दूसरी हरित क्रांति- कुछ सवाल, कुछ सुझाव

28 जून 2015, हज़ारीबाग में भारतीय कृषि शोध संस्थान के शिलान्यास के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। फोटो स्रोत- पीआईबी

पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हजारीबाग के बरही में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की शुरुआत करते हुए दूसरी हरित क्रांति का ऐलान किया है और यह भी कहा कि बिहार-बंगाल-झारखंड समेत उत्तर-पूर्वी भारत इस हरित क्रांति का केंद्र होगा। यह कोई नया ऐलान नहीं है, यूपीए सरकार के दौरान भी छिट-पुट तौर पर ऐसी बातें कहीं और की जाती रही हैं, बजटों में भी इस इलाके में खेती के विकास के लिए अधिक राशि का प्रावधान किया जाता रहा है। आज़ादी के वक़्त से ही हर तरह से उपेक्षित इस इलाके में खेती के विकास के लिए अगर सरकार कुछ करना चाहती है तो निश्चित तौर पर इसे स्वागतयोग्य कदम कहा जायेगा, मगर… ?

मगर, जो लोग पहली हरित क्रांति के परिणाम से भिज्ञ हैं उन्हें जरूर यह सवाल कहीं न कहीं मथता होगा कि आखिर इस दूसरी हरित क्रांति का अंजाम कहीं पहली हरित क्रांति जैसा तो नहीं होगा। पंजाब-हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में केंद्रित पहली हरित क्रांति निश्चित तौर पर इस इलाके के लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने में मददगार साबित हुई है। यही वजह है कि दशकों तक पुरबिया मजदूर हर साल बेहतर मजदूरी के लिए इन इलाकों में पलायन करते रहे हैं। मगर सवाल सिर्फ किसानों की आर्थिक समृद्धि का नहीं है, सवाल किसानी के भविष्य का भी है।

लगातार रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों के भरपूर इस्तेमाल की वजह से इन इलाकों के जमीन की जो हालत हुई है वह किसी से छुपी नहीं है। पिछले कुछ सालों से पंजाब-हरियाणा के किसान उतनी ही फसल के लिए दुगुना-तिगुना उर्वरक इस्तेमाल कर रहे हैं, मगर फिर भी पैदावार लगातार घट ही रही है। साफ़-साफ़ शब्दों में कहा जाये तो इन इलाकों की ज़मीन अब बंजर हो चुकी है। अब जो यहां खेती हो रही है, वह किसानों की जिद की वजह से हो रही है। उनके पास भरपूर पैसा है और खेती करना उनकी आदत है सो वे खेती किये जा रहे हैं। हालांकि इस बीच ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो खेती की ज़मीन बेचकर लंदन और कनाडा जैसे मुल्कों में बसने के लिए बेचैन हैं। वहां की पूरी खेती अब पुरबिया मजदूर ही संभाल रहे हैं।

दूसरी तरफ संकर बीज और कीटनाशकों के भरपूर इस्तेमाल ने फसलों और सब्ज़ियों की जो दशा की है वह किसी से छुपी नहीं है। ये भोज्य पदार्थ मानव शरीर पर क्या असर छोड़ते हैं इस पर भरपूर शोध हो चुके हैं। महानगरीय परिवेश में जैविक खाद्यों की बढ़ती मांग इस बात का इशारा है कि लोगों को अब समझ में आने लगा है कि संकर बीज, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों की मदद से पैदा खाद्य पदार्थ से बचना ही श्रेयस्कर है।

इन परिस्थितियों में यह समझना ज़रूरी है कि आखिर दूसरी हरित क्रांति को सरकार किस दिशा में ले जाना चाहती है। उसकी सफलता के आधार क्या होंगे? क्या वह भी पूर्व से प्रचलित संकर बीज, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों पर आधारित फार्मूले को अपनायेगी या वह कोई और वैकल्पिक रास्ता चुनेगी। देश के कई हिस्से में जैविक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल को लेकर प्रयोग किये जाते रहे हैं। इन प्रयोगों ने साबित किया है कि जैविक विधि अपनाने से उत्पाद भी अहानिकारक रहते हैं और खेतों की सेहत भी लंबे समय तक बरकरार रहती है। अगर इन उत्पादों को ढंग से बेचा जाये तो सामान्य उत्पादों के मुकाबले लोग इसके लिए अधिक कीमत अदा करने को तैयार भी हैं।

बिहार के जमुई के केडिया ग्राम में भी ऐसे प्रयोग हो रहे हैं, जहां का हर किसान जैविक खेती को अपना और आजमा चुका है। वहां घर-घर में जैविक खाद बनाने के लिए संरचनाएं बनी हैं। मगर क्या सरकार इन प्रयोगों को दूसरी हरित क्रांति का आधार बनाने के लिए तैयार है। वैसे प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषणों में जैविक का लगातार उल्लेख करते हैं, मगर व्यावहारिक धरातल पर सरकार इन्हें कितनी तरजीह देती है यह देखने वाली बात होगी, क्योंकि रासायनिक खाद, बीज और कीटनाशक उत्पादकों की लॉबी काफी मजबूत है। वे सामूहिक रूप से सरकार को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। कृषि संस्थानों में भी उनका दखल रहता है, इसलिए कई दफा वैज्ञानिक भी जैविक खेती को हतोत्साहित करने में जुटे नजर आते हैं।

जैविक विधि को अपनाने के बाद किसानों की बाजार पर निर्भरता में भी कमी आ सकती है, क्योंकि इस विधि के जरिये खाद और कीटनाशक घरेलू तरीके से ही तैयार हो जाते हैं। अगर किसान प्राकृतिक बीज का संरक्षण करें तो बीज खरीदने की भी निर्भरता खत्म हो सकती है। किसानों की लागत का बड़ा हिस्सा इन्हीं चीजों पर आजकल खर्च होने लगा है।

इसके अलावा सिंचाई का मसला भी ध्यान देने योग्य है। पहली हरित क्रांति का आधार नहरें थीं। पश्चिमोत्तर भारत की कड़ी ज़मीन पर ये नहरें कारगर साबित होती थीं। मगर पूर्वी भारत के इलाकों में नहरों के जरिये सिंचाई में बहुत सफलता नहीं मिली है। नहरें बहुत जल्द गाद से भर जाती हैं और फिर उनकी सफाई के लिए कम अंतराल पर राशि खर्च करनी पड़ती है। लिहाजा किसान बहुत जल्द बोरिंग और पंपसेट पर शिफ्ट कर गये हैं। मगर ये साधन भी बहुत खर्चीले हैं। इस पूरे इलाके में खेतों की सिंचाई के लिए बिजली की उपलब्धता अब तक ढंग से सुनिश्चित नहीं की जा सकी है, लिहाजा खेती के मौसम में डीजल का भरपूर इस्तेमाल होता है।

बिहार सरकार खरीफ के मौसम में किसानों को डीजल पर सब्सिडी भी देती है। इसके बावजूद खेती की लागत में भी काफी बढोतरी होती है और यह तरीका स्थायी नहीं है क्योंकि इससे जलस्तर नीचे की ओर खिसकता चला जाता है और एक समय पर सिंचाई के पानी में फ्लोराइड जैसे तत्व बाहर आने लगते हैं जो फसलों को भी प्रदूषित करते हैं। इन इलाकों में पारंपरिक तौर पर पोखरों और कुओं के जरिये सिंचाई की जाती रही है। विशेषज्ञों के एक दल का मानना है कि आज भी यही तरीके कारगर हैं। मगर इसमें भी सिंचाई के लिए पंपसेट चलाना ही पड़ता है। लिहाजा किसानों का खर्च और पर्यावरण को ख़तरा बढ़ता ही चला जाता है।

इसके विकल्प के तौर पर सोलर पंपसेट के इस्तेमाल की शुरुआत की गयी है। जहानाबाद जिले में देश के पहले सौर ग्राम में ऐसे पंपों का इस्तेमाल किया गया है। एक बार की लागत में ये पंप लंबे समय तक बिना किसी खर्च के किसानों को सेवा देते हैं। सोलर पंपसेट में बैटरी की भी दरकार नहीं होती। आसमान में धूप हो तो ये अच्छी सेवा देते हैं। बस सोलर प्लेट लगाना पड़ता है। झारखंड में एक संस्था ने तो ठेले पर सोलर पंप लगवा लिया है, यानी इसे जब जहां चाहें ले जा सकते हैं। खेती के मौसम में खेतों में घुमाते रह सकते हैं और जब सिंचाई की जरूरत पूरी हो जाये तो घरेलू इस्तेमाल कर सकते हैं। इन पंपों की लागत कुछ अधिक हो सकती है, मगर सरकार जैसे दूसरे कृषि यंत्रों पर सब्सिडी देती है, वैसे इस पर भी सब्सिडी दे तो किसानों का भार कुछ कम हो सकता है।

एक और मसला पशुपालन का है, भारतीय परंपरा में खेती और पशुपालन के रिश्ते आपस में काफी जुड़े हुए हैं। बैल हल तो जोतते ही हैं, गोबर का इस्तेमाल हमेशा से प्राकृतिक उर्वरक के रूप में किया जाता रहा है। मगर पहली हरित क्रांति ने इस रिश्ते को छिन्न-भिन्न कर दिया, जुताई के काम में ट्रैक्टर को तरजीह दी जाने लगी और गोबर खाद के बदले यूरिया का इस्तेमाल किया जाने लगा। ऐसे में पिछले दो-तीन दशकों में गांवों से पशुधन बिल्कुल लुप्त सा हो गया। अब दरवाजे पर गाय-बैल और भैंस नजर नहीं आते हैं। इसका कुप्रभाव दुग्थ पदार्थों की उपलब्धता पर भी पड़ा। पिछले कुछ सालों में दूध की कीमतों में जिस रफ़्तार से बढ़ोतरी दर्ज हुई है उसकी यह बड़ी वजह है। 2008 तक दूध 16-18 रुपये किलो बिकता था, आज कहीं-कहीं यह 50 रुपये प्रति लीटर की सीमा को छू रहा है।

खेती और पशुपालन को अगर फिर से जोड़ा जाये तो किसानी के लागत में भी कमी आयेगी और किसानों की आय में भी डेयरी उत्पादों की वजह से बढ़ोतरी होगी। साथ ही रासायनिक उर्वरकों पर से निर्भरता भी खत्म होगी और खाद्य उत्पादों की गुणवत्ता भी बेहतर होगी।

हालांकि यह एक बिल्कुल अलग तरह का रास्ता है। खेती को पैसे उगाने और खेतों को सोना उगलने की फैक्टरी मान चुकी व्यवस्था इसे अपनाने के लिए कितनी तैयार है यह देखना होगा। हालांकि दूसरी हरित क्रांति इन उपायों को अपना ले तो इससे हर किसी का भला होगा। मगर व्यवस्था को इसके लिए अपने सोच में बड़ा बदलाव लाना होगा।

PUSHYA PROFILE-1

 

 

– आलेख पुष्यमित्र का है, जिनसे 09771927097 पर संपर्क किया जा सकता है। पुष्यमित्र पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय में हैं और गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है।