‘आफ़ताब’ और ‘सूरज’ से रौशन होना हो तो, खिड़कियां खोल लें

पशुपति शर्मा

WP_20150923_14_12_14_Pro[1]पटना में चल रहे अनु आनंद राष्ट्रीय रंग महोत्सव के चौथे दिन की दोपहर गांधी के आदर्शों के नाम रही। कटनी से आए नाट्य समूह संप्रेषणा के कलाकारों ने नाटक ‘गांधी ने कहा था’ का मंचन किया। सूरज और आफताब के बीच के फर्क को रौशन करती ये प्रस्तुति कई मौजूं सवालों को उठाती है। बतौर नाटककार राजेश कुमार ने बदलते दौर और गांधी के आदर्श के बीच के द्वंद्व को समेटा है। विषय के तौर पर नाटक में जिन मुद्दों को उठाया गया है, वो अपनी समसामयिकता की वजह से अहम हो जाते हैं। नाटक के निर्देशक सादात भारती ने बड़ी खूबी से इस नाटक को संवारा है। नाटक महज उपदेश देता प्रतीत नहीं होता, बल्कि किस्सागोई के साथ आगे बढ़ता है।

gandhi ne kaha tha1सांप्रदायिक दंगों में  तारकेश्वर (योगेश तिवारी) अपने बेटे सूरज को खो देता है। गांधीवादी तारकेश्वर बापू के कहे मुताबिक एक मुस्लिम बच्चे आफताब को अपने घर में लाकर पालते-पोसते हैं। आफताब ने दंगों में अपने अब्बू-अम्मी को खो दिया था। तारकेश्वर की पत्नी सुमित्रा पहले तो आफताब को घर में पनाह देने से मना कर देती है लेकिन मां की ममता पर बंदिशें बहुत देर तक ठहर नहीं पाती। वो आफताब को अपना लेती है। नाटक में वात्सल्य से भरे कुछ दृश्य बेहद सुंदर बन पड़े हैं। मां के साथ आंख-मिचौली खेलता आफताब, प्रसाद के लिए झगड़ता आफताब मंच पर एक सुखद अहसास पैदा करते हैं।

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सादात भारती- गांधी ने कहा था के निर्देशक।

एक घर में पूजा की आरती और नमाज साथ-साथ होती है। वक्त के साथ आफताब बड़ा होता है और रोज-रोज के तानों से उसमें भी हिंदू-मुस्लिम के अलग होने का भाव पैदा होने लगता है। आलम ये कि वो जेहाद के नाम पर गुमराह हो जाता है। तारकेश्वर को इससे धक्का पहुंचता है और उसका गांधीवाद से भरोसा टूट सा जाता है। लेकिन आखिर में जब आतंकी बेगुनाहों का खून बहाते हैं तो आफताब को अपनी ग़लती का एहसास होता है और वो अपने घर लौट आता है। इस बार आफताब के साथ होता है एक सूरज। वो सूरज जिसके माता-पिता आतंकियों की गोली का शिकार हो जाते हैं। वैष्णव जन तो तैणें कहिए की धुन पर नाटक ख़त्म होता है।

सादात भारती ने बाबरी मस्जिद से लेकर हिंदूवादी सोच को मिल रहे बढ़ावे जैसे तमाम सवालों को नाटक में उठाया है। भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मुक़ाबले कैसे दो मुल्कों की मजहबी दीवार को और चौड़ा कर देते हैं, इसे दिखाया है। इस सबके बीच अल्पसंख्यकों में बढ़ती असुरक्षा की भावना को रेखांकित किया है। गनीमत ये है कि जिस कथ्य के दोहराव का शिकार हो जाने का डर था, उसे सादात भारती ने नयापन दे दिया है। इस मायने में ये प्रस्तुति और भी ख़़ास हो जाती है।


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