नहीं है और 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में एक औपचारिक समारोह में अंबेडकर ने खुद और उनके समर्थकों ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। 1948 से डायबिटीज़ से पीड़ित अंबेडकर अक्टूबर 1954 तक बहुत बीमार रहे। उनकी नज़र कमज़ोर हो गई थी। छह दिसंबर 1956 को उनकी मृत्यु हो गई। अंबेडकर का जीवन एक ऐसे राष्ट्र-पुरुष की खुली क़िताब की तरह है जो राष्ट्रीय एकात्मता, सामाजिक समरसता एवं भावी राष्ट्र निर्माण के पृष्ठों से भरी है। वह अपने युग के सर्वश्रेष्ठ शिक्षाविद, विचारक और लेखक थे। वह सही मायने में आधुनिक युग के राजर्षि थे। वह हिंदू समाज के लिए भगवान शंकर की तरह थे, जिन्होंने समाज की तमाम कटुता, वैमनस्य और द्वेष का ख़ुद विषपान कर समाज को समरसता, समन्वय और सहयोग का रास्ता दिखाया।


hari govind vishvkarma

हरिगोविंद विश्वकर्मा, संपादक, आरोग्य संजीवनी। मुंबई में 22 साल से प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पत्रकारिता। महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी के सदस्य।

One thought on “अंबेडकर, संविधान और अनकहा सच !

Comments are closed.