वैष्णव जन तो तैणें कहिए… जे पीर पराई जाने रे

Mahatma Gandhi’s greets and aged Muslim Peasant during his tour of Noakhali, undertaken to bring about Hindi-Muslim unity.
नोआखली में एक मुस्लिम बुजुर्ग के साथ बातें करते महात्मा गांधी।

आज गांधी का जन्मदिन है। सत्य और अहिंसा का सबक याद करने का दिन। अहिंसा की डगर कठिन है और उससे भी ज़्यादा कठिन है सत्य की राह। सत्य और अहिंसा को एक साथ साध पाना किसी बिरले इंसान के बूते का ही है। गांधी को याद करें तो कैसे, उन्हें ढूंढे तो कहां… ये एक सवाल 2 अक्टूबर को कुछ और मौजूं हो जाता है। हर साल की तरह राजघाट पर सर्वधर्म प्रार्थना सभा हुई। बापू की समाधि पर राजनेताओं का जमघट लगा। आम लोगों ने दो फूल चढ़ाए। इस रस्म अदायगी से दूर कुछ सवाल सोशल मीडिया पर भी तैरते रहे। टीम बदलाव की नज़र उन पर पड़ी, उन्हें साझा कर आपके अंतर्मन से दो बातें करने की कोशिश है। वैष्णव जन तो तैणें कहिए, जे पीर पराई जाने रे। पराई पीर का एहसास कर लीजिए।

हे राम! क़ातिलों की शक्ल बदली, अक्ल नहीं?

बापू, न जाने क्यों, तुम्हारे जन्मदिन पर भी तुम्हारा क़त्ल ही याद आता है। याद आता है तुम्हारा अन्तर्मन से पुकारा गया ‘हे राम!’ शायद इसलिये बापू कि तुम्हारे धर्मों से परे स्नेहिल राम का कुछ आतताइयों ने अपहरण कर लिया है और उस अपहृत राम का हवाला देकर, वे इस देश को नफ़रतों की आग में झोंके जा रहे हैं। लहू के सैलाब में डुबाते जा रहे हैं, दुनिया के बाज़ार में बेचे जा रहे हैं। मुझे तुम्हारे जन्मदिन पर, तुम्हारे सीने की ओर तनी हुई गोडसे की पिस्तौल याद आ रही है। शायद इसलिये की आज गोडसे की औलादें और सच्चाई और मुहब्बत की ओर तनी हुई उनकी पिस्टलें जगह-जगह दिखाई देने लगी हैं, जिनसे वे कभी किसी पानसरे, कभी किसी दाभोलकर तो कभी किसी कलबुर्गी की हत्या कर दे रहे हैं।

पुरुषोत्तम अग्रवाल का एक नारा, जो हर उस इंसान के जेहन में गूंजता है, जिसे इंसानों से सच्चा प्रेम है।
पुरुषोत्तम अग्रवाल का एक नारा, जो हर उस इंसान के जेहन में गूंजता है, जिसे इंसानों से सच्चा प्रेम है।

गोडसे तो पकड़ लिया गया था बापू पर ये उसकी औलादें उससे कहीं अधिक चालाक व शातिर हैं। उनके पास तुम्हें और तुम्हारे जैसों की हत्या के ऐसे अनगिन उपाय हैं, जिससे हत्यारे होकर भी, वे हत्यारे साबित नहीं हो पायेंगे। वे इतने शातिर हैं कि अमेरिका से लेकर तुम्हारे ही गुजरात के अम्बानी-अडानी तक का हगा-मुता, इस देश में फैलाकर, तुम्हारे दोनों चश्मों से दुनिया को ‘स्वच्छ भारत’ दिखा देंगे। वे इतने शातिर हैं कि दुनिया को समझा देंगे कि इस देश के किसान इतने सम्पन्न हैं कि वे भूखे नहीं मरते बल्कि ऐय्याशी के चक्कर में जान दे देते हैं। वे इतने शातिर हैं कि दुनिया को दिखा देंगे कि इस देश के मज़दूरों के चेहरों पर मुर्दिनी नहीं छायी है बल्कि आध्यात्मिकता की आभा फैली हुई है। वे इतने शातिर हैं कि प्राइवेट फर्मों में पाँच हज़ार महीने पर बारह-बारह घंटे घिसटने वाले मध्यवर्गी कामगारों की फौज़ के प्रोफाइल पिक्चर्स को एक थके हुये तिरंगे में बदलवा कर, उन्हें देशभक्ति खाने के लिये परोस देंगे ताकि वे अपनी कम पगार और मालिकों के अत्याचार का रोना न रो सकें। वे इतने शातिर हैं बापू, कि अब तुम्हारी हत्या के लिये उन्हें किसी पिस्तौल की ज़रूरत नहीं होगी। वे गोडसे जैसे हत्यारों को शह देने वालों के सरदार को तुम्हारी तस्वीर के बग़ल में एक संत के रूप में बैठाकर, तुम्हारी हत्या कर देंगे।
आज तुम होते बापू, तो दादरी मार्च करने के लिये फिर से मार दिये जाते। फिर भी जन्मदिन मुबारक हो।
sayeed ayub

 


 

सईद अय्यूब । जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। स्वतंत्र लेखक।

 


दो निवालों में निगले गए नफ़रत के तमाम कारखाने

बापू के देश में दादरी के आंसू क्यों?
बापू के देश में दादरी के आंसू क्यों?

जिस समय दादरी में शर्मशार करने वाली घटना हो रही थी, उसी के कुछ घंटे आगे-पीछे की बात। तिरुपति रेलवे स्टेशन से सिकंदराबाद जाने वाली एक्सप्रेस ट्रेन छूटने ही वाली थी कि एक परिवार सामने वाली बर्थ पर आकर बैठ गया। प्रौढ़ महिला, एक युवा बेटा और किशोरवय की बेटी। शायद तिरुपति से भगवान बाला जी के दर्शन करके लौट रहे थे। एक दो स्टेशन बाद झकास सफेद कुर्ता-पैजामा पहने और उतनी झक सफेद बकरा दाढ़ी वाले एक मुस्लिम बुजुर्ग नमूदार हुए। उनका रिजर्वेशन भी उसी कोच में था। कोई किसी से परिचित नहीं।

जैसा आमतौर पर ट्रेनों में होता है, बातों का सिलसिला शुरू हो गया तो घनिष्ठता का रूप लेते देर नहीं लगी। बुजुर्ग महाशय से उस परिवार की बातें तेलुगू में शुरू हुईं, चलती रहीं। साथ-साथ हंसी और मुस्कराहट की रवानगी। वो शायद बिजनेसमैन थे। बताते रहे कि कैसे वृंदावन से लेकर आगरा और वाराणसी से लेकर अलवर तक घूम चुके हैं। हर जगह की खासियतें उनकी जुबान पर। फिर खाने का समय हुआ, दोनों ने अपने घर से लाए खाने को खोला। बुजुर्ग महाशय ने जब अपना खाना सामने बैठे परिवार को ऑफर किया तो एकबारगी महिला थोड़ा पशोपेस में दिखीं। फिर दोनों ने अपने खाने को इस तरह आपस में बांट लिया कि लगा ही नहीं कि वो अपरिचित हैं और दो ऐसे धर्मों के, जिसके बीच खाइयां पैदा करने के तमाम कारखाने सक्रिय हैं।

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संजय श्रीवास्तव। पिछले तीन दशकों से अपनी शर्तों के साथ पत्रकारिता में ठटे और डटे हैं संजय श्रीवास्तव। संवेदनशील मन और संजीदा सोच के साथ शब्दों की बाजीगरी के फन में माहिर। आप उनसे 9868309881 पर संपर्क कर सकते हैं।